कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: इस समय की प्रचलित टेक्नोलॉजी और प्रविधियां तेज़ी और सफलता से यथार्थ को तरह-तरह से रचती रहती हैं. इस रचे गए यथार्थ का सच्चाई से संबंध अक्सर न सिर्फ़ क्षीण होता है बल्कि ज़्यादातर वे मनगढ़ंत और झूठ को यथार्थ बनाती हैं. हमारे समय में राजनीति, धर्म, मीडिया आदि मिलकर जो मनोवांछित यथार्थ रच रहे हैं उसका सच्चाई से कोई संबंध नहीं होता. इस यथार्थ को प्रतिबिंबित करना झूठ को मानना और फैलाना होगा.
मेरे एक मित्र ने कहा कि मैं साहित्य की जिस उदात्त भूमिका की बात अक्सर करता हूं, वह यथार्थपरक नहीं है: साहित्य से इतनी अधिक उम्मीद इस समय करना यथार्थ से मुंह मोड़ना है और यह कुसमय ऐसा है कि साहित्य से इतने सबकी उम्मीद लगाना अंततः विफलता की ओर जाने जैसा है.
मेरी मुश्किल यह है कि साहित्य में मरते-खपते साठ से अधिक बरस बिताने के बाद मैं उससे ‘कम-से-कम’ की उम्मीद नहीं कर सकता. मुझे पता है कि उदात्त और उदार का संसार भर में ह्रास हो रहा है. उन पर लगातार हमले हो रहे हैं. पर मैं उनकी संभावना को मनुष्यता और साहित्य दोनों के लिए ज़रूरी मानता हूं.
अगर उदात्त और उदार साहित्य में अपना शरण्य नहीं पायेंगे तो उन्हें बसने के लिए और कौन-सी जगह अब बची हैं? अधिक से अधिक साधारण जीवन में, जीवन की साधारणता में, लोगों के आपसी संबंधों में, कुछ उनकी सच्चाइयों में, कुछ उनके सपनों में.
साधारण जीवन और साहित्य का संबंध गहरा है और जीवन साहित्य को प्रभावित करता है, कई बार उसे दिशा भी देता है. साहित्य जीवन को कितना बदल पाता है, अपनी आकांक्षा और प्रयत्न से, यह कहना मुश्किल है. लेकिन जीवन तो निश्चय ही साहित्य को बदलता है.
मनुष्य ने सभ्यता के दौरान जितने उदाहरण, माध्यम, विचार और अवधारणाएं आदि गढ़े उनमें से अधिकांश ने उसके साथ देर-सबेर विश्वासघात ही किया है: धर्मों, राज्यों आदि ने भी. सभी से उदार और उदात्त, जो पहले निश्चय ही रहे होंगे, छीजते-रिसते चले गए और ज़्यादातर मानवीय व्यवस्थाएं और संस्थाएं आज अनुदार और अनुदात्त हैं.
यथार्थ तो यही है. पर मनुष्य शुरू से ही निरे यथार्थ से नहीं, कल्पना और स्वप्नों से भी जीता आया है. फ़िलमुक़ाम यह मानने का पर्याप्त आधार नहीं है कि अगर मानवीय यथार्थ में उदार और उदात्त शेष नहीं रहे तो वे उसकी कल्पना और स्वप्नों से भी ग़ायब हो गए. यहीं साहित्य का प्रसंग जुड़ता है. वह मनुष्य की कल्पना और स्वप्न को भी अपना उपजीव्य बनाता है: घोर भयावह कुसमय में भी कल्पना और स्वप्न, विकल्प की खोज और आत्मान्वेषण मनुष्य के ध्यान से ओझल नहीं होते.
साहित्य आज संभवत: यथार्थ से कम, कल्पना और स्वप्न से अधिक जुड़ने को विवश है. हमारे समय के बड़े लेखक, इसीलिए, कल्पनाशील और स्वप्नदर्शी रहे हैं- वे हमें यथार्थ की निराशा से मुक्त कर कल्पना और स्वप्न की रंगभूमि में ले जाते हैं: उन्हें याद रहता है कि कल्पना और स्वप्न का यथार्थ से एक अनवरत रण चल रहा है. इसीलिए साहित्य रंगभूमि और रणभूमि एक साथ है.
उदार और उदात्त घायल और लहूलुहान होते हैं पर युद्ध करने से भागते नहीं हैं. साहित्य इसलिए उम्मीद की भी एक विधा है. वह यथार्थ के सामने और उसके निपट क्रूर हिंसक वर्तमान का सामना करते हुए उसका अतिक्रमण करने का दुस्साहस करता है. साहित्य साहस की भी विधा बनता रहा है. आप कहेंगे कि घूम-फिरकर मैं उदार और उदात्त पर वापस आ गया: आप ठीक कह रहे हैं. उनके बिना मेरी और शायद आपकी भी ख़ैर नहीं है.
यथार्थ और यथार्थ
यथार्थ को लेकर जो धारणाएं रूढ़ हो गई हैं, उनमें से एक है कि साहित्य या कला तभी प्रामाणिक होती है जब वह यथार्थ को प्रतिबिंबित करती है. इसका आशय यह है कि यथार्थ अलग से, पहले से दिया हुआ है और उसके किसी हिस्से को चुनने की लेखक को छूट है, पर उससे अलग जाने की नहीं.
इस समय जो टेक्नोलॉजी और प्रविधियां चलन में हैं वे तेज़ी और सफलता से यथार्थ को तरह-तरह से रचती रहती हैं. यथार्थ का, इस रचे गए यथार्थ का सच्चाई से संबंध अक्सर न सिर्फ़ क्षीण होता है बल्कि ज़्यादातर वे मनगढ़ंत और झूठ को यथार्थ बनाती हैं.
ऐसे में तथाकथित यथार्थ बहुत संदिग्ध हो जाता है. इसे दुहराने की ज़रूरत नहीं कि हमारे समय में राजनीति, धर्म, मीडिया आदि मिलकर जो मनोवांछित यथार्थ रच रहे हैं उसका सच्चाई से कोई संबंध नहीं होता. इस यथार्थ को प्रतिबिंबित करना झूठ को मानना और फैलाना होगा.
मूर्धन्य शिल्पकार अलबर्तो गायकोमेती ने बरसों पहले कहा था कि ‘कला का लक्ष्य सच्चाई को पुनर्रचना नहीं है, बल्कि एक ऐसी सच्चाई रचना है जिसमें उतनी ही सघनता हो.’ हमारी परंपरा में, जिसकी स्मृति सामाजिक जीवन ही नहीं साहित्यिक जीवन में भी भयावह रूप से क्षीण होती जा रही है, यह कहा गया था कि काव्यसंसार में कवि एकमात्र प्रजापति है जो जैसा उसे रूचे वैसा संसार रचता है.
अक्सर हमें साहित्य पढ़कर यह एहसास होता है कि ऐसा हुआ न हो पर हो सकता है. या कि जो सचमुच हो रहा है उससे हम बेख़बर हैं. या कि जो रचा हुआ संसार हमारे सामने है वह हमारी सच्चाई-आकांक्षा-स्मृति-कल्पना का मिला-जुला संभव संसार है. यह भी लग सकता है कि रचा हुआ संसार यानी कविसंसार, अधिक उत्कट, सघन और संश्लिष्ट है.
हम यह भूल नहीं सकते कि यह संसार भाषा में रचा गया है जबकि हमारा अपना व्यापक संसार भाषा में रचा संसार नहीं होता. उसमें भाषा होती तो है पर ऐसा भी बहुत कुछ जो भाषा से परे होता है. कविता या साहित्य की भाषा इस सबको अपने अंदर एक सार्थक संयोजन में समेट लेती है और उसका कायाकल्प भी हो जाता है. उस संसार में हमारा व्यापक संसार स्थगित या तिरोहित नहीं हो जाता. कई बार यह सुखद और समृद्धिकारी लगता है कि हम अपने संसार और रचित संसार दोनों को, उसके संबंध और संवाद को, उनके तनाव और अंतर्विरोध को देख-समझ और स्वायत्त कर पा रहे हैं.
हालांकि इस समय व्यापक रूप से कल्पना का उपयोग तरह-तरह के झांसे देने के लिए किया जा रहा है, साहित्य या कला में कल्पना की बड़ी भूमिका होती है. रचित संसार कल्पित संसार होता है. यह संसार स्मृति-समृद्ध भी होता है.
अगर यथार्थ की एक अधिक समावेशी अवधारणा की जाए और उसे सामाजिक यथार्थ तक महदूद न किया जाए तो साहित्य अंततः स्मृति-कल्पना-सच्चाई से जो संसार रचता है वह स्वायत्त होता है, यथार्थ के कई प्रचलित रूपों से संवादरत पर अपनी प्रामाणिकता और वैधता के लिए किसी सीमित यथार्थ का मुंह जोहता नहीं.
शर्म आती है
मुझे शर्म आती है और मुझे इसका एहसास है कि ऐसे लाखों हैं जिनको शर्म आती है. अपनी शर्म की गाथा कहना या उसे गाना अच्छी बात नहीं है. पर फिर अच्छी बात तो झूठ बोलना, हिंसा और हत्या करना, घृणा फैलाना भी नहीं है जो इन दिनों बहुत ज़ोर-शोर और सफलता के साथ हो रहा है.
मुझे अपनी बेचारगी पर शर्म आई जब लाखों की संख्या में अपने ही देश में बेगाने हुए लोग, स्त्रियां और बच्चे अपने गांव-घरों की ओर, हज़ारों किलोमीटर की दूरी पैदल पार करते हुए, बिना किसी सुविधा के, चिलचिलाती धूप में जाने के लिए विवश हुए. शर्म आई कि राज्य ने रेलगाड़ी या यातायात के अन्य साधन देने में निष्क्रियता दिखाऊ, दूसरों द्वारा ऐसी सुविधा दिए जाने पर अड़ंगे अटकाए, बढ़ा-चढ़ाकर किराये चाहे. अपने घरों में बंद हम स्वयं असहाय थे, इस अर्थ में हम कोरोना प्रकोप के लॉकडाउन में कुछ कर नहीं सकते थे.
शर्म आई जब अख़बारों ने बताया कि पवित्र नदी गंगा के कछार में हज़ारों लाशें रेत में दबाई बरामद हुई क्योंकि उनके लिए दाह-संसार की व्यवस्था नहीं की जा सकी. मृतकों का अपमान हुआ और हम कुछ नहीं कर सके. शर्म आती है जब हर दिन स्वामिभक्त पुलिस को कोई न कोई अदालत मनगढ़ंत आधारों पर लोगों को अभियुक्त बनाकर जेल में डालने पर फटकार लगाती रहती है पर किसी का बाल बांका नहीं होता और निरपराधों को पकड़ने के उसके उत्साह में कमी नहीं आती.
शर्म आती है जब खुलेआम दिन-दहाड़े अल्पसंख्यकों को घायल किया जाता है, किसी की हत्या तय कर दी जाती है, बिना किसी क़ानूनी प्रावधान के बुलडोज़र चलाए जाते हैं. शर्म आती है कि मंहगाई, बेरोजगारी, हिंसा, ग़रीबी, बर्बरता आदि में लगातार हो रही बढ़ोतरी होने के बावजूद जननायकों की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आती.
शर्म आती है जब इतिहास, परंपरा, संस्कृति आदि के बारे में राजनेता अवैध, निराधार भड़काऊ बयान देते रहते हैं और विद्वान और विशेषज्ञ उनका प्रतिकार नहीं करते. हर दिन शैक्षणिक संस्थानों की स्वायत्तता में कटौती की जा रही है और लाखों की संख्या में फैले शिक्षक इसका विरोध नहीं करते.
शर्म आती है कि मेरी भाषा को सार्वजनिक संवाद में झगड़ालू, लांछनकारी, घृणा-उपजाऊ, गाली-गलौज से भरी भाषा बनाया जा रहा है और हममें से अधिकांश अपनी मातृभाषा का यह प्रदूषण और अपमान हर दिन मुदित मन देखते-सुनते रहते हैं.
शर्म आती है कि स्वतंत्रता के पचहत्तर वर्ष पर हमारे संवैधानिक मूल्यों स्वतंत्रता-समता-न्याय में कटौती हो रही है और हम कुछ नहीं कर पा रहे हैं. आपको नहीं आती तो आप जानें, हमको शर्म आती है. जिनको आती है वे इसे समझ सकते हैं. मैं भारतीय हूं, नागरिक हूं, ज़िंदा हूं इसलिए शर्म आती है.
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)