हमारी दुनिया में कितनी भी मायूसी हो, चाहे जितनी भी नफ़रत पैदा की जा रही हो, उम्मीद और प्रेम के उजालों में चलकर ही कहीं पहुंचा जा सकता है.
नफ़रत के दिनों की ईद नफ़रत के ख़िलाफ़ खुले दिल से ज़्यादा सद्भावना और सदाशयता के साथ मनाई जानी चाहिए!
ऐसी कामना करते हुए अपने मुल्क में लोकतंत्र और उसकी संस्थाओं को बचाने की जिद्द-ओ-जहद और तमाम चिंताओं के बीच प्रेम के इसी जज़्बे को मैं एक-दूसरे के हक़ में सबसे बड़ी ईदी समझता हूं.
दरअसल, हमारी दुनिया में कितनी भी मायूसी हो, और चाहे जितनी भी नफ़रत पैदा की जा रही हो, उम्मीद और प्रेम के उजालों में चलकर ही कहीं पहुंचा जा सकता है, जैसे कई बार एक हल्का-सा स्पर्श भी मौन अंधेरों के घाव भर देता है.
पिछले दिनों शायद ही कोई तीज-त्योहार हमारे लिए हर्षोल्लास की वजह बना हो. ‘रामनवमी’ और ‘हनुमान’ जयंती पर नफ़रत और हिंसा की ख़बरें अभी तक हमारे ज़ेहनों में ताज़ा हैं. और ये सब उस मुल्क में हुआ, जहां कभी यगाना चंगेज़ी ने कहा था;
कृष्ण का हूं पुजारी अली का बंदा हूं
‘यगाना’ शान-ए-ख़ुदा देखकर रहा न गया
ये और बात कि उस समय भी अपने धर्म के ‘ख़िलाफ़’ एक शब्द न सुनने वाले कट्टरपंथियों ने लखनऊ की गलियों में सरेआम उनके चेहरे पर कालिख पोत दी थी, और अमानवीय व्यवहार करते हुए गधे पर उनका जुलूस तक निकाल दिया था.
हां, ये नफ़रत नई नहीं है. बस कई बार एक ही धर्म के ‘अनुयायी’ भी दूसरे धर्मों के ‘पैरोकार’ से ज़्यादा अलग नहीं होते. उनके बहाने ब-ज़ाहिर अलग हो सकते हैं.
बहरहाल, 1947 के आसपास तक क़ुर्रतुलऐन हैदर के हिंदुस्तान में रामलीलाओं में बिना किसी भेदभाव के ‘हनुमान’ बनने वाले लड़के भी ‘या अली’ का नारा बुलंद करके अपनी मुश्किल आसान किया करते थे, और ये सब देखने-सुनने वाला समाज इस मासूमियत पर गदगद हो जाया करता था.
मगर क्या कीजिए कि इसी हिंदुस्तान में आज नमाज़, अज़ान, हलाल, हिजाब और उर्दू के नाम पर, तो कभी लव जिहाद और धर्मांतरण के बहाने, और कई बार धर्म संसद में नरसंहार की शक्ल में, तो कई दफ़ा ईसाइयों की प्रार्थना और चर्च पर हमले समेत फ़िल्म ‘कश्मीर फाइल्स’ से प्रभावित हिंदुत्ववादियों की नफ़रत को देखते-सुनते हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी भी किसी बुलडोज़र के बेरहम पंजों में दबी-दबी सी महसूस होने लगी है.
शायद इसलिए मैं नफ़रत के इन बहानों और मौक़ापरस्त सियासत की चालों को किसी क़दर समझते-बूझते ईद और ईदी की बातें करना चाहता हूं. आप चाहें तो इसको किसी और त्योहार के प्रेम संदेश के तौर पर अपने-अपने हिस्से की ईदी मान सकते हैं.
ऐसे तो इस्लाम से पहले ही मानव इतिहास में ईद को लेकर कई धारणाएं और धार्मिक मान्यताएं हैं, लेकिन उसमें सबसे ख़ूबसूरत पहलू ये है कि हर धर्म और संप्रदाय के पास ऐसी ईद ज़रूर है जो एक-दूसरे से गले लगने का बहाना देती है.
शायद इसलिए नज़ीर अकबराबादी जैसे शायर ने हिंदुस्तान के हर तीज-त्योहार का जश्न अपनी शायरी में एक हिंदुस्तानी शहरी की तरह मनाया.
पिछले वक़्तों के ईद-कार्ड देखकर मैं कई बार सोचता हूं कि शायद हिंदुस्तान के इसी मिज़ाज और जश्न को देखकर किसी ने पहली बार इस पर दो हाथों के मिलने और आपस में गले लगने की कल्पना की होगी.
और विशेष तौर पर इन मिले हुए हाथों की बात करें तो अपने चेहरों और कपड़ों से आज़ाद एक दूसरे की तरफ़ बढ़ते हुए इन हाथों का मज़हब क्या रहा होगा.
हां, यहां दर्ज ‘उर्दू’ इबारत में शायद आज किसी मज़हब को इलज़ाम की तरह तलाश कर लेना आसान है.
ऐसे में ‘अली’ और ‘हनुमान’ का नारा एक साथ लगाने वाले हिंदुस्तान में आज अल्लाहु-अकबर और जय श्री राम के नारों के बारे में क्या कहना चाहिए. यहां बहुत कुछ याद करना नहीं चाहता, लेकिन पूरे हिजाब विवाद और जहांगीरपुरी की हालिया घटना के दौरान ये नारे एक दूसरे के ख़िलाफ़ ही तो लगाए गए थे.
हिंदू मुस्लिम सिख एकता के नारे से अलग एक दूसरे के ख़िलाफ़ लगाया जाने वाले नारे शायद ‘अल्लाह’ के बड़े होने का ऐलान करते हों और ‘राम’ की जय0जयकार भी उसमें हो, लेकिन उनमें नफ़रत और उसकी प्रतिक्रिया के सिवा कुछ और भी देखने की होशियारी मुझमें नहीं है.
क्या ये नारे हिंदू मुस्लिम सिख एकता के नारों से बड़े हैं?
यूं मुल्क में इन नारों की गूंज हो, और कहीं किसी ग़रीब के ठेले से फल उठाकर फेंके जा रहे हों, या इन नारों के ‘पैरोकार’ पूजा स्थलों में धर्म विशेष के कारोबार पर पाबंदी लगा रहे हों या किसी के नृत्य को एक ख़ास पहचान की वजह से स्टेज नहीं होने दिया गया हो तो इस ईद पर मैं उर्दू उपन्यास ‘अगली ईद से पहले’ को यहां दोबारा पढ़ने की कोशिश करना चाहता हूं.
इस उपन्यास की याद मुझे फ़िल्म ‘कश्मीर फ़ाइल्स’ के बाद ही आई थी कि अपने समय में जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता रहे और सुप्रीम कोर्ट तक में कई अहम मामलों की पैरवी कर चुके ‘आनंद लहर’ (श्याम सुंदर आनंद) ने 1947 से 1996 तक के कश्मीर की कहानी सिर्फ़ इसलिए सुनाई थी कि उनके बीच ‘कुलचे’ बेचने वाला ‘अब्दुल’ कश्मीर के ख़ून-ख़राबों में लगातार एक ही नारा बुलंद करता था; शेर-ए-कश्मीर का क्या इरशाद, हिंदू मुस्लिम सिख इत्तिहाद.
‘कश्मीर फ़ाइल्स’ की बात आ ही गई है तो मैं इस उपन्यास के संदर्भ में ईद के अर्थों पर आने से पहले किसी समय भारतीय सेना में रहे और बाद में पोस्टमास्टर जनरल के पद से रिटायर्ड हुए उर्दू के समकालीन कथाकार दीपक बुदकी का तज़्किरा यहां करना चाहता हूं, जिन्होंने 2005 में एक साक्षात्कार के दौरान मेरे एक सवाल के जवाब में कहा था;
‘कश्मीर … मैंने यहां जन्म लिया. यहीं पर पला हूं, बढ़ा हूं, यहीं पर मैंने तालीम हासिल की. तक़रीबन 40 साल इस धरती से जुड़ा रहा. यहां हिंदू, मुस्लिम और सिख सभी आपस में मिल-जुलकर रहते थे. मेरे ज़्यादातर दोस्त मुसलमान थे. आज जिस कुर्सी पर बैठा हूं, एक मुसलमान दोस्त की देन है. मालूम नहीं इस वादी को किसकी नज़र लग गई और ये शहर-ए-ख़ामोशां में तब्दील हो गई.
मेरी बिरादरी के तीन लाख से ज़्यादा लोग वादी से हिजरत कर गए. मैंने वो सारे मनाज़िर अपनी आंखों से देखे हैं. वो कोई आफ़ात-ए-समावी (आसमानी) नहीं थी बल्कि आफ़ात-ए-इंसानी थी. जिस वादी में 40 साल न कभी किसी क़त्ल की वारदात सुनने में आई, न किसी औरत की बे-हुरमती हुई, न डाका-ज़नी हुई और न गैंगरेप हुए, वहां इस्लाम की तदरीस की ज़रूरत न थी.
अगर इस्लाम की तदरीस की ज़रूरत है तो उन मुल्कों में जहां पर्दे के बावजूद औरतें ग़ैर महफूज़ हैं, जहां कमउम्र लड़के घरों से बाहर आने से डरते हैं. जहां न तालीम की फ़रावानी है और न ही रोज़गार की.
सच तो ये है कि कश्मीर के सूफ़ियों और ऋषियों ने बरसों पहले मारिफ़त का जाम पिया था और ये वादी सारी दुनिया को सच्चे इस्लाम का दर्स दे सकती थी.’
एहसास छलनी यहां भी हैं, लेकिन नफ़रत नहीं है और आज सच्चे इस्लाम का पाठ पढ़ाने वाले कश्मीर के सच को दिखाने के नाम पर हमें नफ़रत की सियासत में धकेल दिया गया है.
आज इसी सियासत की आड़ लेकर जब किसी ‘अब्दुल’ की दुकान पर बुलडोज़र चलाया जा रहा है तो मुझे आनंद लहर के ‘अब्दुल’ की ही याद आई कि कभी कश्मीर में कुलचे बेचने वाला ये शख़्स अपने दोस्तों से कहता फिरता था; इत्तिहाद (एकता) की लाठी हाइड्रोजन बम से ज़्यादा मज़बूत होती है.
अब्दुल यहां एकता के नारे के सहारे बड़ी साज़िशों का मुक़ाबला कर रहा था, उसके नारे से हथियार वालों के इरादे कांपते थे, वो चाहते थे कि कुलचों के बजाय अब्दुल के हाथों में हथियार हों.
इस अब्दुल के कुलचे सब खाते थे, मंदिर के पुजारी ‘बदरी’ भी. आज इसी अब्दुल की दुकान के सामने क़ानून से पहले और उसके आगे भी बुलडोज़र के दांत खुले हुए हैं.
यक़ीन मानिए, अब्दुल की दुकान पर खड़े इस बुलडोज़र ने सिर्फ़ उसके पेट पर अपने दांत नहीं गाड़े, बल्कि आपसी भाईचारे के स्वाद को भी कड़वाहट में बदलने की कोशिश की.
आनंद लहर के अब्दुल की बात इस ईद पर इसलिए भी की जानी चाहिए कि उसके बारे में ख़ुद उपन्यासकार का अनुभव कहता है कि; हम अब्दुल से नहीं, उसकी नमाज़ से डरते हैं, उसकी सच्चाई से डरते हैं.
ये आनंद लहर की दुनिया में रहने वाला वही अब्दुल है, जो अपने बेटे से कहता है; सुना नहीं बदरी शंख बजा रहा है, इसका साफ़ मतलब है कि नमाज़ का वक़्त हो गया.
फिर उसी समय अज़ान की आवाज़ सुनकर ये भी कहता है कि शंख अज़ान की ‘ताईद’ कर रहा है.
यहां ताईद का मतलब बस ये है कि जिस तरह अलग-अलग साज़ मिलकर किसी गीत को मुकम्मल करते हैं, वैसे ही अज़ान और शंख एक दूसरे के ख़िलाफ़ नहीं बल्कि मिलकर ईश्वर-अल्लाह की स्तुतिगान करते हैं.
ये उस बदरी के शंख का क़िस्सा है, जिसके बाप ने बिन मां-बाप के सुलेमान को मंदिर में पाला था. और उसके बड़े होने पर बदरी के बाप ने ही उसको नामज़-रोज़े के बारे में बताया था, और इस्लाम की राह पर चलने की तालीम देते हुए ये भी पढ़ाया था कि एक सच्चा मुसलमान कैसा होता है.
क्या आज हम किसी सुलेमान को मंदिर में पलने की इजाज़त दे सकते हैं, या किसी हिंदू को मस्जिद में सच्चा हिंदू बनाने के बारे में सोच भी सकते हैं. शायद यहां ये सवाल उतने जायज़ नहीं रह गए कि आज हमारी चिंता एक फ़िल्म भी है जो हमें बड़ी आसानी से कट्टर बना रही है.
ऐसे ही उन्मादी लोगों की नज़र जब आनंद लहर के कश्मीर पर पड़ी थी तो एक दिन मंदिर का शंख चोरी हो गया था और उस दिन अज़ान हुई थी न नमाज़.
इसी कश्मीर में सहमे हुए बदरी के पास बैठकर अब्दुल ने सबके सामने ये कहने की कोशिश की थी कि भले ही उसकी जान चली जाए वो मंदिर का शंख वापस लाकर रहेगा.
और इसी कश्मीर में जब गोलियां चल रही थीं तो बदरी रोते हुए अपनी जवान बेटी को देख रहा था. इस घटना पर उपन्यासकार का बयान है कि; जंग हो या क़हत (अकाल), हर इंसान अपनी जवान बेटी की तरफ़ ज़रूर देखता है.
आज भी जंग जैसी कैफ़ियत है और हमें अकाल का सामना है ऐसे में सोचकर रूह कांप उठती है कि जाने कितने ‘अब्दुल’ बदरी की तरह अपनी जवान बेटी को देखकर रोते होंगे.
अभी रुड़की से अपना घर छोड़कर भागे हुए मुसलमानों की ख़बरें देख रहा था तो इसी ‘बदरी’ का चेहरा आंखों में फिर गया, जिसके बारे में एक शख़्स ने इस उपन्यास में बयान दिया कि वो कहीं ‘चला’ गया है, मगर;
‘गया नहीं बल्कि भाग गया है,’ दूसरे शख़्स ने कहा.
मगर हमने उसे रोका क्यों नहीं? हम बदरी के बग़ैर मुकम्मल नहीं हैं और न ही हमारे आबा-ओ-अजदाद मुकम्मल थे.
मगर सवाल पैदा होता है कि हमने बदरी को जाने क्यों दिया?
क्योंकि हम सच्चे मुसलमान नहीं रहे, अब्दुल ने कहा.
मगर सवाल ये है कि बदरी ने हमारा क्या बिगाड़ा था, चौथे शख़्स ने कहा.
उसकी पूजा हमारी नमाज़ को मज़बूत करती थी. उसके व्रत हमारे रोज़ों की शान थे, दूसरे शख़्स ने अब्दुल की तरफ़ देखते हुए कहा.
लोगों ने फिर कानाफूसी की…
आओ बदरी को ले आएं, अब्दुल ने कहा.
वो भी अगली ईद से पहले, लोगों ने बुलंद आवाज़ में जवाब दिया.’
इस उपन्यास के कश्मीर और उसकी नफ़रत से हमारे हिस्से का हिंदुस्तान अलग नहीं है, लेकिन यहां अपने अंदर के बचे हुए प्रेम और यक़ीन से रास्ता निकलता हुआ नज़र आता है.
दरअसल, हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई की आपसी ईद में ही इस देश की एकता का तराना गाया जा सकता है.
वरना, धार्मिक असहिष्णुता और राजनीतिक बहुसंख्यकवाद के इस भयावह दौर में उस दिन से डरता हूं कि अगर अल्पसंख्यकों विशेष तौर पर मुसलमानों को ऐसे ही निशाना बनाया जाता रहा तो ये झूठी धार्मिकता एक दिन उसी बहुसंख्यक के गले की हड्डी न बन जाए.
इसलिए अब शायद किसी बदरी को भी इसी बचे हुए प्रेम के बारे में सोचने और खुले दिल से आगे आकर उसका ऐलान करने की ज़रूरत है, बस मुझे ये नहीं मालूम कि वो इसका ऐलान अगली ‘रामनवमी’ से पहले करेगा, या इसी ईद पर गले मिलते हुए.
ख़ैर, प्रेम वारबर्टनी के इन शब्दों के साथ आप सबको ईद मुबारक कि;
आज है अहल-ए-मोहब्बत का मुक़द्दस त्योहार
रंग क्यों लाए न मासूम दुआओं का असर
ईद का दिन है चलो आज गले मिल जाएं
तुम हो मस्जिद की अज़ां, मैं हूं शिवाले का गजर