कहा जाता है कि मनुष्य अपनी छवि में अपने देवताओं को गढ़ता है. अज्ञेय ने लिखा है कि अगर आदमी की शक्ल घोड़े की होती तो उसके देवता भी अश्वमुख होते. इसलिए यदि वह शाकाहारी है तो उसके आराध्य को भी शाकाहारी होना होगा और दूषित आदतें छोड़नी होंगी.
‘मूरख को दो ठो पैसा दे दो, बुद्धि मत दो.’ महुआ मोइत्रा से परिचय नहीं इसलिए आप में से जो उन्हें जानते हैं उनसे विनती है कि यह सलाह, बिन मांगे उन तक पहुंचा दें. पुरखों के इस मशविरे में चेतावनी भी है. जो मूर्ख को बुद्धि देने की मूर्खता करे, उसे अनेक प्रकार की हानि हो सकती है. उसमें शारीरिक हानि की आशंका प्रबल है.
या अगर मूर्ख ‘अंधेर नगरी’ के राज परिवार का सदस्य हो तो विधिसम्मत हानि पहुंचाई जा सकती है. क्या यह इसलिए कि मूर्ख मूर्ख दिखना नहीं चाहता? या उसकी मूर्खता की याद उसे दिलाएं, यह उसे नागवार गुजरता है? क्या वह अचेत मूर्ख है या सजग मूर्ख है? क्या इसी परिवार की कहावत यह है कि सोए को जगा सकते हैं, जागे को नहीं? लेकिन यह तय है कि मूर्ख यदि लाठीधारी है तो उससे एक बांस दूर रहने में भलाई है.
अभी तमिल फिल्म निर्देशक लीना मणिमेखलाई की फिल्म के एक प्रचार-पोस्टर के बाद जो भाषाई और क़ानूनी खूंरेजी चल रही है, उसे देखते हुए ये हिदायतें याद आईं. निर्देशक ने कल्पना के उत्साह के अतिरेक में अपनी फिल्म का पोस्टर जारी किया जिसमें वे खुद ही देवी काली का रूप धरे नज़र आ रही हैं. मज़े से सिगरेट पी रही है और उनके साथ है एलजीबीटीक्यू+ समुदाय का सतरंगा ध्वज. यह पोस्टर उन्होंने ‘काली’ नामक अपनी डॉक्यूमेंट्री फिल्म के कनाडा में पहले प्रदर्शन के पहले जारी किया.
कहना गलत होगा कि लीना को इसका अंदाज न रहा होगा कि इसके बाद क्या होगा. एक जो नई सतत जाग्रत ऑनलाइन हिंदू वाहिनी पिछले 8-10 साल में निर्मित हुई है, वह फौरन लीना पर टूट पड़ी. काली और सिगरेट? वह तो भला हो कि वे भारत से दूर हैं वरना अब तक ज़ुबैर की तरह जेल में फेंक दी गई होतीं लेकिन दूरस्थ शिक्षा की तरह दूरस्थ गाली गलौज, बलात्कार, हत्या, उसमें भी गला काट लेने धमकी- सब उन तक पहुंच चुकी है.
गालियां देने का काम शील, चरित्र और संस्कार का दम भरने वाले ही करते हैं. निशाना औरत हो तो उससे बलात्कार की कल्पना और पुरुष हो तो उसके परिवार की औरतों से बलात्कार की कुत्सा का आनंद तो इस वाहिनी के सदस्य इस बहाने हासिल कर लेना चाहते हैं. चूंकि ट्विटर को पूरी दुनिया देख-पढ़ सकती है, उसे पारंपरिक भारतीय संस्कार का दैनिक परिचय मिलता रहता है. इससे भारत के गौरव की पताका इतनी ऊंची होती जा रही है कि पृथ्वी के किसी भी कोने में आप उसकी ज्वाला से बच नहीं सकते.
फिर कनाडा भी कौन सा सुरक्षित है? वहां भी इस वाहिनी के सैनिक सक्रिय हैं. जैसे अमेरिका और यूरोप में. लीना पर भारत में जगह-जगह एफआईआर हो चुकी है. भारत सरकार ने एक आधिकारिक प्रतिक्रिया भी दे दी है. कनाडा के भारतीय उच्चायुक्त के पत्र के द्वारा, जिसमें इस पोस्टर और फिल्म से हिंदू भावनाओं के आहत होने के कारण इस पर कार्रवाई का अनुरोध किया गया है.
ट्विटर ने भी इसके बाद वह पोस्टर हटा दिया है. कम से कम भारत में तो वह नहीं ही दिखाई पड़ेगा! हो सकता है भारत सरकार कनाडा की सरकार को कहे कि वह उनकी मुजरिम को उसके हवाले करे. कनाडा भारत में नहीं है वरना कई राज्यों की पुलिस अब तक लीना की मुश्कें बांधकर उन्हें अदालत एक सामने पटक चुकी होती जो बिना निगाह उठाए उन्हें कम से काम 14 दिन की हिरासत में भेज चुकी होती.
अगर वह पोस्टर नहीं होगा तो उन भावनाओं का क्या होगा तो आहत होने के लिए ही बनाई गई हैं. वे भावनाएं हिंदू हैं या हिंदुत्ववादी हैं? एक होती है भावना और एक आहत भावना? यह किस श्रेणी की है?
क्या यह भावना वही है जो एक मुसलमान दुकानदार द्वारा एक रद्दी अखबार में मुर्गा लपेटकर देने पर आहत हो गई क्योंकि मुर्गा लेकर जब अखबार फेंकने को हुई तो देखा उसमें हिंदू देवी-देवता की तस्वीर थी? तो क्या उस मूर्ख दुकानदार ने उस श्रद्धालु को देखकर उसकी भावना को चोट पहुंचाने के लिए अखबार एक उसी टुकड़े में मुर्गा लपेट दिया जिसमें देवी-देवता की तस्वीर छपी थी?
सच हमें पता है. हम अपने देवी-देवताओं की छवियों के व्यावहारिक इस्तेमाल खुद करते आए है. जैसे दफ्तरों में सीढ़ियों पर लोग न थूकें इसके लिए उनकी तस्वीरें चिपका देना. वह दीवार में नीचे की जगह पर. उस समय तो हम नहीं सोचते कि क्या यह इस्तेमाल सही है. क्या देवी देवताओं को अपने पांव के क़रीब की जगह देनी चाहिए? लेकिन अब वह प्रश्न नहीं रह गया है.
इधर कई अनुष्ठान देखे जिनमें ब्राह्मण देवता तो भूमि पर हैं लेकिन उनका यजमान ऊंची कुर्सी पर विराजमान है. जो दान-दक्षिणा दे, उसी का स्थान ऊपर होना चाहिए.
इन उदाहरणों को जानें दें. कोई चाहे तो कह सकता है वे हमारे देवी-देवता हैं, हम उनके साथ जो चाहें करें! पुरोहित यजमान के बीच का मामला है, आप क्यों ख़ैरख़्वाही कर रहे हैं? आप कौन होते हैं इस पर सवाल करने वाले?
लीना पर हमले के बाद उन्होंने कहा कि काली कोई हिंदू देवी नहीं हैं. उनका स्रोत आदिवासी है. वे उत्तर भारत की भी नहीं. उनकी काली दलितों, आदिवासियों की देवी हैं, उनके दुख-सुख में शामिल होती हैं. वे जो खाते-पीते हैं, वे भी उसी का भोग लगा लेती हैं. उनके ज़्यादा नख़रे नहीं हैं.
लेकिन हिंदुओं का कहना है कि वे उनकी देवी हैं. वे पूज्य हैं. जो उत्तर भारतीय हिंदुओं की पूजनीय हैं वे मांस-मदिरा का सेवन नहीं कर सकतीं. इसका लाभ नहीं कि उन्हें शक्ति परंपरा, बलि आदि की याद दिलाई जाए.
कहा जाता है कि मनुष्य अपनी छवि में अपने देवताओं को गढ़ता है. अज्ञेय ने लिखा है कि अगर आदमी की शक्ल घोड़े की होती तो उसके देवता भी अश्वमुख होते. इसलिए यदि वह शाकाहारी है तो उसके आराध्य को भी शाकाहारी होना होगा.
यह शाकाहारी हिंदू ही सबसे अधिक हिंदुत्ववाद के प्रभाव में है. इसे बर्दाश्त नहीं कि उससे अलग क़िस्म के हिंदू मुखर हों. अगर वे हैं तो बस! रहें, यह न बताएं कि हिंदू और भी हैं.
सारे देवताओं को भी अपना शाकाहारीकरण करना होगा और दूषित आदतें छोड़नी होंगी. क्या वे पहले मांस, मदिरा, गांजा, धतूरा के व्यसनी थे? अब नए हिंदू राष्ट्र में इन्हें नशा मुक्ति अभियान में शामिल होकर खुद को शुद्ध करना होगा. इसलिए लीना जैसी कलाकारों का तर्क नहीं चलेगा कि उनकी काली को तंबाकू, शराब से परहेज़ नहीं. महुआ मोइत्रा का तर्क भी स्वीकार न होगा कि काल भैरव को तो सुरा चढ़ाई जाती है.
मैं देवघर के पंडा समाज का ही हूं. पंडे मांसविहीन जीवन की कल्पना से बेहतर समझेंगे प्राण त्याग देना. लेकिन जब उनमें से भी बहुसंख्य जन को इसी ‘शाकाहारी’ हिंसा की राजनीति का समर्थन करते देखता हूं तो समझ पाता हूं कि बात वास्तविक आस्था की है ही नहीं.
कोई आस्था नहीं जो चोटिल हो रही हो. जो दुर्गा शप्तशती का पाठ करता हो उसे देवी के मधुपान की याद कैसे न होगी? क्या अब इसे भी संपादित कर दिया जाएगा? या मधु का अर्थ ही मात्र शहद रह जाएगा?
शाकाहार और ‘सात्विक’ व्यवहार एक झूठ और पाखंड है. इसलिए महुआ मोइत्रा की आपत्ति निरर्थक है. एक संकीर्ण उत्तर भारतीय भाषा पूरे भारत पर क़ब्ज़ा करना चाहती है. उसकी योग्यता सिर्फ़ उसकी जनसंख्या है.
इस संख्या बल के चलते ही उसने केरल के लोगों को वामन जयंती मनाने को कहने की हिमाक़त की. इसी संख्या के कारण उसने बंगाल जाकर नारा लगाया: नो दुर्गा, नो काली, ओन्ली राम ऐंड बजरंगबली.’
मैथिलों, बंगालियों को मछली, मांस के लिए लज्जित किया जा रहा है. मुसलमान हंता हिंदुत्व शाकाहारी है. फिर वे मांसाहारी हों तो संदिग्ध ठहरे!
लीना पर आरोप है कि उन्होंने चिढ़ाने के लिए वैसा पोस्टर बनाया! अगर वैसा किया होता तो शिकायत की बात होती. पोस्टर में किसी को चुनौती नहीं है. किसी को वह संबोधित नहीं. देखकर ही मालूम होता है कि वह अभिनेत्री है जिसने देवी का रूप धरा है. यह काली उत्तर भारतीयों की काली नहीं, द्रविड़ क्षेत्र की कल्पना है. वह भी त्यक्त, तिक्त समाज की मित्र देवी हैं. वे देवताओं की तरफ़ से असुर संहार की साधन नहीं. स्वयंसिद्धा हैं.
क्रोध इस स्वायत्तता की घोषणा पर है. इजाज़त स्वयंसेवक होने भर की है, स्वयंसिद्ध होने की नहीं.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)