नालंदा ज़िले के बेन ब्लॉक की कांट पंचायत के माड़ी गांव में क़रीब 200 साल पुरानी मस्जिद की देखरेख बीते कई बरसों से इस गांव की हिंदू आबादी के ज़िम्मे है. देश के धार्मिक दबंगई के माहौल में एक दूसरे की आस्था और विश्वास को बनाए रखने वाले इन ग्रामीणों में सूफ़ी और भक्ति परंपराओं की दुर्लभ तस्वीर नज़र आती है.
नालंदा/माड़ी: ‘अल्लाहु-अकबर, अल्लाहु-अकबर…’ मस्जिद की गुंबद से बंधे लाउडस्पीकर पर बड़ी ख़ूबसूरत और दिलनशीं आवाज़ में ज़ुहर (दोपहर की नमाज़ के लिए) की अज़ान हो रही है. हालांकि, मस्जिद में कोई इमाम है न मोअज़्ज़िन (अज़ान देना वाला), और नमाज़ियों के आने की उम्मीद भी नहीं है कि गांव में दूर-दूर तक कोई मुस्लिम आबादी नहीं बची है.
अलबत्ता, कभी किसी समय नियमित रूप से यहां नमाज़ पढ़ने वालों की यादें कुछ स्थानीय हिंदुओ के ज़ेहन में रह गई हैं.
यूं नमाज़ियों के वजूद से महरूम और कई मानों में ‘वीरान’ पड़ी इस मजिस्द में इसके बावजूद बड़ी रौनक़ है. दरअसल हिंदू औरतें, बच्चे, बुज़ुर्ग और कई नौजवान इस समय शिद्दत की गर्मी में भी मस्जिद के अंदर किसी धार्मिक स्थल पर आने वाले श्रद्धालुओं जैसी श्रद्धा लिए मौजूद हैं.
ऐसे में पेन ड्राइव के माध्यम से पूरे गांव में अज़ान की फैलती आवाज़ सुनकर ज़ौक़ का मशहूर-ए-ज़माना शेर याद आ जाना लाज़मी है कि;
मोअज़्ज़िन मर्हबा बर-वक़्त बोला
तिरी आवाज़ मक्के और मदीने
ज़ौक़ ने मोअज़्ज़िन की बर-वक़्त पुकार पर मर्हबा कहते हुए दूर-दूर तक उस आवाज़ की प्रसिद्धि की कामना की थी.
ठीक ऐसे ही बिहार के नालंदा ज़िले के बेन ब्लॉक के अंतर्गत आने वाले कांट पंचायत के माड़ी गांव में तक़रीबन 200 साल से खड़ी इस मस्जिद और उसके परिसर में अवस्थित मज़ार के लिए स्थानीय हिंदुओं की अपार श्रद्धा, आदर, सम्मान, भक्ति, पूजा और सत्कार को देखकर शायद ही कोई अपने आपको ऐसी कामना करने से रोक पाए.
धार्मिक उन्माद, नफ़रत की सियासत और विभाजनकारी राजनीति के इस दौर में जहां मज़ारों के तोड़े जाने, धार्मिक स्थलों पर भगवा झंडा लहराने और आए दिन देश भर की मस्जिदों को लेकर सामने आने वाले विवादों की ख़बरों की आदत के बीच किसी मस्जिद के लिए हिंदुओ की इस दुर्लभ आस्था को शांति और सद्भाव या सौहार्द की तरह ही देखा जाना चाहिए.
हालांकि, कुछ लोग इसे इनकी अशिक्षा और पिछड़ेपन का नाम भी दे सकते हैं, जबकि कुछ इसमें सूफ़ी और भक्ति परंपराओं की नायाब और दुर्लभ तस्वीर भी तलाश कर सकते हैं.
‘मस्जिद से हिंदुओं की श्रद्धा पुरानी’
अपनी बाहरी दीवारों पर पुराने वक़्तों का सितमज़दा चेहरा लिए ये मस्जिद अंदर से भी हिंदुओं की श्रद्धा और अपनी ताज़ा रंगाई-पुताई के बावजूद कहीं-कहीं से अपने उखड़े हुए नक़्श के साथ अतीत की कहानियां सुना रही है.
इमामत की जगह के पास अर्थात मिंबर के ठीक ऊपर पवित्र क़ुरान की कुछ आयतें घड़ी के ठीक बग़ल में नए फ्रेम के साथ दीवार पर लगी हुई हैं. जहां वो आयत भी दर्ज है जिसमें कहा गया है कि, ‘तुम्हारे लिए तुम्हारा धर्म है और मेरे लिए मेरा धर्म’.
मगर, यहां धर्म और दीन कई मानों में भक्ति और आध्यात्म की फ़िज़ा में एक ऐसी आस्था का रूप लिए नज़र आते हैं जो किसी भी धर्म की हदों से कहीं ज़्यादा अफ़ज़ल और शायद सर्वोपरि भी है.
इसी फ्रेम से ज़रा ऊपर की तरफ़ एक बड़ी सी ख़ाली जगह की छाप मानो इस मस्जिद की किसी गुमशुदा श्रद्धा की तरफ़ इशारा कर रही हो. रिक्त स्थान पर पल भर को जमी हमारी नज़रें अभी कुछ पूछना ही चाहती हैं कि एक बुज़ुर्ग ग्रामीण की आवाज़ आती है, ‘यहां भी ऐसी ही आयत थी…’
किसी ज़माने में इमाम के ख़ुत्बे के लिए मिंबर के तौर पर प्रयोग किए जाने वाले लकड़ी के सीढ़ीनुमा मेज़ पर हिंदी में क़ुरान की किसी क़दर नई प्रति और कुछ दूसरी किताबों के साथ सच्ची नमाज़ की एक कॉपी भी नज़र आ रही है.
माड़ी के हिंदुओं ने मस्जिद की देख-रेख और साफ़-सफ़ाई के साथ-साथ इन पवित्र किताबों को भी संभाल रखा है. हालांकि ताज़ा रंगाई-पुताई की वजह से फ़िलहाल ये चीज़ें अपनी जगह पर बेतरतीबी से रखी हैं.
बिहार के नालंदा शहर से 13-14 किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस मस्जिद तक पैमार नदी के बांध पर बनी संकीर्ण, जर्जर और कई जगहों पर कच्ची मिट्टी वाली घुमावदार सड़कों से अपनी सवारी द्वारा जैसे-तैसे पहुंचा जा सकता है. टूटी-फूटी सड़कों की यात्रा के बाद गांव में उतरते ही यहां के पिछड़ेपन और अशिक्षा के बीच रहने वाली हिंदू आबादी नज़रों में समाने लगती है.
ज़्यादातर पक्के मकानों वाले इस गांव में कुछ लोग गांव की मुख्य सड़क से मस्जिद तक साथ में पैदल चलते हुए यहां की अशिक्षा और अपनी निरक्षरता की बात कर रहे हैं. बताते जा रहे हैं कि यहां खेती के अलावा ज़्यादा कुछ नहीं है.
वहीं पंचायत के मुखिया कारू तांती जो मुख्य रूप से हमारी रहनुमाई कर रहे हैं, बताते हैं कि इस गांव और उनकी पंचायत में भी कोई मुस्लिम आबादी नहीं है. वो कहते हैं, ‘ज़मींदारी के ख़ात्मे के बाद से ही मुसलमानों का पलायन शुरू हो गया था.’
उन्होंने बताया, ‘अब सालों से हिंदू ही इस मस्जिद की देखभाल कर रहे हैं और पूरे दिन में पांच बार पेन-ड्राइव से अज़ान ‘बजाते’ हैं. उनकी मानें तो इस मस्जिद से हिंदुओं की श्रद्धा पुरानी है और अब ये उनके लिए धरोहर भी है.
राम नरेश इस मस्जिद और मज़ार से हिंदुओं की श्रद्धा को इस गांव की परंपरा, जो अब एक तरह की जनभाषा का रूप ले चुकी है के तौर पर पेश करते हुए कहते हैं, ‘यहां से जब भी हिंदुओ की बारात निकलती है तो लड़का (दूल्हा) सबसे पहले यहीं आकर ‘गोर’ लगता है.’ उनका मानना है कि अगर इसकी अवहेलना होगी तो कुछ बुरा हो जाएगा.
वो कहते हैं, ‘मुसलमानों के जाने के बाद जब मस्जिद वीरान हो गई तो हमने यहां चिराग़-बत्ती की और इसकी देख-रेख शुरू की.
राम नरेश मस्जिद को इस गांव की आत्मा बताते हुए कहते हैं, ‘हम अपने पूर्वजों की तरह यहां सेवा-सत्कार कर रहे हैं. मस्जिद का कोई नाम तो नहीं है, लेकिन हम इसको ‘दरगाह’ बुलाते हैं. मस्जिद परिसर में आप जो ‘बाबा हज़रत’ का मज़ार देख रहे हैं, उनकी वजह से हम इसको ‘दरगाह’ कहते हैं.’
अपनी बातचीत के दौरान मस्जिद परिसर के मुख्य द्वार के पास दीवार में बने एक ताक़ में रखे हुए ख़ास तरह के चौकोर और ‘रहस्यमयी’ पत्थर की तरफ़ इशारा करते हुए राम नरेश बताते हैं, ‘हम इसे ‘ज़र-मेहर’ के नाम से जानते हैं और जब भी गांव में किसी का गाल फूल जाता है तो इसमें सटाने से ठीक हो जाता है.’
राम नरेश की कई बातों से ऐसा लगता है जैसे हम किसी लोक साहित्य में प्रचलित कोई कहानी या किवंदती सुन रहे हों. इस दौरान वो कहते हैं, ‘बस हमारी आस्था है और हमको ये सब करने से सुकून मिलता है.’
उनकी बातों को आगे बढ़ाते हुए एक बुज़ुर्ग महिला राजमंती देवी भी मस्जिद और दरगाह से गांव में कृपा, मनोकामना पूरी होने और इस पत्थर से स्वास्थ्य लाभ की बात को दोहराती हैं और कहती हैं, ‘ये मस्जिद हमारे लिए देवता समान है.’
हालांकि, ये पत्थर जिसे कुछ लोग ‘काला पत्थर’ भी कहते हैं, कहां से आया और यहां कब से है, जैसे कई सवालों का जवाब नहीं मिलता.
राजमंती बड़े रहस्यमयी अंदाज़ में यहां किसी बुज़ुर्ग और सूफ़ी के होने की बात भी करती हैं. उनकी बातों से महसूस होता है कि उन बुज़ुर्ग की वजह से ही इस गांव में सब ठीक है और वो हर तरह की प्राकृतिक आपदा से महफूज़ हैं.
राजमंती की तरह गीतू देवी भी अपनी आस्था की बात करती हैं और कहती हैं, ‘अभी कुछ लोग ज़िम्मेदारी के साथ यहां सेवा-सत्कार कर रहे हैं, इनसे पहले मुफ़त लाल जी सेवा करते थे.’
वो आगे कहती हैं, ‘हम किसी भी अवसर पर सबसे पहले यहीं आते हैं, उसके बाद ही माता रानी के मंदिर और दूसरी जगह जाते हैं.’
उनकी मानें तो यहां हिंदू अपने धर्म का पालन कर रहे हैं और यहां से उनकी मुरादें पूरी हो रही हैं. राम नरेश की तरह ही गीतू देवी कहती हैं, ‘अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो हमारे साथ कुछ बुरा ज़रूर होगा.’
एक सवाल के जवाब में गीतू कहती हैं, ‘देखिए कोई जाति-बिरादरी नहीं होती, सबको मिलकर रहना ज़रूरी है. इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है कि ये मस्जिद है या मंदिर.’
वो अपनी पूरी श्रद्धा के साथ कहती हैं, ‘हमारे लिए तो ये भगवान का ही रूप है, इसलिए जैसे हम माता रानी की सेवा करते हैं वैसे ही इनकी सेवा करते हैं.’
गीतू यह जानकारी भी देती हैं कि ऐसे तो हिंदू ही इसकी देखरेख करते हैं, मगर ‘भुट्टू मियां’ भी कभी-कभी अपने परिवार के साथ आते हैं, पिछली बार लॉकडाउन में आए थे.
गांव में भुट्टू मियां के नाम से मशहूर और अभी बिहार शरीफ़ के काग़ज़ी मोहल्ला में रह रहे ख़ालिद आलम की जड़ें इसी गांव में हैं, मस्जिद के ठीक बग़ल में आज भी उनकी जायदाद मौजूद है. अपने पूर्वजों के बाद वो मुसलमानों की उस आख़िरी पीढ़ी से आते हैं, जिन्होंने यहां से पलायन किया था.
बिहार शरीफ़ में द वायर के साथ बातचीत में ख़ालिद बताते हैं, ‘माड़ी से हमारा बहुत गहरा रिश्ता है, जब भी मौक़ा होता है हम वहां जाते हैं.’
इस दौरान उन्होंने कुछ तस्वीरें भी साझा कीं. इन तस्वीरों और माड़ी के हिंदुओं की बातचीत से अंदाज़ा होता है कि आज भी इनके बीच भाईचारे का गहरा रिश्ता है और वो इसको कई तरह से निभा रहे हैं. यहां तक कि गांव में मुसलमानों की प्रॉपर्टी की देखभाल भी हिंदू आबादी कर रही है.
पंचायत के मुखिया कारू तांती भी लोगों के यहां आने, ‘गोर’ लगने, मत्था टेकने, मिन्नत-मुरादें मांगने की बातें करते हुए एक तरह से ख़ालिद आलम की बातों की तस्दीक़ इन लफ़्ज़ों में करते हैं, ‘यहां मुसलमान नहीं हैं, लेकिन उनसे हमारे रिश्ते बहुत अच्छे हैं. हम एक दूसरे के पर्व-त्योहार में भी शामिल होते हैं.’
‘हिंदू-मुस्लिम सबका खून एक है’
माड़ी स्थित इस मस्जिद और मज़ार के लिए हिंदुओं के पास उनकी श्रद्धा की इतनी बातें और हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की कुछ ऐसी कहानियां हैं जिनको नफ़रत और भय के इस सियासी माहौल में किसी किस्से की तरह सुनना प्रेम और आपसी सौहार्द को भी महसूस करना है.
हालांकि मस्जिद में मौजूद अधेड़ उम्र की कुछ औरतें आपस में बात करते हुए एक दूसरे को अपने गांव से ताल्लुक़ रखने वाले मुसलमानों से अपने अच्छे रिश्ते की याद दिला रही हैं और ये भी कह रही हैं कि ‘हिंदू तो आज भी अच्छे हैं, मगर मुसलमान देश में क्या कर रहा है.’
शायद वो मुल्क के उन अनदेखे मुसलमानों की बात कर रही हैं, जिनको आज की सियासत और मीडिया के एक धड़े ने खलनायक बना दिया है.
इस दौरान गांव के एक बुज़ुर्ग अनिल पासवान अपना क़िस्सा सुनाते हुए इस मस्जिद में चार-पांच महीने तक सोने की बात करते हैं.
उनकी मानें तो रहस्यमयी तौर पर उन्हें यहां किसी आलौकिक शक्ति का एहसास हुआ था. वो कहते हैं, ‘उनका निर्देश हुआ कि मस्जिद का दरवाज़ा छोड़कर सोओ. उन्होंने कहा तुम लोग अच्छे कर्म करते रहो हम तुम्हारे साथ अच्छा करते रहेंगे.’
उनकी बातें बुद्धि और तर्क के विपरीत लगती हैं, लेकिन उनकी अपार श्रद्धा को देखकर एक बार इस पर यक़ीन करने को जी चाहता है.
इसी गांव के एक नौजवान अवनीश कुमार की मानें, तो सौ दो सौ साल से इस मस्जिद में हिंदुओं की श्रद्धा है. इस दौरान लगभग 85 साल के बुज़ुर्ग जद्दो पासवान उनकी बातों की तस्दीक़ करते हुए कहते हैं, ‘हां, हां, ये मस्जिद ब्रिटिश राज से ही है.’
फिर अवनीश अपनी बात को जारी रखते हुए कहते हैं, ‘अभी अजय पासवान, गौतम महतो और बखोरी जमादार जी यहां मुख्य रूप से सेवा-सत्कार की ज़िम्मेदारी निभा रहे हैं.’
अवनीश इसकी देख-रेख में आने वाले खर्च के बारे में बताते हैं कि सब कुछ अपने घर से ही किया जाता है. कई लोगों की तरह वो भी कहते हैं, ‘अब ये हमारी परंपरा का हिस्सा है, इसलिए हम सबसे पहले यहीं ‘गोर’ लगते हैं, उसके बाद माता रानी के मंदिर और शिव स्थान जाते हैं.’
आगे कहते है, ‘हमारे मन में कभी नहीं आया कि ये मुसलमानों की मस्जिद है, और हम यहां नहीं आ सकते.’
वो इस जगह के साथ अपने अटूट विश्वास की बात करते हुए ये भी बताते हैं, ‘जिस पत्थर से स्वास्थ्य लाभ की होता है, उसको एक बार किसी ने चुरा लिया था, लेकिन चोरी करने वाले के साथ कुछ तो बुरा हुआ, इसलिए वो इसे यहां वापस रख गया.’
इस बीच मस्जिद की सेवा में पूरी तरह से समर्पित लोगों में से एक अजय पासवान, जो पेशे से राज मिस्त्री हैं, अपने दो बच्चों के साथ यहां आते हैं. उनके क़दम रखते ही कई ग्रामीण कहते हैं, ‘यही हैं, यही देखते हैं यहां का सब कुछ.’
उसके बाद अजय ख़ास तरह से मुसलमानों के अंदाज़ में सलाम करते हुए कई बार चाय-पानी के लिए ज़ोर देते हैं. फिर कहते हैं, ‘पहले से लोग सेवा-संस्कार कर रहे हैं, हम भी वही कर रहे हैं. जब तक हमारा शरीर है तब तक हम सेवा करते रहेंगे.’
अजय भी और लोगों की तरह पेन-ड्राइव से अज़ान देने की बात करते हुए कहते हैं, ‘हम यहां लोबान जलाते हैं, अगरबत्ती जलाते हैं, साफ़-सफ़ाई करते हैं, दरगाह का ख़याल रखते हैं और चादरपोशी करते हैं. सब इन्हीं की कृपा है और क्या कहें.’
इस दौरान एक सवाल के जवाब में अजय कहते हैं, ‘यहां अज़ान से किसी को कोई दिक्क़त नहीं है, कोई मना भी नहीं करता. ये जहां होता है वहां होता है. ये सब नेतागिरी है, राजनीति है, अपनी-अपनी कुर्सी के लिए लोग ये करते हैं. जाति तो दो ही है मर्द और औरत, हिंदू-मुस्लिम सबका खून एक है.’
देश में पैगंबर पर टिप्पणी और इसको लेकर हुए विवाद के बारे में कहते हैं, ‘सब राजनीति है, सबका बराबर सम्मान होना ही चाहिए, और देखिए हम तीन लोग जो इस मस्जिद की सेवा में लगे हुए हैं नेता-फेता से मतलब नहीं रखते. सरकार ही ये सब करवाती है. झारखंड में देखिए क्या हुआ मुस्लिम भाई मारे गए. नेता लोगों की ऐसी राजनीति से हिंदू-मुस्लिम भाईचारे पर बहुत असर पड़ता है.’
आगे कहते हैं, ‘हमारा कहना है हिंदू हो या मुस्लिम दोनों एक ही है. लोग क्यों पड़ते हैं नेता के चक्कर में!’
अजय अपने गांव की मिसाल देते हुए कहते हैं, ‘मेरे गांव में देख लीजिए सब एक स्वभाव के हैं, मस्जिद की देख-रेख कर रहे हैं. अज़ान की व्यवस्था है, और इसमें हमारी आस्था है.’
‘पलायन की वजह सांप्रदायिकता नहीं’
उल्लेखनीय है कि कुछ स्थानीय ख़बरों में यहां से मुसलमानों के पलायन के संदर्भ में 1942, 1946 और 1981 के सांप्रदायिक दंगों की चर्चा की गई है. इस बारे में पूछने पर तांती ने बताया, ‘नहीं, वो दंगे की वजह से नहीं गए, वो अच्छी ज़िंदगी और बेहतर रोज़गार के लिए धीरे-धीरे पलायन कर गए.’
ग़ौरतलब है कि किसी ज़माने में यहां मुसलमानों की अच्छी आबादी थी, लेकिन अब सिर्फ़ हिंदू रह गए हैं जिनमें कुर्मी, पासवान और अन्य हिंदू जातियां हैं.
इस बीच 1960 के आसपास जन्मे राम नरेश प्रसाद अपने बचपन को याद करते हुए बताने लगते हैं कि हमारे लड़कपन में यहां नमाज़ होती थी.
मुसलमानों के पलायन और दंगे की बात पर अजय कहते हैं, ‘ये देहाती एरिया है, यहां कोई कारोबार नहीं है. इसलिए मुस्लिम भाई रोज़ी-रोज़गार के लिए बिहार शरीफ़, दिल्ली और कलकत्ता चले गए. ऐसा नहीं है कि कोई दंगा हुआ और उसकी वजह से लोग चले गए. कुछ मुसलमानों की ज़मीन अभी भी यहां है और यहीं के लोग बटाई करते हैं और जोत-कोर करके उनको देते हैं.’
अजय जोड़ते हैं, ‘कभी यहां आधा गांव मुसलमान था, लेकिन ऐसा नहीं है कि कोई उनको मारता था या तंग करता था. सब अपनी-अपनी सुविधा के लिए यहां से गए. बाक़ी सब राजनीति है इसके चक्कर में ज़्यादा नहीं पड़ना चाहिए.’
अजय की तरह कई ग्रामीण और पंचायत के मुखिया भी दंगे की वजह से मुसलमानों के पलायन की बात से इनकार करते हैं, हालांकि बिहार शरीफ़ में ख़ालिद आलम उर्फ़ भुट्टू मियां 1942, 1946 और 1981 के सांप्रदायिक दंगो की बात की तस्दीक़ करते हैं.
मगर वो भी हिंदुओ की तरह इसे दंगा नहीं मानते और कहते हैं, ‘देखिए हिंदू-मुसलमान आमने-सामने ज़रूर हुए, लड़ाई की सूरत भी पैदा हुई, लेकिन किसी को कोई नुक़सान नहीं हुआ.’
अपने पूर्वजों के हवाले से वो बताते हैं, ‘जब पहला दंगा हुआ तो मुसलमानों की तरफ़ से बस 10-15 नौजवान थे. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ कि किसी को कोई नुक़सान हुआ हो, यही हाल दूसरे दंगों के समय भी हुआ. और एक दंगे के समय जब हालात ज़्यादा ख़राब हो सकते थे तब कांग्रेसी नेता मुद्रिका सिंह जी ने गांव में कैंप किया और लोगों की बड़ी मदद की. इसलिए जब भी दंगा हुआ वो उस तरह का दंगा नहीं था, जिसको हम आज के किसी बड़े दंगे या सांप्रदायिक हिंसा की तरह याद करें.’
उनकी मानें तो चूंकि इन दंगों में किसी को कोई जानी-माली नुक़सान नहीं हुआ, इसलिए यहां के हिंदू भी इसे दंगे की तरह नहीं देखते. ख़ालिद आलम भी ज़मींदारी के ख़ात्मे के बाद से ही मुसलमानों के पलायन शुरू होने की बात करते हैं और कहते हैं, ‘यहां से आख़िरी पलायन 1981 के दंगे के बाद हुआ.’
माड़ी स्थित इस मस्जिद के बारे में एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा, ‘जो मस्जिद आप देखकर आ रहे हैं इसको हमारे पूर्वज ‘कबीर आलम’ ने बनवाया था. इससे पहले लोग बडगाव नमाज़ पढ़ने जाते थे, आज के दिन में वो मस्जिद भी वीरान पड़ी है. उस ज़माने में कई बार लोगों की नमाज़ छूट जाया करती थी, और वो ज़मींदारी का ज़माना था तो इन लोगों ने सोचा कि अपने गांव में मस्जिद बनाई जाए.’
वो बताते हैं कि उनके अंदाज़े के मुताबिक़ मस्जिद कम से कम दो सौ साल पुरानी है.
गांव का इतिहास
इस दौरान वो इस गांव के इतिहास के बारे में बताते हैं कि किसी ज़माने में ये गांव नालंदा की मंडी हुआ करता था, बाद में मंडी को ही लोग धीरे-धीरे माड़ी कहने लगे.
उन्होंने बताया, ‘ऐसा कहा जाता है कि उस ज़माने में ये गांव कम से कम चार बार सैलाब की चपेट में आकर बह गया और कई बार गांव में आग भी लगी. इसलिए इस गांव का नाम बदलता रहा. अलग-अलग समय में कभी इस गांव को ‘नीम माड़ी’, ‘मुशार्कत माड़ी’ और ‘पाव माड़ी’ के नाम से जाना गया, और अब इसका मौजूदा नाम ‘इस्माइलपुर माड़ी’ है.’
उनकी जानकारी के मुताबिक़ इन तमाम नामों से लैंड रिकॉर्ड भी मौजूद हैं.
आलम ने यह भी बताया, ‘मस्जिद परिसर में जो बुज़ुर्ग लेटे हुए हैं उनका नाम ‘हज़रत इस्माइल’ है. ज़्यादा तफ़सील तो हमें भी नहीं मालूम, शायद कुछ किताबों में उनकी चर्चा की गई है. बताया जाता है कि उनकी आमद से पहले जो गांव जल जाया करता था या पानी में बह जाया करता था, उनके तशरीफ़ लाने के बाद से इस गांव के अंदर कभी सैलाब का पानी नहीं आया और न ही आग लगी.’
उनके मुताबिक़, उनकी बरकत से ही माड़ी गांव बसा.
आलम की तरह ही माड़ी के कई हिंदू ‘हज़रत इस्माइल’ को ‘बाबा हज़रत’ और ‘मख़दूम साहब’ के नाम से बुलाते हुए बताते हैं कि इनकी वजह से ही बाढ़ और अन्य प्राकृतिक आपदाओं से गांव महफूज़ है.
आलम जहां मुसलमानों के पलायन के लिए दंगे की बात से इनकार नहीं करते, वहीं इसके लिए इस गांव के पिछड़ेपन को वो सबसे बड़ी वजह बताते हैं. उनकी मानें तो यहां पैमार नदी की वजह से पानी का प्रकोप रहता था, कोई ढंग का रास्ता तक नहीं था, वो कहते हैं, ‘अब नीतीश कुमार की सरकार में मंत्री श्रवण कुमार के समय में एक रास्ता तो बहरहाल बन गया है, जिसकी वजह से आना-जाना थोड़ा आसान हुआ है.’
कुल मिलाकर नालंदा, बिहार शरीफ़ और राजगीर अवस्थित सूफ़ी-संतों के मज़ार, कुंड, गौतम बुद्ध की विश्व शांति की शिक्षा और उनके पदचिह्नों के साथ-साथ इतिहास के कई गाथाओं की गवाही देती इस धरती से कुछ किलोमीटर के फ़ासले पर खड़ी माड़ी गांव की इस मस्जिद और मज़ार को लेकर स्थानीय हिंदुओं की अपनी परंपरागत मान्यताएं तो हैं ही, मगर नई पीढ़ी के हिंदुओं की उदार सोच के साथ दूसरे धर्म के विश्वास को ज़िंदा रखने की चाहत और बहुत हद तक धार्मिक रीतियों को निभाने की सहनशीलता से ये भी समझा जा सकता है कि वो समकालीन भारत में भाईचारे की कैसी उम्दा मिसाल पेश कर रहे है, और अपनी श्रद्धा के माध्यम से देश और दुनिया को किस तरह का प्रेम संदेश देना चाहते हैं.