‘कर्बला दर कर्बला’ भागलपुर दंगों की विभीषिका की तहें खोलने का प्रयास है

पुस्तक समीक्षा: गौरीनाथ के ‘कर्बला दर कर्बला’ की दुनिया से गुज़रने के बाद भी गुज़र जाना आसान नहीं है. 1989 के भागलपुर दंगों पर आधारित इस उपन्यास के सत्य को चीख़-ओ-पुकार की तरह सुनना और सहसा उससे भर जाना ऐसा ही है मानो किसी ने अपने समय का ‘मर्सिया’ तहरीर कर दिया हो.

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(साभार: अंतिका प्रकाशन)

पुस्तक समीक्षा: गौरीनाथ के ‘कर्बला दर कर्बला’ की दुनिया से गुज़रने के बाद भी गुज़र जाना आसान नहीं है. 1989 के भागलपुर दंगों पर आधारित इस उपन्यास के सत्य को चीख़-ओ-पुकार की तरह सुनना और सहसा उससे भर जाना ऐसा ही है मानो किसी ने अपने समय का ‘मर्सिया’ तहरीर कर दिया हो.

(साभार: अंतिका प्रकाशन)

अपनी बीती लिखते हुए मंटो ने एक कहानी में बयान दिया था कि’ये मत कहो कि एक लाख हिंदू और एक लाख मुसलमान मरे हैं… ये कहो कि दो लाख इंसान मरे हैं…’

इस जुमले पर मैं सिर धुनता हूं कि दंगे की किसी कहानी में इंसान-दोस्ती पर इतना दर्द-मंद तब्सिरा शायद ही किया गया हो. लेकिन, इस ‘आदर्शवादी’ विचार से अलग मुझे आज हर तरह का इल्ज़ाम अपने सिर लेते हुए कहने दीजिए कि दंगे में मुसलमान ज़्यादा मरते हैं.

ये बात ज़ोर देकर इसलिए भी कह रहा हूं कि हाल ही में प्रकाशित गौरीनाथ के उपन्यास ‘कर्बला दर कर्बला’ की दुनिया से गुज़रने के बाद भी गुज़र जाना आसान नहीं है.

1989 के भागलपुर दंगे बल्कि नरसंहार पर आधारित इस उपन्यास के सत्य को चीख़-ओ-पुकार की तरह सुनना और सहसा उससे भर जाना ऐसा ही है मानो किसी ने अपने समय का ‘मर्सिया’ तहरीर कर दिया हो.

दूसरे शब्दों में कहें, तो गौरीनाथ ने उस समय की मौक़ापरस्त सियासत, पुलिस-प्रशासन के घिनौने कृत्य, मज़हबी शिद्दत-पसंदी, अपराध जगत और हिंदुत्व के उभार को प्रत्यक्ष रूप से दिखाने की हिम्मत की है.

हालांकि, उनकी कोशिश किसी समय सिल्क सिटी कहे जाने वाले इस शहर की विभीषिका के बीच शिव और ज़रीना के प्रेम को लिखने की है.

इस प्रेम को लिखने की चाह दरअसल अपने समय की हर उस सत्ता के ख़िलाफ़ एक लेखक का विरोध ही हो सकता है, जो धार्मिक कट्टरता या राजनीतिक सत्ता से ख़ुराक हासिल करती हैं.

हां, इस उपन्यास में प्रेम है, मगर अपने समय का शोर ज़्यादा नंगा हो गया है. शायद इसलिए कि इस सियासी और धार्मिक उन्माद को लिखते हुए गौरीनाथ ने दंगे की ज़मीन को एक शोधार्थी की तरह देखने और आत्मसात करने की सोची-समझी कोशिश की है.

एक फ्रांसीसी उपन्यासकार का कथन याद आ रहा है कि;

Truth is greater than hypothesis. The artist must paint life as he sees it all around him. We invent nothing; we imagine nothing except what exists already.

मगर, यहां जीवन को ‘पेंट’ करने की जो बात है, वो इस उपन्यास से अक्सर ग़ायब है.

साफ़-साफ़ कहूं तो साहित्यिक तौर पर इस उपन्यास से मेरी ढेरों असहमतियां हैं, लेकिन उ नपर आने से पहले कहने दीजिए कि ये हमारे समय का एक महत्वपूर्ण ‘दस्तावेज़’ है.

ये बात इसलिए भी कहनी चाहिए कि उपन्यास मुसलमानों के नरसंहार को प्रेम कहानी के इर्द-गिर्द दस्तावेज़ की तरह ही प्रस्तुत करता है.

यूं जिस शहर ने अपने बच्चों को ज़ब्ह होते देखा, इंसानों की नफ़रत देखी, लाशों की खाद पर गोभी की सब्ज़ खेती और रक्तरंजित गंगा तक का अनुभव किया, उस शहर की आंखों को पढ़ते हुए गौरीनाथ ने यथार्थ के कड़वे चित्र ही नहीं बुने बल्कि तथ्यात्मकता के रंग को ज्यों का त्यों रहने दिया.

इसलिए शिव और ज़रीना की मोहब्बत का लम्स और गंगा के पानी से वुज़ू का एहसास भी प्रेम के मनोभाव से आगे निकलकर सिर्फ़ गल्प नहीं रह गया है.

बहरहाल, इस बहुचर्चित नरसंहार से पूर्व यहां की बदलती राजनीति और हिंदुत्व के उभार को उस समय की ख़बरों और किताबों से संदर्भित करते हुए गौरीनाथ ने बिहार में कांग्रेस की सियासत, उस पर 1984 के दिल्ली दंगों की मनहूसियत, राम मंदिर आंदोलन, शाहबानो केस आदि समेत तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की सांप्रदायिकता को अपनी विवेचना और इसके कालबोध का हिस्सा बना दिया है.

वहीं, रांची में उर्दू के मसले पर 1967 के दंगे जैसे कई घाव को अपने चरित्रों के माध्यम से कुरेदने की कोशिश भी की है.

एक तरह से गौरीनाथ ने राज्य और देश के रक्तरंजित इतिहास की राजनीति को समझने के लिए उपन्यास को हर ज़ाविए से सर्वगुणसंपन्न बनाने के जतन किए हैं.

यहां पुलिस संरक्षण में मुसलमानों के ख़िलाफ़ दंगे का विमर्श है तो उसी वक़्त जाति और वोट बैंक की राजनीति का दंश और मुसलमानों के साथ कांग्रेस और दूसरी पार्टियों के रवैये पर भी ख़ूब सारा सियासी और सामाजिक विश्लेषण है.

इसके अक्सर चरित्र अलग-अलग पृष्ठभूमि से भागलपुर पढ़ने आए आसपास के ही छात्र हैं, शायद इसलिए बिहार की सामाजिक संरचना, उनके लोकजीवन और राजनीतिक बनावट का एक व्यापक अध्ययन भी इसमें मिल जाता है.

हालांकि, मैं यहां जिसे सामाजिक कह रहा हूं, वो यहां की राजनीति से ज़्यादा अलग नहीं है. इसके साथ ही भागलपुर के अपने इतिहास और भूगोल को दर्शाती इस कहानी में यहां बसने वाले बंगालियों की दुर्दशा, बुनकर समाज की हालत और माफ़ियाओं की घुसपैठ का उल्लेख भी यथार्थवाद की ज़मीन पर इस उपन्यास की गिरफ़्त को मज़बूत करते हैं.

इन तमाम पहलुओं को गौरीनाथ ने इन्हीं छात्रों के सहारे परिलक्षित किया है. यूं देखें, तो ये उपन्यास उनके मनोभाव और विमर्श में शामिल राजनीति का निरूपण है, लेकिन शिव और ज़रीना समूचे उपन्यास से अलग यहां भी मुख्य पात्र हैं, जो कई मानों में इस कहानी के नैरेटर और सूत्रधार भी कहे जा सकते हैं.

अब जबकि कथा, कथानक और कथावस्तु के निर्माण के पीछे अक्सर यही छात्र हैं तो यहां कुछ उदाहरण भी देखते चलें कि;

‘एक लाश गिरने पर गद्दी मिलती है और साप्ताहिक शोक घोषित हो जाता है. हज़ारों लाशें गिरती हैं, लेकिन संवेदना का एक क़तरा नहीं गिरता. जले पर नमक कि बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिल जाती है.’

‘ख़ुद को नेहरू के विचार-मॉडल का उत्तराधिकारी बताने वाला थोड़े से वोट के लिए नेहरू की आत्मा को लहूलुहान करने में ज़रा भी शर्म-लिहाज़ नहीं महसूस करता है. तभी तो वे बाला साहेब देवरस से हाथ मिलाते हैं और नागपुर से सौदा करते हैं.’

‘ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद ही आरएसएस को कांग्रेस से उम्मीद बंध गई थी और सिख-दंगे के बाद तो राजीव गांधी में हिंदूहित-चिंतक की छवि साफ़ दिखने लगी. तभी तो हिंदू वोट में थोड़ी बढ़ोतरी की उम्मीद पर दिल्ली-नागपुर कनेक्शन बना है.’

इस तरह के तमाम संदर्भों में छात्र मुल्क और राज्य की सियासी करवट पर तर्क-वितर्क और चिंता व्यक्त करते हुए उस समय के सत्य को दस्तावेज़ की तरह लिखने में लेखक की तकनीकी मदद करते हैं. और इसी दौरान शिव और ज़रीना अपने सहपाठियों से ज़रा-सा अलग अपनी दोस्ती और प्रेम को रूढ़िवादी सोच से ‘आज़ाद’ करने का प्रयत्न करते भी नज़र आते हैं.

वो अपने रिश्ते में मुहतात (सोच-विचार कर निर्णय लेने वाले) हैं, इसलिए जहां दिल्ली जाने तक शहर और कॉलेज की सियासी नज़रों से इसको बचा लेना चाहते हैं, वहीं ज़रीना घर वालों के सामने इसके इज़हार से नहीं डरती, मगर शिव जो अपने लोकजीवन में मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत का ज़हर देख चुका है, उसके अंदर बस एक सहमी-सहमी सी बग़ावत है.

दरअसल शिव जिस हिंदू परिवार से आता है उसमें किसी ‘मियनियां’ से रिश्ता जोड़ना मुमकिन नहीं है, वो भी तब जब उसकी आंखों के सामने मुदित और उसकी ‘औरतिया’ जो ‘मुसलमानी’ थी के घर में आग लगा दी गई.

शिव के घरवाले ‘सनातनी मैथिल ब्राह्मण हैं, [जो] मुसलमानों के छुए हुए गंगाजल का भी उपयोग नहीं करते.’

गौरीनाथ ने इस प्रेम कथा में उनके अतीत के गहरे साए और पृष्ठभूमि को इस तरह से पेश किया है कि हमारे समाज की सच्चाइयां सतह पर आ जाती हैं.

ज़रीना के पास हिंदुओं से नफ़रत करने की तमाम वजहें हैं, लेकिन वो शिव से उनको साझा करते हुए भी उसको अपना प्रेमी और हमदर्द ही मानती है;

‘निकल साला मियां! पाकिस्तान का दलाल! आईएसआई का एजेंट! तेरी बीवी को… तेरी बेटी को… ऐसी गंदी-गंदी, नंगी और हिंसक गालियां कि मैं बोल नहीं सकती शिव! मुझे वो गालियां सीधे टांगो के बीच रेंगती जान पड़ती हैं! भीतर चोट करती रहती हैं! अब भी याद कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं! अम्मी, भाईजान और मैं तीनों डर से कांपते घर में बंद थे!’

यहां, शिव से उसकी मोहब्बत में नफ़रत पर विश्वास की जीत है कि वो उस रात के ख़ौफ़ से निकल नहीं पाई है;

‘नहीं शिव वो तो शुरुआत थी. उसके बाद अक्सर सपने में मैं उसी रात की तरह घिर जाती हूं. उससे भी भीषण! मैं देखती हूं उन्हीं गालियों की तरह लोग मेरे साथ कर रहे हैं, मेरा दम घुटने लगता है शिव.’

यहां ये बात रेखांकित की जा सकती है कि ज़रीना के अब्बू को उसकी मोहब्बत से मसला नहीं है, जबकि उसकी अम्मी की चिंता दोहरी है;

‘दोनों (ज़रीना और उसके बड़े भाई) हिंदू संग फंसते जा रहे हैं. पता नहीं कैसे कटेगी इनकी ज़िंदगी.’

बहरहाल, ज़रीना का प्रेम उसकी अम्मी की नज़रों में मज़हब से ‘बग़ावत’ है तो अब्बू की नज़रों में कोई गुनाह नहीं. हालांकि, ख़ुद ज़रीना जो दुनिया के हर मसले से लड़ने का हौसला रखती है, हिंदू-मुसलमान के छोटे-से मसले पर भी कांप जाती है तो इस प्रेम के मनोभाव को गहरे अर्थों में समझना होगा.

इससे अलग ज़रीना को उसके सहपाठी भी इसलिए बोल्ड मानते हैं कि वो शाह बानो प्रकरण पर शरीयत और पर्सनल लॉ की दुहाई देते हुए राजीव गांधी की तारीफ़ करने के बजाय खुलकर आलोचना कर सकती है.

इस प्रेम में विचारों के खुलेपन की बात करें तो वो वक़्त भी आता है जब शिव और ज़रीना लाइब्रेरी की तमाम किताबों की शपथ लेकर और संपूर्ण ज्ञान परंपरा को साक्षी रखकर एक दूसरे के हो जाते हैं.

इस प्रेम के समानांतर ये उपन्यास रेशम के इस शहर में बुनकरों के संघर्ष की कहानी भी कहता है और उस पर यूं तब्सिरा करता है कि; मामूली लोगों की मामूली सियासत पर भी सियासत?

दरअसल, बुनकरों की हत्या और हत्या की राजनीति के इशारे भी उपन्यास को उसी समग्रता की ओर ले जाते हैं, जहां गौरीनाथ इस मुल्क की सांप्रदायिकता और हिंदुत्व की राजनीति पर मंटो से अलग बयान देना चाहते हैं कि अक्सर मुसलमान ही इसके भुक्तभोगी हैं.

यहां वो हिंदुओं की इन चिंताओं पर भी नज़र फेरते हैं कि; ‘जादव-मंडल जिस दिन पावर में आ गए उस दिन वो खदेड़-खदेड़कर बाभन सबको मारेंगे. मुसहर और कबूतर की तरह मुसलमान को भी उड़ते देर नहीं लगती है. ज़्यादा कीजिएगा तो यादव-मुसलमान गठजोड़ हो जाएगा.’

इसके साथ ही मुसलमानों के बारे में ऐसे तब्सिरे भी हैं कि; ‘उसकी औरत से लेकर दस साल की लौंडिया तक ब्राह्मण-कायस्थ के लड़कों को चुम्मा-चाटी देकर भी दस-पांच की कमाई कर लेती है.’

हालांकि, गौरीनाथ उन्हीं के लोकजीवन से इस सच्चाई को भी पेश करते हैं कि; ‘अपना घेघ नहीं दिखता नरोत्तम बाबू, छि**पन में ब्राह्मण घर सबसे आगे है. मियां ने ऐसा किया भी तो मजबूरी में, बाभन-कायस्थ घर की हालत तो यह है कि मंदिर तक में मज़े-मज़े से कुकर्म करने से कोई नहीं डरता. पता नहीं जब-तब किस-किस का खून-वीर्य धोकर मुझे साफ़ करना पड़ता है.’

ऐसे ही वार्तालाप में हिंदू-मुसलमान को बांटकर देखने में अंग्रेज़ों की पैरवी और इज्ज़त बचाने के लिए हिंदुत्व को सबसे बड़ा मंत्र क़रार देते हुए इस उपन्यास के गांव में बसने वाले ये किरदार हमारे समाज के सत्य को कई अर्थों में पेश करते हैं कि;

‘राम मंदिर की ईंटें गांव-गांव से भेजने की जो योजना है न, इसी की मार से तो साला मियां आधा हो जाएगा.’

ऐसे ही गौरीनाथ ने भागलपुर में 1941 के हिंदू महासभा के अधिवेशन में सावरकर के संदेश, 1946 और 1967 के दंगे को कथावस्तु के तौर पर पेश करते हुए कांग्रेसी हिंदू के महासभाई चेहरे की तरफ़ बड़े मानीख़ेज़ इशारे किए हैं.

और इन्हीं इशारों में 25 अक्टूबर 1946 के बिहार दंगे में चालीस-पचास हज़ार मुसलमानों के क़त्ल-ए-आम का सत्य भी अपने इतिहास और उसके सौंदर्यबोध के साथ चला आया है.

कांग्रेस के हिंदूकरण को दिखाते हुए गौरीनाथ ने इंदिरा गांधी द्वारा विश्व हिंदू परिषद की ‘एकात्म यात्रा’ और राजीव गांधी के रामलला का ताला खोलने और अयोध्या में जय श्रीराम का नारा लगाने तक को बड़ी बेबाकी से उसके गुण-दोष के साथ पेश किया है.

उन्होंने शिव के सहारे शहर में शाखा की मौजूदगी और उसके स्वरूप पर भी अच्छा विश्लेषण किया है.

इसी कड़ी में नरसंहार से पहले हिंदुत्व के नारों के उभार पर गौरीनाथ के किरदारों की चिंताएं समकालीन हेट स्पीच पर हमारी चिंताओं से अलग नहीं हैं.

ऐसे ही नारों में ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं’, ‘हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान, मुल्ला भागो पाकिस्तान,’ ‘गाय हमारी माता है, मियां इसको खाता है’ और नरसंहार के समय ‘जय मां काली, करो तातारपुर ख़ाली,’ ‘बाबर की औलादों, छोड़ो हिंदुस्तान, भागो पाकिस्तान या जाओ क़ब्रिस्तान,’ ‘पांच वक़्त की गुलामी छोड़ो, बोलो वंदेमातरम,’ ‘बच्चा-बच्चा राम का, बाक़ी सब हराम का’ के अलावा उस समय हिंदू हो चुकी पुलिस के उस भाषण का भी उल्लेख है, जिसमें शहर को ‘दूसरा कर्बला’ बना देने की बात कही गई थी.

बता दें कि यहां उस पुलिस अधिकारी केएस द्विवेदी के भाषण की बात हो रही है, जो 2018 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा बिहार डीजीपी पद पर नियुक्ति पाने की वजह से सुर्ख़ियों में आए थे.

ऐसे कई हवालों की रोशनी में मुसलमानों के नरसंहार और उनकी औरतों से बलात्कार के घटनाक्रम को पेश करते हुए गौरीनाथ ने पाठकों का कलेजा झकझोर दिया है, साथ ही इसके लिए ज़िम्मेदार हर व्यक्ति का चेहरा खोलकर ये बताने की कोशिश भी की है कि मुसलमानों के साथ इस युग के कर्बला में यज़ीद ने जंग नहीं की, बल्कि निहत्थे मुसलमानों को ज़ब्ह किया, और उनके मुर्दा जिस्मों पर गोभी उगाई.

इतिहास में शायद ये पहली बार हुआ हो कि सब्ज़ गोभी पर मंडराते गिद्धों ने इंसान के वहशी हो जाने का जश्न का मनाया हो.

ज़ाहिर है शिव और ज़रीना के प्रेम पर भी इस घटनाक्रम का मनहूस साया मन को व्यथित करता है, हालांकि अपनी इंतिहा को पहुंचने तक ये पाठक को बांधकर नहीं रख पाता. यह इस उपन्यास की बड़ी ख़ामी है.

बहरहाल, एहतियात के साथ कहूं तो युग विशेष या किसी कालखंड के सत्य को अपनी कल्पना में स्थापित करते हुए उपन्यास लिखना कई बार दुसाध्य होता है. यूं देखें तो गौरीनाथ तथ्यों को इतिहास की सच्चाइयों की तरह लिखने की कोशिश में उपन्यास के तक़ाज़ों को पूरा नहीं कर पाए, या फिर ये कि ऐतिहासिक तत्वों का निरूपण ही सृजन-शक्ति पर हावी हो गया.

यहां उपन्यास में इतिहास लेखन पर चर्चा नहीं करना चाहता, लेकिन ये कह सकता हूं कि उपन्यास को पहले उपन्यास ही होना चाहिए. हालांकि, कई लोग इस तरह की लेखनी को प्रयोग के तौर पर स्वीकार करते हुए इसकी सराहना कर सकते हैं.

मेरी राय में एक साहित्यकार के लिए किसी कालखंड की घटना का सबसे बड़ा सत्य सिर्फ़ इंसान और उसका जीवन होता है, इससे अलग अगर उस समय को इतिहास के गणितीय भाषा में भी लिखा जाता है तो ये तथ्यात्मक तौर पर आख्यान को सशक्त ज़रूर करता है, लेकिन कल्पना और यथार्थ के मेल को कई बार कमज़ोर बना देता है.

इस उपन्यास पर भी सबसे बड़ा सवाल यही है कि दंगे को विषय बनाते हुए लेखक की हैसियत क्या है, क्या उसने नागरिक होने की हैसियत से इसे लिखा है, या एक साहित्यकार के तौर पर.

मेरी समझ से ये दोनों हैसियतें उस शोधार्थी के सामने दब गई, जिसको इंसान और उसके जीवन से उतना सरोकार नहीं होता जितना कि अख़बार के एक तराशे से भी हो सकता है.

यूं भी कह सकते हैं कि जिस कालखंड के अख़बार और दस्तावेज़ वो अपने हाथों में लिए नज़र आते हैं उसको अपनी कल्पना की भाषा में ढालते हुए पाठकों के सौंदर्यबोध का हिस्सा नहीं बना पाए. अंत में बस ये कि भले ही ये बहुत कामयाब उपन्यास न हो, लेकिन दंगे विशेष तौर पर भागलपुर दंगे को लेकर रिसर्च करने वालों के लिए ये एक ज़रूरी संदर्भ ग्रंथ की तरह है.

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