एलआईसी को बेचने की जल्दी में क्यों है केंद्र सरकार

वैश्विक बाजार स्थिति के चलते जहां कई अन्य सार्वजनिक उपक्रमों की बिक्री को कुछ समय के लिए रोक दिया गया है, वहीं भारतीय जीवन बीमा निगम के साथ ऐसा नहीं हुआ है. क्या आम भारतीयों के लिए प्रमुख बचत का ज़रिया रहे एलआईसी को इस तरह आनन-फानन बेचा जाना चाहिए?

(फोटो: रॉयटर्स)

वैश्विक बाजार स्थिति के चलते जहां कई अन्य सार्वजनिक उपक्रमों की बिक्री को कुछ समय के लिए रोक दिया गया है, वहीं भारतीय जीवन बीमा निगम के साथ ऐसा नहीं हुआ है. क्या आम भारतीयों के लिए प्रमुख बचत का ज़रिया रहे एलआईसी को इस तरह आनन-फानन बेचा जाना चाहिए?

(फोटो: रॉयटर्स)

हाल ही में भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) को दुनिया का 10वां सबसे बड़ा बीमा ब्रांड घोषित किया गया है. एशिया की बात करें, तो यह आसानी से शीर्ष 2-3 मूल्यवान बीमा कंपनियों में शामिल होगा. हालांकि, इसका महत्व उस मनमाने तरीके में नजर नहीं आता, जिससे सरकार एलआईसी में अपनी हिस्सेदारी बेचने की कोशिश कर रही है, वो भी ऐसे समय में जब वैश्विक वित्तीय बाजार यूक्रेन युद्ध के कारण उथल-पुथल में हैं और अमेरिकी फेडरल रिजर्व अतिरिक्त लिक्विडिटी और वैश्विक मुद्रास्फीति से निपटने के लिए ब्याज दरों में तेजी से वृद्धि कर रहा है.

सरकार ने अगले सप्ताह फरवरी के अनुमान के आधे से भी कम मूल्यांकन पर एलआईसी की 3.5% हिस्सेदारी की बिक्री की घोषणा की है. इससे सिर्फ 21,000 करोड़ रुपये मिलेंगे. कंपनी के अनुमानित मूल्य में हुई बड़ी कमी केवल दो महीनों में बदली वैश्विक बाजार स्थितियों का प्रत्यक्ष नतीजा है.

सरकार के लिए अपनी सबसे मूल्यवान कंपनी के शेयर बेचने के लिए इससे अधिक गलत समय नहीं हो सकता है. मौजूदा वैश्विक बाजार स्थितियों के चलते इस बिक्री को लेकर बहुत ही कमजोर प्रतिक्रिया मिली हैं.

सरकार ने शुरू में आईपीओ के माध्यम से 10% हिस्सेदारी बेचने की बात की थी. उस समय कंपनी का बाजार मूल्य 12-14 लाख करोड़ रुपये आंका गया था. यह देखते हुए कि वैश्विक स्थिति बिगड़ रही थी, सरकार ने हिस्सेदारी के बिक्री को 10% से 5% तक  कम कर दिया, जिससे वैश्विक बाजारों द्वारा आसानी से इसे खरीदा किया जा सकता है. अगर शुरुआत में लगाए गए कंपनी के 13 लाख करोड़ रुपये के अनुमान के हिसाब से गणना करें, तो इससे लगभग 65,000 करोड़ रुपये प्राप्त होंगे.

हालांकि, विदेशों में एलआईसी के बड़े पेंशन फंड और सॉवरेन वेल्थ फंड के व्यापक प्रचार के बाद सरकार को एहसास हुआ कि 5% हिस्सेदारी की बिक्री के लिए भी पर्याप्त खरीदार नहीं हैं. वित्तीय बाजार स्पष्ट रूप से संकेत दे रहे थे कि समय ठीक नहीं है. फिर हिस्सेदारी बिक्री को 3.5% तक लाने का निर्णय लिया गया. तब सरकार एक नियामक समस्या में पड़ गई क्योंकि सेबी 5% से कम की बिक्री की अनुमति नहीं देता है. इसके लिए विशेष छूट की आवश्यकता थी.

इस समय तक कंपनी का बाजार मूल्य भी फरवरी में अनुमानित 12-14 लाख करोड़ रुपये से आधा होकर 6 लाख करोड़ रुपये हो गया था. मोदी सरकार को यह समझाने में मुश्किल होगी कि कंपनी का अनुमानित बाजार मूल्य कैसे इतने नाटकीय ढंग से नीचे आया जबकि शेयर बाजार में इतनी अधिक गिरावट नहीं आई है.

काफी कम कीमत वाली निजी बीमा कंपनियों के शेयरों में भी पिछले ढाई महीने में कोई तेज गिरावट नहीं आई है. ऐसे में सरकार के अपने ही आकलन के अनुसार, दो महीने में क्या बदल गया कि उसे एलआईसी के बाजार मूल्य को आधा करने के लिए मजबूर होना पड़ा?

वैश्विक बाजार के हालात में काफी बदलाव आया है, जहां जनवरी के बाद से विदेशी निवेशकों ने भारतीय शेयर बाजारों से 16 बिलियन डॉलर से अधिक फंड निकाला गया है. एनएसई 500 शेयरों में संस्थागत विदेशी निवेशकों का निवेश तीन साल के निचले स्तर पर है. यह स्पष्ट रूप से वैश्विक स्तर पर संभावित रूप से बिगड़ती लिक्विडिटी की स्थिति का नतीजा है, जो यूक्रेन संकट के बाद भू-राजनीतिक जोखिमों से और प्रभावी हुई है.

सरकार के लिए सबसे अच्छा तरीका यह होता कि एलआईसी की हिस्सेदारी बिक्री को स्थगित कर दिया जाता. सार्वजनिक क्षेत्र के विनिवेश के प्रभारी सचिव ने रिकॉर्ड पर कहा है कि अगर बाजार की स्थिति खराब होती है तो सरकार ब्लू-चिप पीएसयू (बड़े और लंबे समय से लाभ देने वाले सार्वजनिक उपक्रम) में अपनी हिस्सेदारी नहीं बेचेगी.

इसी आधार पर सरकार ने बीपीसीएल, कॉनकॉर आदि जैसी मुनाफा कमाने वाली कंपनियों की रणनीतिक बिक्री की गति धीमी की है. यदि यही एक स्थापित नीति है, तो एलआईसी, जो सबसे मूल्यवान बीमा कंपनी है, के साथ अलग व्यवहार क्यों किया जा रहा है? क्या भारत की आम जनता के प्राथमिक बचत के जरिये को इतनी जल्दबाजी में बेच देना चाहिए? सरकार के पास इसका कोई पुख्ता जवाब नहीं है.

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