भारतीय आप्रवासियों के रास्ते क्या जातिगत भेदभाव विदेशों में भी पैठ बना रहा है

गूगल न्यूज़ में दलित अधिकार कार्यकर्ता थेनमोजी सौंदरराजन का जाति के मुद्दे पर होने वाला लेक्चर रद्द कर दिया गया. ख़बर आई कि भारतीय मूल के कथित ऊंची जाति से आने वाले कुछ कर्मचारियों ने सौंदरराजन को 'हिंदू-विरोधी' बताते हुए ईमेल्स भेजे थे.

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(फोटो: रॉयटर्स)

बीते दिनों गूगल न्यूज़ में दलित अधिकार कार्यकर्ता थेनमोजी सौंदरराजन का जाति के मुद्दे पर होने वाला लेक्चर रद्द कर दिया गया. ख़बर आई कि भारतीय मूल के कथित ऊंची जाति से आने वाले कुछ कर्मचारियों ने सौंदरराजन को ‘हिंदू-विरोधी’ बताते हुए ईमेल्स भेजे थे.

(फोटो: रॉयटर्स)

‘जाति का सवाल एक प्रचंड मसला है, सैद्धांतिक तौर पर और व्यावहारिक दोनों स्तरों पर. व्यावहारिक तौर पर देखें तो वह एक ऐसी संस्था है जो जबरदस्त प्रभाव पैदा करती है. वह एक स्थानीय समस्या है, लेकिन वह काफी हानि पहुंचा सकती है; जब तक भारत में जाति का अस्तित्व है, हिंदू शायद ही कभी रोटी-बेटी का व्यवहार करेंगे या बाहरी लोगों के साथ सामाजिक अंतर्क्रिया करेंगे; और अगर हिंदू पृथ्वी के अन्य इलाकों में पहुंचेंगे तो भारतीय जाति विश्व की समस्या बन सकती है.’

– डॉ. आंबेडकर, (1916)

वर्ष 1916 का साल था, जब कोलंबिया यूनिवर्सिटी के मानववंश विज्ञान (एंथ्रोपोलॉजी) विभाग के सेमिनार में बोलते हुए युवा आंबेडकर ने यह सटीक भविष्यवाणी की थी कि किस तरह ‘जाति विश्व की समस्या बन सकती है’ जब हिंदू भारत के बाहर यात्रा करेंगे और वहां बसेंगे. एक सदी से अधिक का वक्फ़ा गुजर गया और हम देख रहे हैं कि किस तरह जाति को लेकर उनकी यह भविष्यवाणी भी सही साबित होती दिख रही है.

एक अग्रणी कॉरपोरेट का मसला शायद यही बता रहा है. ऐसे मौके बहुत कम आते हैं जब कोई न्यूज एग्रीगेटर (संकलक)- जो दुनिया भर के हजारों प्रकाशकों एव पत्रिकाओ से ख़बरों, आलेखों को अपने पाठको तक पहुंचाता रहता है, वह खुद सुर्खियां बने.

विश्व की सबसे बड़े न्यूज एग्रीगेटर में शुमार किए जाने वाले गूगल न्यूज के साथ पिछले दिनों यहीं वाकया हुआ, जब वह खुद दुनिया भर के अख़बारों, वेबसाइट्स पर ख़बर बना, जब जाति के प्रश्न पर अपने ही कर्मचारियों को संवेदनशील बनाने के लिए कंपनी द्वारा ही आयोजित व्याख्यान को आनन-फानन रद्द कर दिया गया.

याद रहे डॉ. आंबेडकर का जिस माह में इंतकाल हुआ, उस अप्रैल माह को केंद्रित करते हुए पिछले कुछ सालों से पश्चिमी जगत में ‘दलित हिस्ट्री मंथ’ अर्थात ‘दलित इतिहास के महीने’ में कार्यक्रमों का आयोजन होता है. मकसद यही होता है कि शेष आबादी को जो दलित उत्पीड़न की विशिष्ट समस्या से, उसके संघर्षों से, उसकी जद्दोजहद से परिचित नहीं है, वह चीज़ों को समग्रता में जाने.

गूगल न्यूज द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम में थेनमोजी सौंदरराजन, जो अमेरिका में ही दलित अधिकारों की हिफाजत के लिए लंबे समय से सक्रिय रही हैं तथा जो इक्वलिटी लैब्ज नामक नॉन प्रॉफिट अर्थात एक स्वयंसेवी संस्था की अग्रणी हैं- को बात रखनी थी.

याद रहे दलित अधिकारों की हिफाजत के लिए उनकी स्थिति के दस्तावेजीकरण से लेकर उन पर हो रहे अन्यायों को दूर करने के लिए वह मुहिमों में शामिल रहती आई हैं.

सब कुछ तय था और अचानक ख़बर आई कि थेनमोजी का यह प्रस्तावित व्याख्यान कंपनी की तरफ से रद्द कर दिया है. मामला यहीं ख़त्म नहीं हुआ, इस आकस्मिक फैसले में कंपनी की एक सीनियर मैनेजर- जिन्होंने थेनमोजी से संपर्क किया था और उन्हें निमंत्रण दिया था- उन्होंने कंपनी से इस्तीफा दे दिया.

सबसे ताज्जुब की बात इसमें यह भी उजागर हुई है कि इस कॉरपोरेट समूह के प्रमुख भारतीय मूल के सुंदर पिचाई ने- जिनसे इतनी तो उम्मीद की जा सकती थी कि वह जाति की समस्या से वाकिफ होंगे- इस मामले में बिल्कुल मौन बनाकर रखा और एक तरह से जाति की जीवंत समस्या के प्रति अपनी गहरी असंवेदनशीलता और पूर्वाग्रह का प्रदर्शन किया.

यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि अमेरिका की अग्रणी कॉरपोरेट टेक कंपनियों में, जार्ज फ्लॉयड की हत्या के बाद तथा ब्लैक लाइव्ज़ मैटर के आंदोलन के चलते उठी सरगर्मियों के चलते, एक तरह से सामाजिक मुददों को लेकर एक नई संवेदनशीलता जागती दिख रही है और इसी के तहत कई कंपनियों ने इसी मुददे पर अपने कर्मचारियों एवं अधिकारियों से वार्तालाप करने के लिए इसके पहले सौंदरराजन को आमंत्रित किया था. माइक्रोसॉफ्ट, सेल्सफोर्स, एयरबीएनबी, नेटफिलक्स और एडोबे (Microsoft, Salesforce, Airbnb, Netflix and Adobe) जैसी अग्रणी कंपनियों द्वारा अपने यहां ली गई इस पहल की तारीफ भी हो रही थी.

बाद में पता चला कि कंपनी द्वारा लिया गया यह निर्णय साफ तौर पर दबाव के तहत लिया गया, जिसके पीछे गूगल न्यूज के उन मुलाजिमों द्वारा चलाए गए एक जहरीले अभियान का हाथ था, जिन्होंने आमंत्रित वक्ता को ‘हिंदू द्रोही’ या हिंदू द्वेषी’ कहलाते हुए जबरदस्त मुहिम चलाई थी.

कंपनी के लीडरों और गूगल इंट्रानेट तथा उसके हजारों कर्मचारियों की ईमेल सूची में इसे ‘प्रमाणित’ करने के लिए तमाम दस्तावेज साझा किए गए थे. जाहिर सी बात है इस मुहिम के पीछे भारतीय मूल के कंपनी के कर्मचारी आगे थे- जिनका बहुलांश कथित ऊंची जातियों से आता है.

तयशुदा बात है कि उन्हें इस बात से कतई गुरेज नहीं था कि अमेरिका में बसे 15 लाख से अधिक भारतीय- जो अपने आप को ‘माॅडल माइनाॅरिटी’ कहलाने में फक्र महसूस करते हैं – जिनमें दलित अमेरिकियों की आबादी डेढ़ प्रतिशत से अधिक नहीं हैं, ऐसी घटनाओं में इजाफा हो रहा है जहां दलित अमेरिकियों को अपने कथित ऊंची जाति के सहयोगियों के हाथों जातीय उत्पीड़न, गाली-गलौज आदि का सामना करना पड़ता है, वहां इस मसले पर अब कुछ करने की आवश्यकता है.

सौंदरराजन के खिलाफ जो संगठित मुहिम चलाई गई तथा गूगल प्रबंधन को दबाव में लाया गया, उसके तेवर को देखते हुए यही प्रतीत हो रहा था कि यह अब कोई उपरोक्त प्रतिष्ठान/संगठन के अंदर का मामला नहीं रहा था. इस पूरे घटनाक्रम पर वाॅशिंग्टन पोस्ट ने बाकायदा टिप्पणी की कि आप्रवासी भारतीयों के रास्ते अब किस तरह ‘हिंदू राष्ट्रवादी आंदोलन’ अमेरिका के गूगल न्यूज तक भी पहुंच गया है.

ऐसे विभिन्न हिंदुत्ववादी संगठन तथा रूढ़िवादी हिंदू संगठन जो इसके पहले भी वहां इक्वॅलिटी लैब्ज और दलित अधिकारों की हिमायत के लिए सक्रिय तंज़ीमों के साथ कार्यस्थलों पर दलित अमेरिकियों को झेलने पड़ते भेदभाव तथा स्कूली पाठयक्रम की अंतर्वस्तु जैसे मसलों पर पहले भी उलझ चुके हैं, वह भी इस मुहिम में पिछले दरवाजे से सक्रिय रहे हैं. सिस्को सिस्टम में जातिगत भेदभाव का मसला अभी चर्चा में ही है.

आप कह सकते हैं कि गूगल न्यूज द्वारा जाति के प्रश्न पर व्याख्यान को रद्द करना या अपने संगठन के अंदर मौजूद जातिगत पूर्वाग्रहों पर चर्चा से भी इनकार करना, इन बड़े कॉरपोरेटस के असली चरित्र को उजागर करता है.

विडंबना ही है कि गूगल न्यूज कोई अपवाद नहीं है.

महज दो साल पहले सिस्को सिस्टम्स– जो सॉफ्टवयेर के क्षेत्र में एक दूसरा बड़ा कॉरपोरेट समूह है- एक दलित कर्मचारी द्वारा उसके दो वरिष्ठ मैनेजरों के हाथों, जो दोनों कथित ऊंची जाति से ताल्लुक रखते थे, झेली जा रही जातिगत प्रताड़ना की घटना से सुर्खियों में था. इस बात के दस्तावेजी प्रमाण उपलब्ध थे कि किस तरह वेतन में बढ़ोतरी रोककर या महत्वपूर्ण निर्णय प्रक्रियाओं से उसे बाहर करके इन दो मैनेजरों ने अपने पूर्वाग्रहों का ही प्रदर्शन किया था.

कर्मचारी द्वारा कंपनी को की गई शिकायत के बावजूद इस मसले पर कंपनी के आला अफसरान ने चुप्पी ही बरती. बाद में इस घटना से उद्वेलित इक्वलिटी लैब्ज, आंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर तथा अन्य संगठनों ने अपनी आवाज़ बुलंद की तथा कैलिफोर्निया राज्य की चुप्पी पर सवाल उठाया.

कैलिफोर्निया राज्य ने फिर नागरिक अधिकार कानून- जो अश्वेतों द्वारा समान अधिकार हासिल करने के लिए 60 के दशक में चली व्यापक मुहिम का नतीजा था- के तहत कंपनी पर मुकदमा कायम हुआ जो आज भी चल रहा है.

स्पष्ट है कि सिस्को मामले में कंपनी के खिलाफ आया कोई भी फैसला (जिसकी उम्मीद ज्यादा है)  न केवल कंपनी की अपनी छवि को नुकसान पहुंचाएगा, लेकिन कंपनी को न केवल अपने इन सीनियर मैनेजरों के खिलाफ कार्रवाई करनी पड़ेगी और पीड़ित कर्मचारी को जबरदस्त मुआवजा देना पड़ेगा.

ऐसी घटना न केवल एक नज़ीर बनेगी, जिससे प्रेरित होकर अन्य दलित अमेरिकी- जो अपने यहां प्रताड़ना झेल रहे हैं- भी अपनी आवाज़ बुलंद कर सकते हैें. इतना ही नहीं यह व्यापक हिंदू एकता के हिंदुत्ववादी समूहों के फर्जी दावों की हवा निकाल देगा और हिंदुओं की आपसी दरारों को फिर एक बार जनता के सामने लाएगा.

चाहे गूगल न्यूज का मसला हो, कैलीफोर्निया राज्य के पाठों की पुनर्रचना करनी हो या सिस्को सिस्टम में दलित कर्मचारी के साथ जारी भेदभाव को जुबां देनी हो, आप बार-बार यही पाएंगे कि इक्वलिटी लैब्ज, आंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर आदि संगठनों तथा अन्य हिंदुत्ववादी समूहों के बीच- जिनमें से कई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीति से इत्तेफाक रखते हैं- एक दूरी बनी है.

यह दूरी बदलाव की ताकतों एवं यथास्थिति की ताकतों के बीच की दूरी के तौर पर मौजूद रहेगी, जब तक चीजें गुणात्मक तौर पर नहीं बदलतीं.

दिलचस्प है कि यथास्थिति की हिमायती हिंदुत्ववादी ताकतें और अमेरिका की श्वेत वर्चस्ववादी ताकतों के बीच एक मसले पर जबरदस्त एका दिखता है. मालूम हो श्वेत वर्चस्ववादी ताकतें ‘क्रिटिकल रेस थियरी’ जैसे विषय को अमेरिकी पाठयक्रम में शामिल करने की विरोधी रही हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि इसके चलते पुराने जख्म कुरेदे जाएंगे और बच्चों के मानस पर विपरीत असर पड़ेगा.

अपने संगठित प्रयासों से वे अमेरिका के कई राज्यों में इस विषय के अध्यापन पर पाबंदी लगा चुकी हैं, वही हाल जाति के मसले को शामिल करने को लेकर हिंदुत्ववादी ताकतों का है.

साल 2005 में कैलिफोर्निया राज्य के पाठ्यक्रम की समीक्षा के दौरान इस मसले पर यह दोनों धाराएं आपस में टकराती दिखीं, जहां तमाम सारी याचिकाएं, प्रतियाचिकाएं पेश की गईं और एक तरह से दलित अधिकार समूहों, मानवाधिकार संगठनों को जीत मिली. उन्हीं दिनों इस समूचे मसले को लेकर दलित एक्टिविस्ट सौंदरराजन का एक आलेख काफी प्रासंगिक था:

‘… वहां आप्रवासी भारतीयों के एक हिस्से में सक्रिय ‘धर्मा सिविलाइजेशन फाउंडेशन’ जैसे समूहों की तरफ से यह दलील दी जा रही है कि हिंदुओं में जाति और पुरुषसत्ता का चित्रण किया जाएगा तो वह ‘हिंदू बच्चों को हीनभावना’ से ग्रसित कर देगा और उनकी ‘प्रताड़ना’ का सबब बनेगा, लिहाजा उस उल्लेख को टाला जाए.’

और वह बताती हैं कि ऊपरी तौर पर आकर्षक लगने वाली यह दलील दरअसल सच्चाई पर परदा डालने जैसी है क्योंकि वही तर्क फिर नस्लवाद के संदर्भ में भी इस्तेमाल किया जा सकता है और किताबों से उसकी चर्चा को गायब किया जा सकता है.

वर्ष 2015 में जब यह सिलसिला फिर आगे चला (कैलीफोर्निया राज्य में यह सिलसिला हर दस साल पर चलता है) तो फिर इस दौरान धार्मिक-सांस्कृतिक जमातों, हिंदुत्ववादी संगठन हावी रहे. पाठ्यक्रम से जाति की चर्चा को धुंधला/सौम्य करने का या मुसलमानों, सिखों और ईसाई इतिहास को पाठ्यक्रम से बाहर का रास्ता दिखाने का रास्ता मजबूत हुआ.

इस बात पर जोर दिया जाना जरूरी है कि विचारों के इस संघर्ष में जहां वास्तविक न्याय और समानता के मुद्दे आगे आ रहे हैं और व्यापक एकता के फर्जी दावों को लेकर- जो समाज के सदियों पुरानी दरारों पर परदा डालना चाहते हैं- चुनौतियां बढ़ रही हैं; हम यह भी पा रहे हैं कि जाति एवं उससे जुड़े भेदभावों की चर्चा करने या उन्हें संबोधित करने के लिए नए-नए रास्ते भी खुल रहे हैं.

इस साल की शुरुआत में कैलिफोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी की तरफ से उनकी भेदभाव संबंधी नीति में जाति को भी जोड़ा गया है. अमेरिका की यह सबसे बड़ी पब्लिक यूनिवर्सिटी है, जिसके 23 विभिन्न परिसर हैं और हजारों की संख्या में छात्र वहां पढ़ते हैं. अब वहां अगर दलित छात्रों के साथ कोई अन्याय होता है तो उसकी शिकायत वह वहां कर सकेंगे.

(सुभाष गाताडे वामपंथी एक्टिविस्ट, लेखक और अनुवादक हैं.)

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