अब वह भारत भी नहीं रहा, जिसमें जन्म लिया…

जो भारत अब तक बना था, जिसे हम यहां की प्रकृति और किताबों में पढ़ते थे ऐसा लगता है कि वह ‘आज़ादी के अमृत काल’ में विष के समुद्र में लगातार धकेला जा रहा है.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

जो भारत अब तक बना था, जिसे हम यहां की प्रकृति और किताबों में पढ़ते थे ऐसा लगता है कि वह ‘आज़ादी के अमृत काल’ में विष के समुद्र में लगातार धकेला जा रहा है.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

यह वह मगध नहीं
तुमने जिसे पढ़ा है
किताबों में,
यह वह मगध है
जिसे तुम
मेरी तरह गंवा
चुके हो

ऊपर की पंक्तियां हिंदी के प्रसिद्ध कवि श्रीकांत वर्मा (1931-1986 ई.) के चर्चित कविता-संग्रह ‘मगध’(1984 ई.) की हैं. आज भारत और हिंदू धर्म की जो स्थिति है उसे देख कर ऊपर ‘मगध’ की जगह भारत या हिंदू धर्म रखा जा सकता है.

जो भारत अब तक बना था, जिसे हम यहां की प्रकृति और किताबों में पढ़ते थे ऐसा लगता है कि वह ‘आज़ादी के अमृत काल’ में विष के समुद्र में लगातार धकेला जा रहा है.

हिंदू धर्म की भी यही स्थिति लगती है. हिंदू धर्म की तथाकथित उदारता के क़िस्से जो बचपन से हिंदू घरों में सुनाई पड़ते थे उन की जगह अब एक खौलता मुद्दा लगातार चीखता रहता है. कभी यह मुसलमानों की बढ़ती जनसंख्या का हो सकता है, तो कभी ‘लव जिहाद’ का, कभी ताजमहल के कमरों में मूर्तियों के पाए जाने का, कभी किसी मस्जिद के नीचे मंदिर होने का तो कभी अज़ान एवं ‘हनुमान चालीसा’ का हो सकता है.

इन सब के साथ ‘कश्मीरी पंडितों’ का ज़िक्र भी चला आता ही है. हिंदुओं के मन में यह सब इस प्रकार संचित हो गया है (ज़्यादा ठीक यह कहना होगा कि संचित कर दिया गया है.) कि धर्म के भीतर जो उदारता और सहिष्णुता हो सकती है वे इस से लगातार दूर होते जा रहे हैं.

आक्रामकता और उग्रता के नए-नए प्रतीक हिंदुओं के सामने लाए जा रहे हैं. उदाहरण के लिए ‘परशुराम’! इनकी जयंती पिछले कुछ वर्षों से अचानक ही बड़ी धूम-धाम से मनाई जाने लगी है. ‘रामनवमी’ पर्व को तो इस आक्रामकता और उग्रता के चरम रूप में विकसित कर ही दिया गया है. इतना ही नहीं ‘क्रिसमस’ के दिन ‘तुलसी जयंती’ से जुड़े संदेश, वीडियो आदि भी ख़ूब व्यापक पैमाने पर प्रसारित किए जाते हैं.

इन सब पर ठहरकर विचार किया जाए तो कुछ बातें समझ में आती हैं. सबसे पहली तो यह कि इन मुद्दों का इस्तेमाल कर हिंदुओं के मन में एक साथ ही डर, आक्रामकता और उग्रता को भरा जा रहा है.

डर या भय के बारे में हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि ‘किसी आती हुई आपदा की भावना या दुख के कारण के साक्षात्कार से जो एक प्रकार का आवेगपूर्ण अथवा स्तंभ-कारक मनोविकार होता है उसी को भय कहते हैं.’

मुसलमानों या ईसाइयों से जुड़े मुद्दों (जैसे, भारत में मुसलमानों को बहुत अधिक सुविधा मिली हुई है, वे साज़िश के तहत हिंदू लड़कियों को ‘ख़राब’ कर रहे हैं, ईसाई बड़े पैमाने पर धर्मांतरण करा रहे हैं, आदि-आदि) को सामने लाकर हिंदुओं के मन में ‘किसी आती हुई आपदा की भावना’ भरी जाती है और फिर इस से उनके भीतर जो ‘आवेग’ जन्म लेता है उसे ‘आक्रामकता एवं उग्रता’ में रूपांतरित करने की पूरी व्यवस्था बनाई जाती है.

यदि ऐसा नहीं होता तो रामनवमी के समय इतनी भारी संख्या में तलवारों की ख़रीद-बिक्री कैसे हो पाती? फिर यही ‘आक्रामकता एवं उग्रता’ सड़क पर भीड़ की शक्ल में उत्पात मचाती प्रकट होती है. क्या कोई भी सच्चा रामभक्त रामनवमी के दिन मस्जिद पर भगवा झंडा लगाने और लहराने को अपनी पूजा-आराधना मान सकता है?

इसका उत्तर हमेशा ही ‘नहीं’ होगा. यह कैसी विडंबना है कि हिंदू अपने धर्म से हिंदू धर्म के नाम पर ही दूर कर दिए गए हैं और यह प्रक्रिया लगातार ज़ारी है! मनोवैज्ञानिक दृष्टि से हिंदुओं के साथ जो हो रहा है उससे वे दया के पात्र अधिक महसूस होते हैं.

डर, आक्रामकता और उग्रता के साथ दूसरी बात जो हो रही है वह है ‘प्रतीक’ की बहुतायत उपस्थिति. यह केवल धार्मिक मसलों पर ही नहीं किया जा रहा है बल्कि अन्य विषयों के साथ भी रचा जा रहा है.

उदाहरण के लिए, 31 अक्टूबर सरदार वल्लभ भाई पटेल का जन्मदिन है. उसे ‘राष्ट्रीय एकता दिवस’ के रूप में घोषित किया गया और भारत के सभी विश्वविद्यालयों को कहा गया है कि उस दिन ‘एकता के लिए दौड़’ का आयोजन करें.

अभी इसी महीने गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर की जयंती (बांग्ला कैलेंडर के अनुसार 9 मई) बीती है. एक केंद्रीय विश्वविद्यालय ने आदेश प्रसारित किया कि सभी शिक्षकेतर कर्मचारी सुबह साढ़े नौ बजे विश्वविद्यालय के मुख्यद्वार पर एकत्र होकर राष्ट्रगान गाकर विश्वविद्यालय में प्रवेश करेंगे. सभी अकादमिक विभागों से कहा गया कि पहली कक्षा की शुरुआत से पहले राष्ट्रगान गाया जाए.

इतना ही नहीं अकादमिक विभागों को यह भी कहा गया कि इस आयोजन की तस्वीरें तथा वीडियो आदि कुलसचिव कार्यालय को प्रेषित करें. हालांकि एकाध अकादमिक विभाग ने संगोष्ठी आदि का आयोजन भी किया पर जिस तरह केंद्रीय स्तर पर कार्यालय आदेश प्रसारित किया गया उस के स्थान पर एक बढ़िया आयोजन भी केंद्रीय स्तर पर ही किया जा सकता था.

सोचा जा सकता है कि रवींद्रनाथ जैसी महान प्रतिभा को महज राष्ट्रगान तक सीमित कर दिया गया. क्या यह यूं ही घटित हो गया? या इसके पीछे कोई वैचारिक दृष्टि है?

यह स्पष्ट है कि चूंकि रवींद्रनाथ का राष्ट्रवाद अभी की वर्तमान केंद्रीय सरकार और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रस्तावित ‘राष्ट्रवाद’ के मेल में नहीं है इसलिए रवींद्रनाथ को महज राष्ट्रगान के रचयिता के रूप में ही सीमित कर दिया गया? इसी प्रकार महात्मा गांधी की जयंती को भी केवल स्वच्छता तक सीमित कर दिया गया है.

प्रतीक की यही विडंबना होती है कि वह जिससे जन्म लेता है उसे ही निगल जाता है. यानी उसकी अर्थवत्ता सीमित हो जाती है और उसका वास्तविक स्वरूप ही विस्मृत होता चला जाता है. और यदि उस प्रतीक के अनुयायी भी हुए तो उनके मन में उससे जुड़े अनेक तरह के भ्रम, दुर्व्याख्या, दुविधा और अज्ञानता घर करने लगती है.

हिंदुओं के साथ भी ऐसा ही हो रहा है. उदाहरण के लिए, जैसे ही यह समाचार आता है कि ताजमहल के बंद कमरों को खुलवाने के लिए प्रयास किया जा रहा है क्योंकि वहां मूर्तियों के होने का संदेह है! यह संदेह भी क्यों है? इसलिए कि ताजमहल दरअसल पहले मंदिर था! अब मंदिर से भावनात्मक जुड़ाव रखने वाला हिंदू मन तुरंत ही खौलने लगता है.

मीडिया चैनलों पर इस से जुड़े कार्यक्रम आयोजित होने लगते हैं जो इस दशा को और तीव्र करते हैं. यह सब एक विचित्र तरह की आपाधापी में घटित होता है. इस आपाधापी में यह चर्चा भी नहीं होती कि ताजमहल को लेकर ऐसी बातें लगभग 50-60 वर्षों से कही जाती रही हैं.

एक पुरुषोत्तम नागेश ओक नामक व्यक्ति ने लगभग 1965 ई. में ‘द ताजमहल इज़ ए टेंपल प्लेस’ शीर्षक किताब लिखी थी. पर खौला दिया गया हिंदू मन यह भी नहीं सोच पाता कि इन बातों का कोई शोधपरक आधार भी है या नहीं?

यह सवाल भी सामने नहीं आता कि पुरुषोत्तम नागेश ओक के बाद ऐसे कितने शोधकर्ता या विद्वान हुए जिन्होंने इस दिशा में सच में गंभीर काम किया हो? बस शोर और नफ़रत चारों ओर गूंजती रहती है. इस तरह के शोर और नफ़रत का परिणाम यह होता है कि किसी मंदिर के बाहर फल बेचने वाले मुसलमान का सब कुछ तोड़-फोड़ दिया जाता है.

इन सब प्रक्रियाओं में सत्ता की क्या स्थिति है? इस सवाल का विश्लेषण करने की कोशिश करें तो निराशाजनक जवाब मिलता है. सत्ता का काम जनता की नकारात्मक प्रवृत्तियों को उकसाना नहीं बल्कि उसे शांत करना है. पर जब सत्ता जनता की नकारात्मक प्रवृत्तियों के उकसाने को अपने टिके रहने का माध्यम बना ले तब जनता का विचित्र प्रकार से बेचैन होना निश्चित है.

उदाहरण के लिए, तथाकथित ‘धर्म-संसद’ में धर्म के नाम पर ‘नरसंहार’ की बात की जाती है पर सत्ता कोई कार्यवाही नहीं कर पाती. सत्ता में सर्वोच्च पदों पर आसीन लोग भेदभाव और नफ़रत को बढ़ावा देने वाले बयान लगातार देते रहे हैं. झूठ का प्रचार करते हैं. ऐसा वातावरण निर्मित किया जाता है कि हिंदू मन आक्रामक उग्र बना रहे.

इन सबके साथ चिंताजनक बात यह है कि हिंदुओं के मध्य वर्ग को इस में अब आनंद महसूस होने लगा है. यदि ‘बुलडोजर’ को त्वरित न्याय का संदेश बना दिया गया है तो इस मध्य वर्ग को न्याय की सम्मत कार्यवाही की ज़रूरत नहीं लगती.

यदि कहीं से इन सबके विरोध में आवाज़ उठती है तो सत्ता क्रूर दमन पर उतर आती है. कोई भी असहमति तुरंत ही ‘देशद्रोह’ में तब्दील कर दी जाती है. विश्वविद्यालय की परीक्षा में एक सवाल पूछने पर शिक्षक को निलंबित कर दिया जाता है.

कुल मिलाकर यह कि जनता को नफ़रत, उग्रता, आक्रामकता और हुड़दंग की मनोदशा में बनाए रखना, इसके लिए ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ का अनथक प्रयास और विरोध के स्वर का क्रूरता से दमन आज के भारत का सच बन गया है.

इसके लिए सबसे अधिक नौजवानों को तैयार किया जा रहा है. यह सहज ही जाना जा सकता है कि धर्म के नाम पर सड़क पर हुड़दंग करने वालों में 16-18 से लेकर 25-30 वर्ष तक के आयु-वर्ग के लोग सबसे अधिक होते हैं. और यह ऐसा सच भी नहीं जिसका मुख सोने के पात्र से ढॆका हुआ है! यह खुलेआम है.

अगर अब भी इस खुलेआम ‘खेल’ को देखकर हिंदू जनता की आंखें नहीं खुलीं तो इस धर्म का खोखला होते जाना निश्चित है.

और भारत? एक प्रश्नवाचक चिह्न! इस भारत और हिंदू धर्म को देखकर चिंता और तकलीफ़ होती है. हिंदी के समकालीन कवि आलोक धन्वा की प्रसिद्ध कविता ‘सफेद रात’ की पंक्तियां याद आती हैं:

भारत में जन्म लेने का
मैं भी कोई मतलब पाना चाहता था
अब वह भारत भी नहीं रहा
जिसमें जन्म लिया

(लेखक दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाते हैं.)

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