दिल्ली हाईकोर्ट की एक पीठ ने वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने के मामले में खंडित फ़ैसला दिया, जहां एक जज ने आईपीसी की धारा 375 (बलात्कार) के तहत दिए गए अपवाद के प्रावधान को समाप्त करने का समर्थन किया, जबकि दूसरे न्यायाधीश ने कहा कि यह असंवैधानिक नहीं है. कार्यकर्ताओं ने इस निर्णय पर निराशा ज़ाहिर की है.
नई दिल्ली: दिल्ली उच्च न्यायालय ने वैवाहिक बलात्कार (मैरिटल रेप) को अपराध घोषित करने के मामले में याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए बुधवार को खंडित निर्णय सुनाया.
इन याचिकाओं में कानून के उस अपवाद को चुनौती दी गई थी जिसके तहत पत्नियों के साथ बिना सहमति के शारीरिक संबंध बनाने के लिए मुकदमे से पतियों को छूट है.
अदालत के एक न्यायाधीश ने इस प्रावधान को समाप्त करने का समर्थन किया, जबकि दूसरे न्यायाधीश ने कहा कि यह असंवैधानिक नहीं है. खंडपीठ ने पक्षकारों को उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर करने की छूट दी.
खंडपीठ की अगुवाई कर रहे जस्टिस राजीव शकधर ने वैवाहिक बलात्कार के अपवाद को समाप्त करने का समर्थन किया और कहा कि भारतीय दंड संहिता लागू होने के ‘162 साल बाद भी एक विवाहित महिला की न्याय की मांग नहीं सुनी जाती है तो दुखद है’, जबकि जस्टिस सी. हरिशंकर ने कहा कि भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत प्रदत्त ‘यह अपवाद असंवैधानिक नहीं हैं और संबंधित अंतर सरलता से समझ में आने वाला है.’
याचिकाकर्ताओं ने आईपीसी की धारा 375 (बलात्कार) के तहत वैवाहिक बलात्कार के अपवाद की संवैधानिकता को इस आधार पर चुनौती दी थी कि यह अपवाद उन विवाहित महिलाओं के साथ भेदभाव करता है, जिनका उनके पतियों द्वारा यौन उत्पीड़न किया जाता है.
इस अपवाद के अनुसार, यदि पत्नी नाबालिग नहीं है, तो उसके पति का उसके साथ यौन संबंध बनाना या यौन कृत्य करना बलात्कार की श्रेणी में नहीं आता है .
पीठ ने इस मामले में 393 पन्नों का खंडित फैसला सुनाया. इनमें से 192 पन्ने जस्टिस शकधर ने लिखे हैं.
जस्टिस शकधर ने निर्णय सुनाते हुए कहा, ‘जहां तक मेरी बात है, तो विवादित प्रावधान-धारा 375 का अपवाद दो- संविधान के अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता), 15 (धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध), 19 (1) (ए) (वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार) और 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन हैं और इसलिए इन्हें समाप्त किया जाता है.’
जस्टिस शकधर ने कहा कि उनकी घोषणा निर्णय सुनाए जाने की तारीख से प्रभावी होगी.
बहरहाल, जस्टिस शंकर ने कहा, ‘मैं अपने विद्वान भाई से सहमत नहीं हो पा रहा हूं.’ उन्होंने कहा कि ये प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 14, 19 (1) (ए) और 21 का उल्लंघन नहीं करते.
उन्होंने कहा कि अदालतें लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित विधायिका के दृष्टिकोण के स्थान पर अपने व्यक्तिपरक निर्णय को प्रतिस्थापित नहीं कर सकतीं और यह अपवाद आसानी से समझ में आने वाले संबंधित अंतर पर आधारित है.
उन्होंने कहा कि याचिकाकर्ताओं द्वारा इन प्रावधानों को दी गई चुनौती को बरकरार नहीं रखा जा सकता.
अदालत का फैसला गैर सरकारी संगठनों रिट फाउंडेशन, ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक विमेंस एसोसिएशन, एक पुरुष और एक महिला द्वारा दायर जनहित याचिकाओं पर आया, जिसमें बलात्कार कानून के तहत पतियों को अपवाद माने जाने को खत्म करने का अनुरोध किया गया.
केंद्र ने 2017 के अपने हलफनामे में दलीलों का विरोध करते हुए कहा था कि वैवाहिक बलात्कार को आपराधिक श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है क्योंकि यह एक ऐसी घटना बन सकती है जो ‘विवाह की संस्था को अस्थिर कर सकती है और पतियों को परेशान करने का एक आसान साधन बन सकती है.’
हालांकि, केंद्र ने जनवरी में अदालत से कहा कि वह याचिकाओं पर अपने पहले के रुख पर ‘फिर से विचार’ कर रहा है क्योंकि उसे कई साल पहले दायर हलफनामे में रिकॉर्ड में लाया गया था.
केंद्र ने इस मामले में अपना रुख स्पष्ट करने के लिए अदालत से फरवरी में और समय देने का आग्रह किया था, जिसे पीठ ने इस आधार पर खारिज कर दिया था कि मौजूदा मामले को अंतहीन रूप से स्थगित करना संभव नहीं है.
उल्लेखनीय है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 375 (बलात्कार) के तहत प्रावधान किसी व्यक्ति द्वारा उसकी पत्नी के साथ शारीरिक संबंधों को बलात्कार के अपराध से छूट देता है, बशर्ते पत्नी की उम्र 15 साल से अधिक हो.
मामले की सुनवाई के दौरान दिल्ली सरकार ने अदालत को बताया था कि भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत वैवाहिक बलात्कार को पहले से ही ‘क्रूरता के अपराध’ के रूप में शामिल किया गया है.
जनवरी में इस मामले को सुनते हुए जस्टिस हरिशंकर ने दोहराया था कि एक विवाहित संबंध में संभोग की अपेक्षा होती है, जिसे कानूनी और सामाजिक रूप से मान्यता प्राप्त होती है.
इससे पहले भी न्यायमित्र राव ने अदालत के समक्ष प्रश्न रखा था कि क्या यह उचित है कि आज के जमाने में एक पत्नी को बलात्कार को बलात्कार कहने के अधिकार से वंचित किया जाए और उसे इस कृत्य के लिए अपने पति के खिलाफ क्रूरता के प्रावधान का सहारा लेने को कहा जाए?
वरिष्ठ अधिवक्ता राव का कहना था कि कोई यह नहीं कहता कि पति को कोई अधिकार नहीं है, लेकिन सवाल यह है कि क्या उसे उक्त प्रावधान के तहत कानून की कठोरता से बचने का अधिकार है या क्या वह मानता है कि कानून उसे छूट देता है या उसे मामले में जन्मसिद्ध अधिकार है.
उन्होंने दलील दी थी, ‘अगर प्रावधान यही संदेश देता है तो क्या यह किसी पत्नी या महिला के अस्तित्व पर मौलिक हमला नहीं है? क्या कोई यह दलील दे सकता है कि यह तर्कसंगत, न्यायोचित और निष्पक्ष है कि किसी पत्नी को आज के समय में बलात्कार को बलात्कार कहने के अधिकार से वंचित किया जाना चाहिए बल्कि उसे आईपीसी की धारा 498ए (विवाहित महिला से क्रूरता) के तहत राहत मांगनी चाहिए.’
उस सुनवाई में जस्टिस हरिशंकर ने कहा था कि प्रथमदृष्टया उनकी राय है कि इस मामले में सहमति कोई मुद्दा नहीं है.
इससे पहले इसी मामले को सुनते हुए अदालत ने कहा था कि विवाहिता हो या नहीं, हर महिला को असहमति से बनाए जाने वाले यौन संबंध को न कहने का अधिकार है.
कोर्ट ने कहा था कि विवाहित और अविवाहित महिलाओं के सम्मान में अंतर नहीं किया जा सकता और कोई महिला विवाहित हो या न हो, उसे असहमति से बनाए जाने वाले यौन संबंध को ‘न’ कहने का अधिकार है.
अदालत का यह भी कहना था कि महत्वपूर्ण बात यह है कि एक महिला, महिला ही होती है और उसे किसी संबंध में अलग तरीके से नहीं तौला जा सकता, ‘यह कहना कि, अगर किसी महिला के साथ उसका पति जबरन यौन संबंध बनाता है तो वह महिला भारतीय दंड संहिता की धारा 375 (बलात्कार) का सहारा नहीं ले सकती और उसे अन्य फौजदारी या दीवानी कानून का सहारा लेना पड़ेगा, ठीक नहीं है.’
उल्लेखनीय है कि इस साल मार्च महीने में एक महत्वपूर्ण निर्णय में कर्नाटक हाईकोर्ट ने एक महिला द्वारा उनके पति पर लगाए बलात्कार के आरोपों को धारा 375 के अपवाद के बावजूद यह कहते हुए स्वीकारा था कि विवाह की संस्था के नाम पर किसी महिला पर हमला करने के लिए कोई पुरुष विशेषाधिकार या लाइसेंस नहीं दिया जा सकता.
कार्यकर्ताओं ने अदालत के फैसले को ‘निराशाजनक’ बताया
दिल्ली उच्च न्यायालय के इस खंडित निर्णय को ‘निराशाजनक’ बताते हुए कुछ महिला कार्यकर्ताओं ने उम्मीद जताई कि उच्चतम न्यायालय इस मामले में ‘अधिक समझदारी’ दिखाएगा.
महिला कार्यकर्ताओं ने यह भी कहा कि मौजूदा प्रावधान बलात्कार पीड़ितों की एक श्रेणी के खिलाफ भेदभावकारी हैं.
दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल ने कहा कि वैवाहिक बलात्कार एक वास्तविकता है और इसके खिलाफ कार्रवाई का समय आ गया है.
Don’t know how many more years we will have to wait to change a British era law! Marital rape is a reality and it’s high time we take the strongest action against it! https://t.co/9pcb0cX9rG
— Swati Maliwal (@SwatiJaiHind) May 11, 2022
उन्होंने ट्वीट किया, ‘पता नहीं अभी कितने साल तक हमें ब्रिटिश राज के कानून को बदलने के लिए इंतजार करना होगा! वैवाहिक बलात्कार एक वास्तविकता है और अब उचित समय है कि हम इसके खिलाफ कड़ी कार्रवाई करें!’
अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला संघ की सदस्य कविता कृष्णन ने कहा, ‘उच्च न्यायालय का फैसला निराशाजनक और परेशान करने वाला है. कानूनी मुद्दा काफी स्पष्ट है और यह बलात्कार पीड़ितों की एक श्रेणी- पत्नियों के खिलाफ भेदभावपूर्ण है. मुझे उम्मीद है कि उच्चतम न्यायालय इस शर्मनाक कानून को हटाने के लिए जरूरी साहस और स्पष्टता दिखाएगा.’
उन्होंने कहा कि उच्च न्यायालय ने यह मामला उच्चतम न्यायालय के पाले में डाल दिया है.
महिला समूह सहेली ट्रस्ट की सदस्य वाणी सुब्रमण्यम ने सवाल किया कि अगर घरेलू हिंसा अपराध है तो वैवाहिक बलात्कार किस प्रकार अपराध नहीं है. उसने कहा कि किसी महिला की शादी हो गई तो इसका मतलब यह नहीं है कि उसने हमेशा के लिए सहमति दे दी है.
इस बीच बलात्कार विरोधी कार्यकर्ता योगिता भयाना इस बात को लेकर संतुष्ट हैं कि कम से कम वैवाहिक बलात्कार मुद्दे पर चर्चा शुरू हो गई है. उनका मानना है कि इस मामले को उच्चतम न्यायालय भेज दिया गया है, इसलिए इस मामले पर विस्तृत चर्चा होगी.
उन्होंने कहा, ‘मुझे खुशी है कि इसे उच्चतम न्यायालय की पीठ के पास भेजा गया है क्योंकि अब आदेश निष्पक्ष होगा. इस विषय को लेकर बहस शुरू हो गई है. एक साल पहले तक लोग इस बारे में बात भी नहीं कर रहे थे. अब उन्होंने चर्चा शुरू कर दी है.’
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)