यूपी: ग़ुलामी, उत्पीड़न, बेदख़ली से लड़ते हुए वनटांगियों का संघर्ष आज भी जारी है

गोरखपुर और महराजगंज के जंगल में स्थित 23 वन ग्रामों के वनटांगियों को वन अधिकार क़ानून लागू होने के डेढ़ दशक और कड़े संघर्ष के बाद ज़मीन पर अधिकार मिला. लेकिन आज भी यहां विकास की रफ़्तार धीमी ही है.

/
खुर्रमपुर वन ग्राम के लोग.

गोरखपुर और महराजगंज के जंगल में स्थित 23 वन ग्रामों के वनटांगियों को वन अधिकार क़ानून लागू होने के डेढ़ दशक और कड़े संघर्ष के बाद ज़मीन पर अधिकार मिला. लेकिन आज भी यहां विकास की रफ़्तार धीमी ही है.

Gorakhpur Mahrajganj vantangiya Report
कांधपुर दर्रा के वनटांगिया. (सभी फोटो: मनोज सिंह)

गोरखपुर: ‘जमीन के पट्टा, आवास मिल गईल त लोग कहत बा कि आजादी मिल गईल लेकिन जनता त बिखर गईल. प्रधानी का चुनाव वनटांगिया के लिए काल बन गईल बा. हर गांव में 12-13 गो पार्टी हो गईल बा. जमीन अबले तक वन विभाग के नाम बा त हमन के मिलल का? लड़ाई अबहिन अधूरा बा. हमन के लिए मुख्य चीज बा चकबंदी, खसरा-खतौनी. जब तक ई नाहीं मिली, जमीन अपने नाम ना हो जाय तब तक लड़ाई चलत रहे के चाही. ई मिल जाई त बाकी काम अपने आप धीरे-धीरे हो जाई. ’

बरहवा वन ग्राम के मुखिया भरत ने वनटांगियों की बैठक में जब अपनी यह बात रखी तो उनकी बात समूचे 23 वन ग्रामों के वनटांगियों की आज की स्थिति पर बयान था.

गोरखपुर और महराजगंज के जंगल में स्थित 23 वन ग्रामों के वनटांगियों ने वन अधिकार कानून लागू होने के बाद के डेढ़ दशक में अपनी एकता और संघर्ष के बूते जमीन पर अधिकार लिया, अपने गांवों को राजस्व गांव बनवाया और उन्हें पंचायत से जोड़ने में कामयाबी पाई.

राजस्व गांव बनने के बाद उनके गांव में स्कूल, आंगनबाड़ी, सड़क और बिजली की रोशनी दिख रही है और बाहरी दुनिया के लोग कह रहे हैं कि वनटांगियों की सभी समस्या हल हो है लेकिन करीब 100 वर्ष तक (27 वर्ष अंग्रेजी हुकूमत और आजाद भारत के 73 वर्ष) अलग-थलग जंगल में पड़ा यह समुदाय जब मुख्यधारा से जोड़ा जा रहा है तो वहां एक तरह की बेचैनी भी दिख रही है.

यह बेचैनी उन्हें आवास, राशन जैसी सुविधाएं पाने से अधिक अपनी पहचान, इतिहास को लेकर तो है ही वन अधिकार कानून की मंशा के अनुरूप वास्तविक अधिकार पाने की भी है.

गुलामी, उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष और उपलब्धि का सौ वर्ष का इतिहास

टांगिया पद्धति 1920-1923 के बीच उत्तर प्रदेश (यूपी) और उत्तरखंड में लाई गई. टांगिया, टौंगिया शब्द से निकला है. टोग्ग का मतलब है पहाड़ और या का मतलब है खेत.

टांगिया पद्धति को यूपी में लाने के पीछे की पृष्ठभूमि बहुत रोचक है. कंजीव लोचन ने अपनी पुस्तक ‘हरी छांह का आतंक’ अंग्रेजी में में इसके बारे में विस्तार से जानकारी दी है.

वे लिखते हैं कि ‘ वर्ष 1853 से देश में रेलवे पटरियां बिछाई जाने लगीं थीं. रेल पटरियों के लिए स्लीपर की मांग काफी बढ़ गई थी. 1878 तक रेल लाइन बिछाने के लिए 20 लाख से अधिक कुंदों का प्रयोग हो चुका था. इसके अलावा रेल इंजनों में जलावन के रूप में लकड़ी का प्रयोग भी होता था.’

वन विभाग के 1882-83 की वर्षिक रिपोर्ट में जिक्र है कि ‘विभाग ने दो रुपये चार आना से लेकर दो रुपये छह आना प्रति स्लीपर की दर से पटना-बहराइच रेल लाइन की लिए लकड़ी आपूर्ति का ठेका दिया था.’

1860 से 1890 के बीच यह नीति लाई गई कि जंगल साफ करने से अच्छा है कि इनका इस तरह से विकास किया जाए कि नियमित रूप से इमारती लकड़ी मिलती रहे.

साखू और सागौन के जंगल तैयार करने के लिए अंग्रेजों को बड़ी संख्या में मजदूरों की जरूरत थी. अंग्रेजों ने मुनादी कर मजदूरों को जंगल तैयार करने के लिए बुलाया. जमींदारी और जातीय उत्पीड़न से त्रस्त्र भूमिहीन अति पिछड़ी व दलित जाति के मजदूर जंगल में साखू-सागौन के पौधे रोपने के लिए चले आए.

उन्हें गांवों से जंगल की तरफ पलायन उत्पीड़न से मुक्ति का मार्ग लगा लेकिन यहां आने के बाद वे अंग्रेजों हुकूमत के बंधुआ मजदूर हो गए.

खुर्रमपुर गांव के पारसनाथ साहनी बताते हैं कि उनके पिता साखू के पौधे लगाने यहां आए थे. उनका जन्म जंगल में ही हुआ और पांच वर्ष की उम्र में ही उन्हें भी काम पर लगा दिया गया. वे 1983 तक साखू के पेड़ तैयार करने का काम करते रहे. उन्होंने इस दौरान खूब प्रताड़ना भी सही.

उत्तर गोरखपुर वन प्रमंडल और दक्षिणी गोरखपुर वन प्रमंडल कार्ययोजना 1984-1993 के अनुसार, वनटांगियों ने दोनों प्रमंडलों में 89.59 लाख साल, 7.04 लाख सागवान और 1842 शीशम के पेड़ तैयार किए थे.

वनटांगियों द्वारा तैयार साखू के जंगल.

64 वर्ष तक वनों में बंधुआ कृषि मजदूर की तरह बेगारी करते रहे वनटांगिया

वनटांगिया 1920 से 1984 तक जंगल में बंधुआ कृषि मजदूर की तरह काम करते रहे. उन्हें 30-30 हेक्टेयर का क्षेत्र दिया जाता था जिसे बीट कहा जाता. इस क्षेत्र को साफ करने के बाद प्रत्येक वनटांगिया को 0.2 हेक्टेयर (आधा एकड़) भूमि आवंटित कर दी जाती थी.

वनटांगिया को खाली जगह पर खरीफ में धान, मक्का, रबी में गेहूं, जौ, चना की खेती करने की अनुमति थी लेकिन बहुत घनी खेती करने की स्वतंत्रता नहीं थी. मानसून में टांगिया किसान साल के पेड़ पर चढ़कर ताजे फूल को तोड़कर उनसे बीज निकालकर क्यारियों में रोपते.

अंग्रेजों का हुक्म था कि पेड़ से गिरे हुए बीज न लिए जाएं क्योंकि वे बासी पड़ जाते हैं और उनमें विकसित होने की संभावना कम हो जाती है.

वनटांगिया को सात साल तक पौधों की देखभाल करनी होती थी. अपनी बस्ती में उन्हें पीने के पानी के लिए कुंआ खोदना पड़ता, झोपड़े बनाने होते. जंगल में रहते हुए टांगिया किसान अक्सर मलेरिया के शिकार हो जाते. पानी खारा होने के कारण दस्त, अतिसार होना आम बात थी. इन बीमारियों से बचने के लिए अंग्रेजों ने टांगिया किसानों को शराब बनाने और पीने के लिए प्रोत्साहित किया.

इस कार्य के लिए वनटांगिया को कोई मजदूरी नहीं मिलती थी. उन्हें खेती कर अनाज उगाकर पेट भरने भर की इजाजत थी. दो झोपड़ी बनाने के लिए जरूरी सामग्री जंगल से ले सकते थे. बाद के वर्षों में टांगिया बस्ती में बच्चों को पढ़ाने के लिए पाठशाला खोली गई जहां वन विभाग का कर्मचारी पढ़ाने आता.

1933 के प्रांतीय टांगिया सम्मेलन में टांगिया पद्धति से वनों के विकास के फायदे गिनाते हुए कहा गया कि ‘इससे दो तरफा लाभ है. इससे वनों का विकास बहुत तेजी से हुआ है और दूसरा लाभ यह है कि इसमें राजकीय व्यय शून्य के बराबर है. टांगिया मजदूरों को नगद एक पैसा भी नहीं दिया जाता है. उन्हें मजदूरी के बदले पौधों की क्यारियों के बीच खेती की अनुमति दी जाती है. इसके लिए एक रुपये प्रति एकड़ की दर से लगान भी वसूली जाती है.’

जंगल से बेदखल करने की कोशिश

देश के आजाद होने के बाद भी 1980 तक टांगिया कामगारों से हुकूमत उसी तरह काम लेती रही जैसे ब्रिटिश हुकूमत लेती थी. इस पद्धति से वन लगाने का काम 1984 तक और कुछ जगहों पर 1991 तक चला.

पर वनटांगियों को आजाद भारत में भी बेगारी करनी पड़ रही थी. काम से इनकार करने पर उन्हें पीटा जाता, फर्जी केस दर्ज किए जाते, जुर्माना लगाया जाता और गिरफ्तारी भी होती. वन ग्रामों में स्कूल, आंगनबाड़ी, राशन, अस्पताल, बिजली, पानी की कोई सुविधा नहीं थी. सरकार की कोई योजना उनकी बस्ती में लागू नहीं होती थी.

1982 से 1984 के दौरान वन विभाग वनटांगियों के स्थायित्वकरण करने के बहाने इनसे इकरारनामे पर हस्ताक्षर करने को बाध्य करने लगा. इस इकरारनामे में लिखा था कि वन उत्पादन का कार्य समाप्त हो जाने के बाद स्वतः ही उनका अधिकार उस वन भूमि से समाप्त हो जाएगा.

वनटांगियों ने इस इकरारनामे को मानने से इनकार कर दिया तो वन विभाग ने उन्हें अतिक्रमणकारी घोषित कर जंगल से बेदखल करने की कोशिश की. इसको लेकर टकराव की कई घटनाएं हुईं.

गोरखपुर के तिलकोनिया वन ग्राम में 6 जुलाई 1985 को वनटांगियों पर वन कर्मियों ने फायरिंग की जिसमें दो वनटांगिए पांचू और परदेशी मारे गए. कई लोग घायल हुए.

इकरारनामे को न मानने पर वन ग्राम कम्पार्ट 24 को उजाड़ दिया गया. गोरखपुर जिले के ही भारीवैसी वन ग्राम में 25 दिसंबर 1985 फसलों को पुलिस और प्रशासन ने ट्रैक्टर से जुतवा दिया और तीन दर्जन से अधिक वनटांगियों को गिरफ्तार कर लिया.

गिरफ्तार लोगों में भारीवैसी के हरिराम भी थे. वे बताते हैं, ‘हमारे बाबा जंगल में काम करने आए थे. फिर हमारे दादा ने काम किया और उनके साथ हमने भी जंगल लगाने का कार्य किया. जब बाबा जी (स्व. कृष्णमोहन) ने संगठन बनाया और वनटांगियों के अधिकार के लिए संघर्ष शुरू किया तब हम मुंबई में मजदूरी कर रहे थे. बाबा जी ने कहा कि चले आओ, लड़ाई शुरू होने वाली है.’

उन्होंने आगे बताया, ‘हम स्टील फैक्टी में मजदूरी का काम छोड़कर वापस आ गए. उस समय इकरारनामा का कागज भरवाया जा रहा था. हमने इनकार कर दिया. प्रशासन ने ट्रैक्टर से हमारी फसल जुतवा दी. जब हम रोकने पहुंचे तो वन विभाग के सिपाही ने बंदूक तान दी. हमने उसकी बंदूक पकड़ ली. गांव के 42 लोगों पर केस दर्ज कर गिरफ्तार कर लिया गया. जमानत पर छूट कर आए. फिर बाबा जी के सहयोग से हाईकोर्ट में 1997 रिट किया और वहां से स्टे मिला.’

स्व. कृष्णमोहन उर्फ़ बाबा जी.

वर्ष 1992 में वनटांगियों ने अपना संगठन ‘वनटांगिया विकास समिति बनाया और अपने हक के लिए लड़ाई शुरू की. विकल्प संस्था के स्व. कृष्णमोहन (जिन्हें वनटांगिए स्वामी जी और बाबा जी कहते थे ) उनके प्रेरणा स्रोत बने. वनटांगिया विकास समिति ने वन विभाग के उत्पीड़न का विरोध तो किया ही वन ग्रामों में स्कूल चलाने का भी काम किया. अवैध वन कटान, शराब निर्माण के खिलाफ जागरूकता अभियान चलाया.

हरिराम वनटांगियों के संघर्ष को याद करते हुए रोमांचित हो उठते हैं और संघर्ष की सफलता का श्रेय कृष्णमोहन को देते हैं. उन्होंने अपने घर के दरवाजे पर कृष्णमोहन की तस्वीर लगा रखी हैं.

वनटांगिये हर वर्ष 12 सितंबर को कृष्णमोहन उर्फ बाबा जी की पुण्यतिथि मनाने के लिए एक स्थान पर एकत्र होते हैं और एका बनाने और संघर्ष को धार देने के लिए उन्हें याद करते हैं.

वनटांगियों की यह कहानी कंजीव लोचन की किताब ‘हरी छांह का आतंक ’ और आशीष कुमार सिंह व धीरज सार्थक की दस्तावेजी फिल्म ‘बिटवीन द ट्रीज ’ में दर्ज है.

वन अधिकार कानून का लागू होना और कृषि व आवासीय भूमि का पट्टा मिलना

यूपीए वन सरकार ने वर्ष 2006 में अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परंपरागत वन निवासी अधिकारों की मान्यता का कानून पारित किया. इस कानून को संक्षेप में फॉरेस्ट राइट एक्ट ( एफआरए) या वन अधिकार कानून 2006 कहा जाता है. यह कानून पूरे देश में 31 दिसंबर 2007 को लागू हो गया.

इसके तहत 31 दिसंबर 2005 से पूर्व तीन पीढ़ियों तक प्राथमिक रूप से वन या वनभूमि में निवास करने वाले और जीविका की वास्तविक आवश्यकताओं के लिए वन पर निर्भर आदिवासियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों को कृषि व आवास हेतु वनभूमि के अधिभोग का अधिकार दिया गया.

वन ग्रामों में बुनियादी जरूरतों के लिए स्कूल, आंगनबाड़ी, बिजली, पानी, सड़क बनाया जाना था. यह कानून वन वासियों को लघु वनोपज पर भी अधिकार देता है.

इस कानून के लागू होने के बाद वनटांगिया विकास समिति ने इसके तहत कृषि, आवास भूमि का पट्टा व अन्य अधिकारों को दिलाने के लिए प्रयास शुरू किए. शुरू में वन विभाग ने साफ तौर पर इनकार कर दिया कि वनटांगिया इस कानून की अंतर्गत परंपरागत वन निवासी हैं.

इस कानून के लागू होने तक वनटांगियों को जंगल में रहते तीन पीढ़ी से अधिक का समय हो चुका था, फिर भी वन विभाग मानने को तैयार नहीं था.

वनटांगिया विकास समिति ने सबसे पहले गांव-गांव बैठक कर वनटांविनटांगियों को वन अधिकार कानून के बारे में जानकारी दी. इसके बाद हर गांव में वन ग्राम समितियों का गठन कराया गया और उसके माध्यम से सभी वनटांगियों के व्यक्तिगत व सामुदायिक दावे तैयार कर उसे प्रखंड स्तर और फिर जिला समिति पर आगे बढ़ाया.

इस प्रक्रिया में समिति को कड़ी मेहनत करनी पड़ी. तीन पीढ़ी से वन में रहने के अकाट्य सबूत तस्वीर, वन विभाग की कार्ययोजना के दस्तावेज, आदि प्रस्तुत किया. कानून के तहत तीन स्तरीय कमेटियों के गठन कराने, उनकी बैठक कराने और दावों की स्वीकृति कर आगे बढ़ाने के लिए वनटांगिया विकास समिति को नाको चने चबाना पड़ा. कई बार आंदोलन का भी सहारा लेना पड़ा.

तमाम जद्दोजहद के बाद आखिरकार दोनों जिलों के प्रशासन ने माना कि वनटांगिया तीन पीढ़ी से जंगल में रह रहे हैं और वन अधिकार कानून के तहत अन्य परंपरागत वन वासी हैं जिनको इस कानून के तहत सभी अधिकार मिलने चाहिए.

यूपी के विधानसभा चुनाव के पहले वर्ष 2011 में गोरखपुर और महराजगंज जिले के 23 वन ग्रामों में रहने वाले 4300 वनटांगियों को उनकी रिहाइश और खेती की जमीन पर मालिकाना हक दे दिया गया. उस वक्त प्रदेश में बसपा सरकार थी.

आजादी के 68 वर्ष बाद वन ग्रामों में हुआ पंचायत चुनाव

कृषि व आवासीय पट्टा पाने के बाद वनटांगियों ने अपने वन ग्रामों को राजस्व गांव बनाने, वन गांवों को पंचायत प्रक्रिया से जोड़ने, वन ग्रामों में स्कूल, आंगनबाड़ी, अस्पताल बनवाने और लघु वन उपज का अधिकार पाने का संघर्ष छेड़ा.

चार हजार वनटांगियों दम 19-21 सितंबर 2016 को गोरखपुर कमिश्नर कार्यालय पर अनिश्चितकालीन डेरा डालो-घेरा डालो आंदोलन शुरू कर दिया. इस आंदोलन को कई राजनीतिक दलों का भी समर्थन मिला.

आंदोलन से दबाव में आए गोरखपुर के कमिश्नर ने आंदोलन स्थल पर पहुंचकर सभी वनटांगिया गांवों को पंचायत चुनाव से जोड़ने का ऐलान किया और कहा कि शेष मांग भी जल्द पूरा कराने का प्रयास किया जाएगा. वर्ष 2016 के पंचायत चुनाव में सभी 23 वन ग्रामों को पास के गांवों से जोड़कर पंचायत चुनाव कराए गए.

आजादी के 68 वर्ष बाद पहली बार गोरखपुर-महराजगंज के 23 वन ग्रामों में रहने वाले 23 हजार वनटांगियों ने पंचायत चुनाव में भागीदारी की. बरहवा चंदन माफी वन ग्राम में वनटांगिया समुदाय के रामजतन प्रधान और अनीता क्षेत्र पंचायत सदस्य चुनी गईं.

नवंबर 2017 में राजस्व गांव बन गए वन ग्राम

पंचायत चुनाव में शामिल होने के बाद भी वनटांगिया गांवों की सूरत में ज्यादा कोई बदलाव नहीं आया क्योंकि इन गांवों को राजस्व गांव नहीं बनाया गया. वन विभाग वन ग्रामों में पहले की तरह अपने प्रतिबंध लगाए रखा.

वह किसी प्रकार के स्थाई या सीमेंट-ईंट से निर्माण को रोकता रहा. यहां तक कि हैंडपंप का चबूतरा तक नहीं बनने दिया. तमाम प्रयास के बावजूद चुने हुए वनटांगिया पंचायत प्रतिनिधि भी अपने गांव में स्कूल और अपने गांव तक जाने के लिए सड़क नहीं बनवा सके.

वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में भी वनटांगियों ने अपने वन ग्रामों को राजस्व गांव बनाने की आवाज उठाई. प्रदेश में सरकार बदली और गोरखपुर के सांसद योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बन गए.

सरकार बनने के कुछ महीनों बाद नवंबर 2017 में गोरखपुर और महराजगंज के सभी 23 वन ग्राम, राजस्व गांव घोषित कर दिए गए और इन गांवों में स्कूल, आंगनबाड़ी, बिजली, सड़क, पेयजल योजना, पेंशन, आवास आदि योजनाओं की स्वीकृति दी गई.

यूपी में अब तक सात जिलों सात जिलों के 38 टांगिया वन ग्रामों को राजस्व गांव घोषित किया गया है. इनमें महराजगंज में 18, गोंडा, गोरखपुर और बलरामपुर में पांच-पांच, सहारनपुर में तीन तथा लखीमपुर खीरी व बहराइच जिले में एक-एक टांगियाध्वन ग्राम को राजस्व गांव बनाया गया है.

वन ग्रामों की सूरत बदली लेकिन विकास की रफ्तार धीमी

राजस्व गांव बनने के बाद वनटांगिया गांवों में स्कूल, आंगनबाड़ी बन गए हैं या बन रहे हैं, कई जगह सड़कें भी बनी है, बिजली आई है लेकिन विकास की रफ्तार धीमी है.

महराजगंज जिले में बेलासपुर और भारीवैसी वन ग्राम को छोड़ शेष 16 गांवों में आने-जाने के लिए सड़क बन नहीं पाया है. सूरपार, कांधपुर दर्रा और बेलौहा दर्रा में अभी स्कूल और आंगनबाड़ी नहीं बना है. कांधपुर दर्रा में पेड़ के नीचे स्कूल चलता है. यहां एक शिक्षक पढ़ाने आते हैं. जहां स्कूल बन गए हैं वहां शिक्षकों की नियुक्ति नहीं हुई है या शिक्षक कम हैं.

कांधपुर दर्रा में खुले में चल रहा विद्यालय.

खुर्रमपुर के युवा धर्म कुमार निषाद बताते हैं कि स्कूल और आंगनबाड़ी केंद्र बन गया है लेकिन शिक्षक व आंगनबाड़ी कार्यकर्ता का चयन नहीं हुआ है.

आमबाग के विश्वम्भर मौर्य ने बताया कि गांव में स्कूल बन गया है लेकिन आने-जाने का रास्ता अभी भी खराब है. स्कूल में 160 बच्चे पढ़ रहे हैं लेकिन दो ही अध्यापक हैं. वनटांगियों का आयुष्मान भारत कार्ड नहीं बन रहा है.

तिलकोनिया वन अधिकार समिति के सचिव रमाशंकर ने बताया कि राशन कार्ड मिल गया है, गांव में बिजली आ गई है. सड़क अभी नहीं बनी है.

राजही कैंप में आंगनबाड़ी, स्कूल के साथ-साथ सामुदायिक शौचालय भी बन गया है.

पिछले पांच वर्षों में आवास, बिजली, स्कूल, आंगनबाड़ी के काम तो काफी तेजी से हुए लेकिन वन ग्रामों को मुख्य मार्ग से जोड़ने का काम अब तक पूरा नहीं हो पाया है जिसके कारण आवागमन में, विशेषकर बरसात के दिनों में, लोगों को भारी दिक्कत का सामना करना पड़ रहा है.

कांधपुर दर्रा के मुरारी ने बताया, ‘मेरे 40 वर्षीय भाई कोईल बीमार पड़ गए. फोन करने के बाद भी एम्बुलेंस नहीं आया. एम्बुलेंस चालक ने कहा कि कि गांव तक आने का रास्ता ही नहीं हैं. मजबूर होकर चारपाई पर उन्हें लेकर टेढीघाट तक ले जाना पड़ा. वहां से फिर प्राइवेट गाड़ी को 2,100 रुपये देकर कैंपियरगंज सीएचसी पर पहुंचाया गया.’

चकबंदी न होने से बढ़ी भूमि संबंधी विसंगतियां

राजस्व गांव घोषित होने के पांच वर्ष बाद अभी सिर्फ एक गांव गोरखपुर के चिलबिलवा में चकबंदी प्रक्रिया पूरी हुई है. शेष 22 गांवों में चकबंदी पूरी नहीं होने से खेती-किसानी योजनाओं का वनटांगियों को लाभ तो नहीं ही मिल रहा है, पट्टे पर दर्ज रकबे और वास्तविक उपभोग की भूमि की विसंगतियां भी दूर नहीं हो पा रही हैं.

वर्ष 2011 में खेती और आवास का पट्टा मिलते समय राजस्वकर्मियों की असावधानी से सैकड़ों वनटांगियों के जमीन का रकबा ठीक-ठीक दर्ज नहीं हुआ है. पट्टे में जमीन का रकबा और वास्तविक रूप से काबिज जमीन के रकबे में अंतर है.

रजही कैंप के मुखिया रामनयन ने बताया, ‘हम लोगों का जमीन कम-बेसी हुआ है. किसी के पास 50 डिसमिल जमीन है लेकिन पट्टे पर 25 डिसमिल भी चढ़ा है. कई लोगों के पास कम जमीन है लेकिन पट्टे पर अधिक रकबा दर्ज है. गांव में सड़क भी हमारी जमीन से निकाली गई है. इससे वनटांगिया काश्तकारों को नुकसान हुआ है. कम-बेसी जमीन होने से गांव के लोगों के बीच लंबे अरसे से बना भाईचारा प्रभावित हुआ है.’

उन्होंने आगे कहा, ‘इसलिए हम चाहते हैं कि पट्टे में रकबे का सही विवरण दर्ज हो और उसी के अनुरूप जमीन खसरा-खतौनी में दर्ज हो. हम आगे चलकर कानूनी विवाद में नहीं पड़ना चाहते हैं. हम सभी छोटे काश्तकार है और ईमानदारी के साथ काम करना चाहते हैं.’

रजही खाले के 47 पट्टाधारकों में से 42 की जमीन कम-बेसी हुई है. तिलकोनिया के मिठाई के कब्जे में 68 डिसमिल भूमि है लेकिन पट्टे पर 28 डिसमिल ही दर्ज है. रजही खाले के नान्हू पासवान को 20 डिसमिल भूमि कम मिली है. राजकुमार के पट्टे पर 54 डिसमिल दर्ज है लेकिन उनके पास 34 डिसमिल ही भूमि है.

कांधपुर दर्रा जाने वाला रास्ता.

परिवार बढ़ रहे लेकिन विकास योजनाओं का मानक अभी भी पट्टधारकों की संख्या

वन ग्रामों में वनटांगिया परिवार बढ़ते जा रहे हैं लेकिन सरकार 2011 में दिए गए पट्टे को ही आधार बनाकर विकास योजनाए लागू कर रही है. इससे कई तरह की जटिलताएं सामने आ रही हैं.

प्रत्येक पट्टाधारक वनटांगिया परिवार तीन से अधिक परिवार में बढ़ गया है. बढ़े हुए परिवार अपने लिए आवास, शौचालय, रसोई गैस, बिजली कनेक्शन व अन्य योजनाओं में भागीदारी की मांग कर रहे हैं.

28 दिसंबर 2021 को प्रदेश के सूचना विभाग द्वारा जारी विज्ञप्ति में बताया गया कि मुख्यमंत्री आवास योजना-ग्रामीण के तहत तीन वर्षों में वनटांगिया समुदाय के 4,822 लोगों को आवास आवंटित किया गया है. इन लोगों को आवास निर्माण के लिए 1.20 लाख रुपये दिए गए.

खुर्रमपुर वन ग्राम की झिनकी सवाल उठाती हैं कि सरकारी योजनाओं का लाभ केवल पट्टाधारक के नाम मिला है जबकि अब उनके परिवार बढ़ गए हैं. उन्होंने कहा, ‘हमारे पति तीन भाई है. बेटा भी बड़ा हो गया है और पत्नी के साथ रहता है. अब एक ही आवास से कैसे काम चलेगा. सरकार को और घर देना चाहिए.’

वनटांगिया विकास समिति के अध्यक्ष जयराम ने बताया कि उन्होंने पट्टाधारकों के अलावा 2800 वनटांगियों को आवास दिए जाने के लिए शासन को पत्र लिखा है.

नदी कटान से गायब होता कांधपुर दर्रा

कांधपुर दर्रा वन ग्राम तो अलग तरह की समस्या से दो चार है. रोहिन नदी के तट पर स्थित यह गांव पिछले तीन वर्षों से नदी कटान का दंश झेल रहा है. तीन वर्षों में दो दर्जन से अधिक वनटांगियों के घर और 25 एकड़ से अधिक भूमि नदी में समा चुके हैं.

इस गांव के नंदलाल ने बताया, ‘नदी धीरे-धीरे गांव की तरफ बढ़ रही है. तीन वर्षों से हम प्रशासन से नदी की कटान को रोकने का उपाय करने की मांग कर रहे हैं लेकिन कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है. यदि यही स्थिति रही तो सरकार द्वारा दिया गया आवास भी नदी कटान में खत्म हो जाएगा और हम लोग बेघर हो जाएंगे.’

पिछले तीन वर्षों में प्रेम, नेबूलाल, ढुनमुन, सोमई, अशर्फी, श्रीनिवास, राजेन्द्र, शोभी, रामकेवल, मुरारी, चंदन, भिखारी, नन्दू, घुरहू, संतबली, अर्जुन, रामहरख, हीरा का घर, खेत और फलदार वृक्ष नदी में कटकर खत्म हो गए. वर्ष 2021 में नदी कटान में मुरारी का एक एकड़ खेत जिसमें केला और परवर की फसल लगी थी, नदी कटान में समाप्त हो गई.

कांधपुर दर्रा के हीरा कहते हैं, ‘घर, दुआर, नाद सब नदी में चल गईल. बेलौहा दर्रा गांव में भी इहे हाल बा. कटान नाहीं रुकल त सब कुछ खत्म हो जाई.’

कांधपुर दर्रा के लोग चाहते हैं कि सरकार-प्रशासन ठोकर बनाकर नदी कटान रोकने का कार्य करे लेकिन अभी तक उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई है. यही नहीं बाढ़ और नदी कटान से हुई क्षति को कोई मुआवजा भी नहीं मिला है.

शारदा देवी बताती हैं, ‘आज जहां नदी की मुख्य धारा है वहां हमारा खेत और घर था. अब नेबुआ का एक पेड़ बचा है. वह भी नदी में समा जाएगा.’

इसी गांव की प्रेमशीला का घर और गुमटी बाढ़ के पानी में ढह गया. वह सड़क किनारे पर पन्नी डालकर रह रही हैं. उनके पति मजदूरी करते हैं. घर में छह लोग हैं. उदास स्वर में कहती हैं, ‘न पंचायत की ओर से उनको मदद मिली न सरकार से.’

बाढ़ से विस्थापित हुई काँधपुर दर्रा की प्रेमशीला

400 लोगों को अभी भी पट्टा नहीं मिला है

वन ग्रामों में अभी भी 400 से अधिक परिवार ऐसे हैं जिन्हें वन अधिकार कानून के तहत अपनी जमीन का पट्टा नहीं मिला है.

वनटांगिया विकास समिति के अध्यक्ष जयराम प्रसाद ने बताया, ‘दोनों जिलों में कुल 4300 पट्टा मिला था. बहुत से लोग अपना दावा नहीं कर पाए थे. ऐसे लोगों की संख्या 400 के करीब है. भारीभैसी में 202, खुर्रमपुर में 18, दौलतपुर में 48, सरूपार में आठ, बलुअहिया में 17, बेलासपुर में 43, अचलगढ़ में 6, चेतरा में 4 और हथियहवा में 13 लोगों का दावा उपखंड स्तर पर विचाराधीन है.’

वह चाहते हैं कि इन दावों का सत्यापन कार्य तेजी से कराकर इन्हें पट्टा दे दिया जाए.

गोरखपुर जिले के पांच वन ग्रामों में 57 लोगों का दावा खारिज हो गया है. इसमें कई लोग सही दावेदार हैं. इन गांवों में 16 लोगों को पट्टा नहीं मिल पाया है. दावा उपखंड स्तर पर लंबित हैं इनमें पांच चिलबिलवा, सात तिलकोनिया और दो आम बाग के हैं.

पट्टा मिला लेकिन जमीन अभी भी है वन विभाग के नाम

भारीवैसी गांव गोरखपुर-सोनौली राजमार्ग के किनारे है. इस सड़क को अब सिक्स लेन किया जाना हैं. सड़क चौड़ीकरण में दजनों वनटांगियों की भूमि आ रही है.

चकबंदी व बंदोबस्त न होने से वनटांगियों में वितरित की गई भूमि अब भी वन विभाग के नाम ही दर्ज है. यदि सरकार इस भूमि का अधिग्रहीत करती है तो वनटांगियों को मुआवजा नहीं मिल पाएगा.

शांति, मारकंडेय सुशीला, मनोज, हरिराम, पंचनाम, गुंजना, गिरिजाशंकर, पूर्णमासी, दर्शन, जयराम, पंचम, भगटू, शंकर की 0.080 हेक्टेयर से लेकर एक हेक्टेयर से अधिक भूमि सड़क चौड़ीकरण के दायरे में आ रही है. इन सभी लोगों ने गोरखपुर के भूमि अध्यप्ति अधिकारी को इस संबंध में ज्ञापन भी दिया है.

इस गांव के वनटांगिया चाहते हैं कि सड़क चौड़ीकरण के पहले उनकी भूमि उनके नाम से दर्ज कर दी जाए.

इतिहास और पहचान की चिंता

विकास की मुख्यधारा से जुड़ने से एक तरफ वनटांगियों में खुशी है लेकिन दूसरी तरफ अपनी पहचान और एकता को लेकर चिंता भी है.

यह डर अकारण नहीं है. वन ग्रामों की आम भारतीय गांवों से अलग स्थिति है. यहां पर जातीय भेदभाव का वह स्वरूप नहीं है जो गांवों में पाया जाता है. वनटांगिया किसानों की जातिगत स्थिति पर नजर डालें, तो मुख्य रूप से इनकी आबादी में 60 फीसदी निषाद, 15 फीसदी अनुसूचित जाति, 10 फीसदी मुसलमान और 15 प्रतिशत अन्य पिछड़ी जातियां है. वन ग्रामों में सवर्ण जाति के लोग नहीं हैं.

जंगल में बाहरी दुनिया से कटे रहते हुए इन वन ग्रामों में आदिवासियों जैसी सामुदायिक एकता विकसित हुई और उन्होंने जाति भेद से उपर उठते हुए अपनी पहचान वनटांगिया समुदाय के रूप में विकसित की. अपने अधिकारों के लिए लड़ते हुए उन्होंने जबर्दस्त एका बनाया.

उनके गांवों में सभी फैसले सामूहिक बैठकों में होते रहे हैं. वह अपने बीच से मुखिया का चुनाव करते थे.

लेकिन पंचायत चुनाव में उनके गांवों को दूसरे गांवों से जोड़े जाने के बाद सब कुछ बदलने लगा है. पंचायत चुनाव के वक्त कई बजुर्ग वनटांगिया ने चेताया था कि यदि वन ग्राम स्वतंत्र ग्राम पंचायत के रूप में नहीं बनाए गए तो आने वाले समय में जटिलता बढ़ेगी. इन लोगों में भारीवैसी के भंडारी, कम्पार्ट नम्बर 28 के नूर मोहम्मद जैसे लोग प्रमुख थे.

उनका कहना था कि उनके गांवों को जिन दूसरे ग्राम पंचायतों से जोड़ा जा रहा है, वे ग्राम पंचायतें जंगल के बाहर हैं. उन गांवों का प्राकृतिक संपदा के साथ वह स्वभाविक व सहज रिश्ता नहीं हैं जैसा कि उनका है. ऐसे में यदि उन ग्राम पंचायतों के साथ उनके वन ग्रामों को जोड़ा गया तो प्राकृतिक संपदा व वन्य जीवों के संरक्षण में जटिलता आएगी.

दूसरी बड़ी समस्या यह है कि उनके वन ग्राम नौ दशक से सरकारी संरक्षण और सहायता के बिना आगे बढ़े हैं जबकि दूसरे ग्राम पंचायत भरपूर सरकारी सहायता से अधिक विकसित हो गए हैं. वन ग्रामों के विकास की दूसरी समस्याएं हैं जबकि उनसे जोड़े जाने वाले ग्राम पंचायतों की समस्या दूसरी है. ऐसे में वन ग्रामों में स्वतंत्र ग्राम पचायत का गठन ही उपयुक्त होगा.

लेकिन ऐसा नहीं हुआ. पंचायत चुनाव में भागीदारी के उत्साह में वनटांगिया बंट गए. हालत यह है कि पिछले दो चुनावों से उनके बहुत कम प्रतिनिधि चुनाव जीते हैं. वन ग्रामों में दलबंदी भी बढ़ी है जिसका प्रभाव अपनी समस्याओं को लेकर आवाज उठाने में आई कमी में दिखता है.

खुर्रमपुर वन ग्राम के लोग.

इन मुद्दों को लेकर वनटांगिया विकास समिति एक बार फिर सक्रिय हुई है. विधानसभा चुनाव के पहले वन ग्रामों में लगातार बैठकें हुईं. प्रशासन से बातचीत कर चिलबिलवा में चकबंदी प्रक्रिया पूरी करवाने में सफलता प्राप्त की है. तिलकोनिया में भूमि विसंगति को दूर करने के बाद ही चकबंदी कराने पर सहमति बनी है.

चकबंदी, बंदोबस्त, वन ग्रामों का सीमांकन, लघु वनोपज पर अधिकार, आने-जाने के रास्तों के निर्माण, भूमि विसंगतियों को दूर करने को लेकर वनटांगिया एक बार फिर एकजुट हो रहे हैं. वे इस बात पर भी जोर बना रहे हैं कि उनके गांवों को स्वतंत्र रूप से पंचायत बनाया जाए. साथ ही वे अपने संघर्ष, इतिहास, संस्कृति, गीत ,अपने कौशल के संरक्षण, विकास व दस्तावेजीकरण की बात करने लगे हैं.

दौलतपुर वन ग्राम में सामूहिक सहयोग से वनटांगियों ने अपना कार्यालय बनाया है और यहीं पर वे एक म्यूजियम बनाने की कोशिश कर रहे हैं जहां उनके संघर्ष का इतिहास एक झलक में दिख सके.

इन प्रयासों से भारीवैसी के भंडारी एक बार फिर से जोश में हैं. वे कहते हैं, ‘हमारे लिए सबसे बड़ा भगवान हमारी एकता है और हमारे लिए सबसे बड़ी लड़ाई अपनी जमीन पर पूरी तरह हक पाने की है.’

(लेखक गोरखपुर न्यूज़लाइन वेबसाइट के संपादक हैं.)

नोट: यह रिपोर्ट स्वतंत्र पत्रकारों के लिए नेशनल फाउंडेशन ऑफ इंडिया की मीडिया फेलोशिप के तहत की गई है.