पुस्तक समीक्षा: उर्दू की प्रसिद्ध आलोचक अर्जुमंद आरा द्वारा किए गए सारा शगुफ़्ता की नज़्मों के संग्रह- ‘आंखें’ और ‘नींद का रंग’ के हिंदी लिप्यंतरण हाल में प्रकाशित हुए हैं. ये किताबें शायरी के संसार में उपेक्षा का शिकार रहीं सारा और अपनी नज़र से समाज को देखती-बरतती औरतों से दुनिया को रूबरू करवाने की कोशिश हैं.
सारा शगुफ़्ता उर्दू साहित्य की उत्तर-आधुनिक कवित्रियों में अपनी विशिष्ट शायरी के लिए जानी जाती हैं. उन्होंने उर्दू और पंजाबी दोनों भाषाओं में लिखा. सारा ने अपनी ज़िंदगी के दुख को लफ़्ज़ों का पैकर अता किया और उन तमाम औरतों की ख़ामोशी को अपनी शायरी में एक चीख़ में तब्दील कर दिया जिनकी आवाज़ पुरुष-प्रधान समाज में बड़ी आसानी से घोंट दी जाती है.
सारा को हिंदी के पाठकों से मिलवाने का सराहनीय काम उर्दू की प्रसिद्ध आलोचक और अनुवादक डॉक्टर अर्जुमंद आरा ने किया है. दिल्ली विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में प्रोफ़ेसर अर्जुमंद ने सारा की नज़्मों के दोनों संग्रह ‘आंखें’ और ‘नींद का रंग’ का हिंदी में अनुवाद/लिप्यंतरण किया है, जिसे राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किया है. अर्जुमंद अनुवाद के क्षेत्र में न सिर्फ़ सक्रिय रही हैं बल्कि उन्हें इसके लिए सम्मानित भी किया जा चुका है.
सारा की नज़्मों के संग्रह ‘आंखें’ में सारा की लगभग 42 नज़्में शामिल हैं, और सारा के दूसरे संग्रह ‘नींद का रंग’ में तक़रीबन 75 नज़्में शामिल हैं. बताती चलूं कि अमृता प्रीतम द्वारा लिखित सारा की जीवनी ‘एक थी सारा’ पहले से हिंदी में मौजूद है, यूं अब सारा का मुकम्मल परिचय हिंदी पाठकों के लिए भी उपलब्ध है.
दरअसल यहां मुझे सारा शगुफ़्ता पर आई अर्जुमंद आरा की इन्हीं दो किताबों पर चंद बातें करनी हैं लेकिन उससे पहले मैं आप के साथ एक अनुभव साझा करना चाहती हूं.
चंद रोज पहले सफ़र के दौरान मैंने कुछ वक़्त पटना स्टेशन के लेडीज़ वेटिंग रूम में गुज़ारा था. लेडीज़ वेटिंग रूम में जब गर्मी नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त हो गई तो मैं पुरुषों के लिए बनाए गए वेटिंग रूम में आ कर बैठ गई, जहां लगा एयर कंडीशनर सिर्फ़ नुमाइश के लिए नहीं था बल्कि काम भी कर रहा था और क़द्रे राहत थी.
आप सोच रहे होंगे कि यहां इस बात का ज़िक्र क्यों, लेकिन दोनों वेटिंग रूम के दरमियान का फ़र्क़ जाने क्यों मुझे औरत और मर्द की ज़िंदगी जैसा लगा. जिस समाज में औरत का अस्तित्व ही ‘दूजा’, ‘ग़ैर’ (The other) हो, वहां औरतों के लिए बनाए गए वेटिंग रूम की हालत उस से भिन्न कैसे हो सकती है?
मुमकिन है ये तुलना आपको हास्यास्पद लगे लेकिन दोनों वेटिंग रूम के बीच मौजूद इस फ़र्क़ को आसानी से नज़र अंदाज़ कर देना मेरे लिए मुमकिन नहीं था. ज़िंदगी में हर क़दम पर औरत को इस ‘दूजेपन’ के भाव का सामना करना पड़ता है. अक्सर औरतें इसे अपना मुक़द्दर मान कर तस्लीम कर लेती हैं और जो नहीं करतीं उन्हें- इज़्ज़त के नेज़े से दाग़ा जाता है- सारा ने समाज के द्वारा तय की गई ‘दूजी’ हैसियत को तस्लीम करने से इनकार कर दिया, उसकी शायरी इसी इनकार की गूंज है.
अपनी आंख के पास रहने से
क्या औरत आवारा होती है
भला आंचल का सज्दे से क्या तअल्लुक़
पानियों के मुक़द्दर में भंवर होता है
औरत के मुक़द्दर में एक के बाद दूसरी चादर
सारा की शायरी उस ‘हव्वा’ की आपबीती है जिसने अपने लफ़्ज़ों से- ख़ुदा की आंखें तराशी- और कहा कि ‘काश मैं आंखें तुम्हें बांधकर दे सकती, सबसे ज्यादा फ़ुज़ूल-खर्च आंख होती है.’ सारा को ये भी कहना पड़ा कि ‘ज़मीन मेरी थकन से भी छोटी है’ और ‘आसमानों की उम्र मेरी उम्र से छोटी है.’
उसके दुख का अंदाज़ा लगाइए जिसने 30 साल की ज़िंदगी भी पूरी नहीं जी और इस दुनिया को- थूक दिया- जो दुख सारा ‘जी’ रही थी, जो कर्ब उसके लफ़्ज़ों में उग आए हैं वो हमारे समाज का नंगा सच हैं कि- औरत का सब से बड़ा गुनाह ये है कि वो औरत है- और सारा भी औरत थी. अर्जुमंद के लफ़्ज़ों में कहूं तो ‘उसके जीवन के वे सारे पड़ाव- समाज के दिए हुए कष्टों के पड़ाव- उसकी शायरी में मौजूद हैं.’
सारा की शायरी औरत के अस्तित्व से जुड़े प्रश्नों को उठाती है- क्या औरत का बदन से ज़्यादा कोई वतन नहीं?- क्या दुख, पीड़ा ही औरत का मुक़द्दर है? क्या उसके मुक़द्दर में सिर्फ़ जलना लिखा है? वो अपने सवालों के साथ इस दुनिया से रुख़्सत हो गई लेकिन उसके लफ़्ज़ों में जलते सवाल आज भी मौजूद हैं.
मैं ये तो नहीं जानती कि- हश्र के रोज़ उसकी अकेली क़ब्र का अकेला ख़ुदा- उसे मिलेगा या नहीं लेकिन इतना ज़रूर कहूंगी कि सारा को किसी- ख़ुदा- की सनद की ज़रूरत नहीं. उसकी गवाही के लिए उसकी नज़्में काफ़ी हैं.
इज़्ज़त के नेज़े से हमें दाग़ा जाता है
इज़्ज़त की कनी हमारी ज़बान से शुरू होती है
कोई रात हमारा नमक चख ले
तो एक ज़िंदगी हमें बे ज़ाएका रोटी कहा जाता है
अपने दुखों का लिबास पहनने वाली सारा ने कहा था- मैं इस जिस्म को थूक दूंगी, कि आखिरी गाली तक मैंने सब्र का वादा किया था- हां, सब्र किया सारा ने, इतना कि उसके दुखों से उसके लफ़्ज़ जलने लगे.
ये कोई घर है?
कि औरत और इज़्ज़त में कोई फ़र्क़ नहीं हो रहा..
औरत तो इंसान को जन्म देने का बाद भी
खरी नहीं होती….
मुर्दे समझते हैं
औरत से अच्छी कोई क़ब्र नहीं होती….
वो तवाइफ़ थी,शहवत-ज़दा (कामातुर) नहीं
इसलिए हरामज़ादों ने तो हद कर दी
औरत को सिर्फ़ इन्ज़ाल (पतन, वीर्य-पतन) समझ बैठे
वाह रे मर्द! न तू गलियों में भौंक सका
और न औरत में
खा अपने नुत्फ़े (शुक्राणु, बीज) की क़सम
लेकिन तू अपना नुत्फ़ा नहीं जानता
कि औरत हमेशा से तवाइफ़ रही है
सारा ने अपनी शायरी में पितृसत्तात्मक समाज की बखिया उधेड़ते हुए उसकी जड़ों पर चुभते प्रतीकों के माध्यम से गहरा प्रहार किया. अपने अनुभव की भट्टी में जला सारा का तंज़िया अंदाज और औरत की ‘भूली-बिसरी’ भाषा ने सारा की शायरी को बिल्कुल अलग रंग में ढाला है, जिसका एहसास सारा के हर पाठक को पहली पढ़ंत में ही हो जाता है.
लेकिन अर्जुमंद की ये बात भी सच है कि ‘सारा को वही लोग समझ सकते हैं जिनके पास सारा जैसा दिल हो.’ कहते हैं मर्दों को बे-हिस मिट्टी से बनाया गया है, शायद यही वजह है कि साहित्यिक दुनिया में सारा के परिचय का हवाला भी एक औरत बनी:
अमृता ने सारा शगुफ़्ता की कहानी पंजाबी में लिखी थी- एक थी सारा, दुखद और चौंकाने वाली मृत्यु और फिर अमृता की तवज्जो का केंद्र बनने के कारण हिंदुस्तान और पाकिस्तान के साहित्य जगत ने सारा में यकायक दिलचस्पी लेना शुरू की और उसके जीवन और रचना संसार का गहराई से आकलन किया जाने लगा. (पेज:10, आंखें: सारा शगुफ़्ता)
सारा के परिचय में किताब की भूमिका में अर्जुमंद ने उनकी ज़िंदगी के चंद वाक़ेआत के ज़रिये जो तस्वीर खींची है वो न सिर्फ़ मुकम्मल बल्कि पाठकों के लिए सारा की शायरी के हवाले से पृष्ठभूमि की हैसियत भी रखती है.
किताब पर अर्जुमंद की लिखी भूमिका ‘गुंबद को तोड़ती हुई चीख़’ को सारा की शायरी और उनकी ज़िंदगी पर एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ कहा जा सकता है जहां अर्जुमंद ने न सिर्फ़ सारा की ज़िंदगी और शायरी के संदर्भ में अपने विचार रखे हैं बल्कि सारा पर किए गए काम का विश्लेषण एक आलोचक की दृष्टि से किया है. लिखती हैं:
मैंने सारा के बारे में लिखे गए लेखों और किताबों की तलाश शुरू की. और यह देखकर हैरान हुई कि उसके प्रशंसक और आलोचक- बल्कि निंदक- दोनों ही उनकी शायरी पर कम और ज़िंदगी पर अधिक बात करते हैं. (पेज:13, आंखें: सारा शगुफ़्ता)
औरत हमेशा से समाज में ‘दूजी’ रही है, लेकिन सारा के साथ साहित्यिक दुनिया का बर्ताव भी ‘दूजा’ ही रहा. ऐसे समाज में जहां औरत आज भी बदन में क़ैद है वहां सारा के साथ इंसाफ़ क्या होता? आज भी उनकी ज़िंदगी और शायरी सवालों के कटहरे में खड़ी की जाती है. अर्जुमंद ने इसका कारण जाति में तलाश करने की कोशिश की है. ‘आंखें’ की भूमिका में लिखती हैं:
सारा शगुफ़्ता की विडंबना यह है कि उसे साहित्य जगत ने ही उपहास और तिरस्कार का पात्र बनाया. तब इसके मूल कारण धर्म और नैतिकता से अन्यत्र ढूंढने होंगे. और यह ‘अन्यत्र’ वर्ग और जाति में निहित देखा जा सकता है.
भारत की तरह पाकिस्तान में भी उत्कृष्ट साहित्य प्रायः उच्च वर्ग की बपौती रहा है. उच्च जातियों की उस उच्च वर्गीय दुनिया के लिए सारा एक अजनबी थी- एक अन्य, एक ग़ैर. वह किसी पिछड़ी जाति के ग़रीब और अनपढ़ परिवार से थी, और इस तरह शक्तिहीन, पसमांदा होना ही काफ़ी था कि लोग संवेदनहीन और निडर होकर जैसे चाहें उस पर अपनी नैतिकता के डंडों से प्रहार करते, और यही किया भी गया. (पेज: 15)
अर्जुमंद की ये बात यूं भी दुरुस्त मालूम पड़ती है कि औरत तो हमारे समाज में ख़ुद एक ‘निम्न जाति’ है, लेकिन निम्न वर्ग की महिला को उच्च वर्ग की महिला की तुलना में ज़्यादा संघर्ष और चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, ग़रीब और पसमांदा होना शायद सारा के लिए दोहरी मार साबित हुआ.
सारा की शायरी को साहित्यिक दुनिया ने उपेक्षा की दृष्टि से देखा. यूं भी जो अलग नज़र आता है उसे आसानी से क़ुबूल नहीं किया जाता. सारा की नज़्मों को न सिर्फ़ छापने से इनकार किया गया बल्कि उनकी नज़्मों को शायरी मानने से भी इनकार किया गया.
सारा कुछ तरतीब से और कुछ बेतरतीबी से अपनी ज़िंदगी की दास्तान लिखती रही और मुझे भेजती रही. वहां पाकिस्तान में सारा की कोई नज़्म शाए (प्रकाशित) नहीं हो पा रही थी. यहां हिंदुस्तान में मैं जब भी उस की नज़्म शाए करती, सारा को खुशी होती. (पेज :52, एक थी सारा: अमृता प्रीतम)
संकीर्ण मानसिकता वाले इस पुरुष-प्रधान समाज में औरत की हैसियत एक ‘गाली’ से ज़्यादा नहीं और जब वो इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाती है, इस समाज के बनाए हुए दकियानूसी उसूलों को मानने से इनकार करती है तो आवारा और बदचलन कही जाती है.
एक तनक़ीदी बैठक में एक जुमला कुछ इस तरह था… ‘सारा! अपने जिस्म में और अपनी शायरी में तमीज़ पैदा कर!’ ये महज़ एक गाली थी मैंने बर्दाश्त की पूरी कोशिश की सिर्फ़ इतना कहा…’साहब! मैं तो बे-ज़मीरी लिखती हूं मुझे क्या मालूम कि तमीज़ और ज़मीर किसे कहते हैं. इसलिए मेरी नज़्म पर सिर्फ़ बे-ज़मीरों को बोलने का हक़ है.’ (पेज: 53, एक थी सारा: अमृता प्रीतम)
सारा की नज़्में ‘झंकार नहीं थीं जो ताल पर नाचती रहे’ शायद इसलिए भी उसके साथ इंसाफ़ न हो सका. उसके लफ़्ज़ जल गए, अपने लहू से जज़्बे चुनने की कोशिश में उसकी रूह तक ज़ख़्मी हो गई लेकिन आलोचकों और बुद्धिजीवियों को उनमें शायरी की विशेषताएं नज़र न आईं.
लोग मेरी नज़्म को सिर्फ़ एक तवाएफ़ समझते हैं…. मेरे मुंह से निकला. ख़ुदाया! नज़्म को तवाएफ़ समझने वालों के लिए क्या कहूं? वो बोली…. मैं उन्हे ख़ुदा की मरी हुई तख़्लीक़ कहूंगी…. ख़ुदा का मरा हुआ तसव्वुर.. ? अगर नज़्म को तवाएफ़ कहा और समझा जा सकता है तो चाहूंगी मेरी बेटी भी… मेरी बेटी मुझे नज़्म सी प्यारी है और नज़्म अपनी बेटी सी…. (पेज: 16, एक थी सारा: अमृता प्रीतम)
सारा की शायरी औरत के अस्तित्व का बयानिया (Narrative) है. सारा ने अपने बच्चे की मौत पर अपने दूध की क़सम खाई थी कि ‘शे’र मैं लिखूंगी, शायरी मैं करूंगी, मैं शायरा कहलाऊंगी’ और ‘दूध बासी होने से पहले एक नज़्म लिख ली थी.’ दरअसल औरत को नैतिकता की बेड़ियों में बांधने वाले नहीं जानते कि लफ़्ज़ों को क़ैद नहीं किया जा सकता. न ही उसकी कोई सरहद होती है.
अमृता प्रीतम ने कहा था ‘सारा क़ब्र बन सकती है, क़ब्र की खामोशी नहीं बन सकती.’ सारा ने अमृता से जीने का वादा किया था और उसने ये वादा यूं पूरा किया कि अपनी सांसें, अपनी नज़्मों में रख दीं. और जिस्म को थूक कर हमेशा के लिए आज़ाद हो गई. अपने लहू से नज़्में लिखने वाली सारा का अगर कोई ख़ुदा था भी तो शायद उसकी ख़ामोशी टूट न सकी.
यहां मुझे ज़ेहरा निगाह याद आ रही हैं जिन्होंने कहा है ‘औरत के ख़ुदा दो हैं हक़ीक़ी-ओ-मजाज़ी, पर उस के लिए कोई भी अच्छा नहीं होता.’ सारा के बारे में अमृता का ये बयान पढ़िए. लिखती हैं:
मैं सिर्फ़ इतना जानती हूं कि सारा की रूह सफ़ेद परों जैसी ख़ूबसूरत थी और उन सफ़ेद परों को नोच-नोचकर उसे काली गालियों के काले परदे दिए गए… (पेज: 38, एक थी सारा: अमृता प्रीतम)
अर्जुमंद ने सारा पर हुए कामों का ब्यौरा भी किताब की भूमिका में पेश किया है. भाषा के हवाले से बात की जाए तो उर्दू के टेक्स्ट को हिंदी लिपि में लिखने का काम भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं कि हर भाषा का अपना मिज़ाज होता है. हालांकि उन्होंने हिंदी के पाठकों को ध्यान में रखते हुए लिप्यंतरण के दौरान उर्दू के मुश्किल लफ़्ज़ों का अर्थ लिखा है. ताकि नज़्मों को समझने में आसानी हो.
सारा शगुफ़्ता की शायरी पर आधारित ये काम महत्वपूर्ण भी है और ज़रूरी भी. ज़रूरी इन मा’नी में कि कुछ लोगों को हमेशा ये शिकायत रहती है कि औरत-औरत करते थकती नहीं तुम लोग? कुछ नया क्यों नहीं लिखती, कब तक औरत का मर्सिया लिखोगी? ऐसे लोग जो औरत से अपनी मौत पर मातम करने का हक़ भी छीन लेना चाहते हैं, ये किताब उन तमाम लोगों को पढ़नी चाहिए, सारा की शायरी उनके सवालों का जवाब है.
अर्जुमंद की ये किताब इस हवाले से भी महत्वपूर्ण है कि औरत के अस्तित्व का विवरण, जो हमेशा से हमारे समाज में ‘दूजी’ रही है, उसी की ज़बान में मिलना नायाब न सही कामयाब ज़रूर है.
(लेखक मधेपुरा की बीएन मंडल यूनिवर्सिटी में सहायक प्रोफेसर हैं.)