कैंपस की कहानियां: इस विशेष सीरीज़ में दिल्ली में अनुवादक का काम करने वाली रश्मि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से जुड़े अपने अनुभव साझा कर रही हैं.
जेएनयू के एंट्रेंस का रिज़ल्ट आया था. मैं पास हो गई थी. जेएनयू से लेटर आया था कि छह अगस्त एडमिशन की आख़िरी तारीख़ है. मैं बहुत ख़ुश थी. ये घर की बेकार की बंदिशों से आज़ादी की ख़ुशी थी.
मां ने कहा, ‘तुम कहीं नहीं जाओगी, जो पढ़ना है यहीं रहकर पढ़ो.’ मां के एक वाक्य ने मेरी सारी ख़ुशियों पर पानी फेर दिया. बचपन से यही सब सुनती आई थी- तुम लड़की हो तो ये मत करो, वो मत करो, इतना ज़ोर से मत हंसो, वगैरह-वगैरह. मां के मना करने से मैं डिप्रेशन में आ गई. कुछ ही दिनों में ये डिप्रेशन हद से ज़्यादा बढ़ गया.
हर रोज़ की तरह उस दिन भी गर्मी की एक सामान्य सी सुबह थी. लेकिन मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण थी. आज मुझे एक फ़ैसला लेना था. मरना था मुझे. कैसे मरना है इस बारे में ज़्यादा कुछ सोचा नहीं था.
घर में जितनी भी दवाइयां थीं, जैसे- बुख़ार, सिर दर्द, पेट दर्द आदि की अक्सर घरों में होती हैं, किचन में बैठकर मैंने वो सारी दवाइयां खा लीं. करीब 10-12 टैबलेट और कैप्सूल थे और मरने का इंतज़ार करने लगी.
तीन-चार मिनट बाद मुझे नींद आने लगी. मां किचन में आई. मुझे ज़मीन पर बैठा देखकर मुझसे पूछा, ‘क्या हुआ, ऐसे क्यों बैठी हो?’ बगल में दवाइयों के कवर देखकर मां घबरा गई. जैसे-तैसे मां ने मुझे हॉस्पिटल पहुंचाया.
डॉक्टर ने नाक में पाइप डालकर पेट से सारी दवाइयां निकालीं. एक रात हॉस्पिटल में रखा, दूसरे दिन डिस्चार्ज कर दिया. इसके बाद मां ने जेएनयू जाने की परमिशन दे दी और मैंने आख़िरी दिन जेएनयू के जर्मन सेंटर में रजिस्ट्रेशन कराया.
मैं बहुत ख़ुश थी कि अब कोई बंदिश, रोक-टोक या मार-पीट नहीं होगी. यहां सिर्फ़ और सिर्फ़ पढ़ाई होगी.
बस दो ही दिन हुए थे क्लास अटेंड किए. मेरी क्लासमेट ने मुझसे पूछा, ‘क्या तुम एससी हो?’ मुझे कुछ अजीब लगा. इससे पहले मुझसे कभी किसी ने ऐसा सवाल नहीं किया था.
मैंने जवाब में ‘हां’ कहा. उसने मुझसे कहा, ‘यहां किसी को मत बताना. यहां सब एससी होने पर नीची नज़र से देखते हैं.’ मेरी कुछ समझ में नहीं आया. मैंने कहा, ‘इसमें छुपाने वाली बात क्या है? नोटिस बोर्ड पर तो नाम के साथ कैटेगरी भी लिखी होती है.’
उस दिन पहली बार मुझे एहसास हुआ कि मैं सिर्फ़ लड़की ही नहीं, बल्कि एक ‘दलित लड़की’ भी हूं. ये तो बस शुरुआत थी. अभी तो हमें और ज़लील होना था.
फिर एग्जाम्स हुए. रिज़ल्ट आया, मेरे ग्रेड कम थे. मैं परेशान थी, सोचा अगली बार और ज़्यादा मेहनत करूंगी. लेकिन फिर भी ग्रेड जैसे थे वैसे ही रहे.
एक प्रोफ़ेसर ने तो मेरे ग्रेड ये कहकर कम कर दिए कि मेरे पीछे बैठे लड़के ने मेरे पेपर में झांककर कॉपी करने की कोशिश की और मैंने उसे कॉपी करने से रोका नहीं.
हमारी क्लास में एक रशियन लड़की थी जो हर एग्ज़ाम में कॉपी करते पकड़ी जाती और उसे हर बार एक वॉर्निंग देकर छोड़ दिया जाता था कि अगली बार मत करना. मैं अपने कम ग्रेड को लेकर परेशान थी.
मैंने एक प्रोफ़ेसर से बात की. उनसे कहा कि मुझे पढ़ाई में मदद की ज़रूरत है, मेरे ग्रेड कम हैं. उन्होंने कहा, ‘दूसरे प्रोफ़ेसर से बात करो, मेरे पास एक्स्ट्रा समय नहीं है.’
मैंने दूसरे प्रोफ़ेसर से कहा, लेकिन उन्हें भी मुझे पढ़ाने में कोई दिलचस्पी नहीं थी. उन्होंने कहा, ‘पैसे की कोई दिक्कत हो तो बताना.’ फिर मैंने तीसरी प्रोफ़ेसर से बात की. उनका भी कोई ख़ास इंट्रेस्ट नहीं था पढ़ाने में. वो मुझसे सिर्फ़ ये जानना चाहती थीं कि क्लास में किसने किसे बॉयफ्रेंड या गर्लफ्रेंड बनाया है.
फिर मैंने क्लासमेट्स के साथ ग्रुप स्टडीज़ कीं. लेकिन मेरा सीजीपीए पहले सेमेस्टर में कुल 9 में से 2.66 और दूसरे सेमेस्टर में 3.33 से आगे नहीं बढ़ पाया. मैं बहुत ज़्यादा परेशान नहीं थी क्योंकि किसी भी सब्जेक्ट में मैं फ़ेल नहीं थी.
एक साल ख़त्म हुआ. रजिस्ट्रेशन का समय आया. रजिस्ट्रेशन करने गई तो उन्होंने कहा कि तुम्हारा रजिस्ट्रेशन नहीं हो सकता क्योंकि दोनों सेमेस्टरों का तुम्हारा औसत सीजीपीए 3 से कम है.
दुखी होकर ऑफ़िस से बाहर निकल रही थी तो एक सीनियर ने परेशानी की वजह पूछी. मैंने कहा ग्रेड कम है, रजिस्ट्रेशन नहीं होगा. उन्होंने बताया कि उनके ग्रेड मुझसे कम थे. मैंने सर से बात की. सर ने मुझे बताया कि ये यूनिवर्सिटी का नया रूल है. अब 3 से कम सीजीपीए होने पर रजिस्ट्रेशन नहीं होगा.
एक बार फिर निराश हुई. अब मुझे उसी पैट्रियार्कल परिवार में वापस जाना था. मैं जेएनयू से तो चली गई लेकिन जेएनयू मेरे अंदर से नहीं जा पा रहा था. इसके बाद मैंने बीएससी की और एक बार फिर मां से कहा कि मुझे जेएनयू जाना है.
इससे पहले कि मैं कोई ड्रामा करती मां ने मेरी ख़ूब पिटाई की. मैं नहीं मानी. मां के हाथ में जो भी चीज़ आती वो मुझे फेंककर मारती रही. मैं फिर भी नहीं मानी. यहां तक कि मां ने बाल पकड़ कर दीवार पर मेरा सिर पटक दिया. मैं फिर भी नहीं मानी. मुझे एक बार फिर जेएनयू जाना था.
एंट्रेंस एग्ज़ाम दिया. फिर पास हो गई और मेरा एडमिशन हो गया. इस बार सेंटर अलग था, प्रोफेसर अलग थे. हमारी प्रोफेसर एक विदेशी महिला थीं.
उनको मेरे ‘दलित’ होने से कोई मतलब नहीं था. कास्ट डिस्क्रिमिनेशन, रिज़र्वेशन जैसी चीज़ों से उनको कोई लेना-देना नहीं था. और इस बार चार सेमेस्टरों में मेरे ग्रेड कुछ इस प्रकार थे: 7, 7.50, 8.50, 7.75.
लोगों को अपने भारतीय होने पर गर्व होता होगा लेकिन मुझे अपने जातिवादी भारतीय समाज पर कोई गर्व नहीं होता.
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