आदिवासियों पर लगे ‘माओवादी’ होने के ठप्पे और केस ​हटाए जाएं: झारखंड जनाधिकार महासभा

झारखंड जनाधिकार महासभा द्वारा अगस्त 2021 से जनवरी 2022 के बीच बोकारो ज़िले के गोमिया और नवाडीह प्रखंड के 31 ऐसे आदिवासियों पर सर्वे किया गया जो कि माओवाद संबंधित मामलों में आरोपी हैं. सर्वे में सामने आया कि सालों से विचाराधीन रहने के बाद एक-एक करके पीड़ित आरोप-मुक्त हो रहे हैं, लेकिन केस के कारण पीड़ित परिवार क़र्ज़ में डूब गए हैं और बच्चों की पढ़ाई छूट गई है.

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Members of Jharkhand Janadhikar Mahasabha during the release of the survey of 'false' cases against Adivasis in Bokaro district, Jharkhand, on July 5, 2022. Photo: By arrangement.

झारखंड जनाधिकार महासभा द्वारा अगस्त 2021 से जनवरी 2022 के बीच बोकारो ज़िले के गोमिया और नवाडीह प्रखंड के 31 ऐसे आदिवासियों पर सर्वे किया गया, जो कि माओवाद संबंधित मामलों में आरोपी हैं. सर्वे में सामने आया कि सालों से विचाराधीन रहने के बाद एक-एक करके पीड़ित आरोप-मुक्त हो रहे हैं, लेकिन केस के कारण पीड़ित परिवार क़र्ज़ में डूब गए हैं और बच्चों की पढ़ाई छूट गई है.

झारखंड के बोकारो जिले में 5 जुलाई को सर्वे रिपोर्ट जारी करते झारखंड जनाधिकार महासभा का सदस्य. (फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)

नई दिल्ली: झारखंड जनाधिकार महासभा ने झारखंड के बोकारो जिले के गोमिया और नवाडीह प्रखंड में 31 आदिवासी-मूल निवासी व्यक्तियों के खिलाफ दर्ज मामलों और उनके ऊपर लगे ‘माओवादी’ होने के ठप्पे को वापस लेने की मांग की है.

बीते 5 जुलाई को की गई एक पत्रकार वार्ता के दौरान महासभा ने एक रिपोर्ट जारी की है, जो कि उक्त 31 व्यक्तियों पर किए गए सर्वेक्षण पर आधारित है, जिनके बारे में इसमें कहा गया है कि उन पर गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के कठोर प्रावधानों और भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं के तहत झूठे मुकदमे लगाए गए हैं.

महासभा ने यह सर्वे अगस्त 2021 से जनवरी 2022 के बीच किया था, जिसमें उसे बोकारो के आदिवासी-मूल निवासी अधिकार मंच, बगईचा के आदिवासी विमेंस नेटवर्क आदि का सहयोग मिला.

सर्वे का मुख्य उद्देश्य पीड़ितों की स्थिति को समझना, गलत आरोपों में फंसने की प्रक्रिया को समझना एवं पीड़ितों व उनके परिवारों पर इसके प्रभावों को समझना था.

सर्वे में शामिल सभी पीड़ितों के विरुद्ध माओवादी होने, माओवादियों को सहयोग करने या माओवादी घटनाओं में शामिल होने के आरोप थे.

रिपोर्ट में कहा गया है कि सभी 31 लोगों ने स्पष्ट कहा कि उनका माओवादियों के साथ कोई रिश्ता नहीं है और न ही उनके द्वारा अंजाम दी गईं घटनाओं में कोई भूमिका है.

रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि कई पीड़ितों के गांव जंगल में हैं, जहां माओवादियों का आना-जाना होता था. वे पहले अक्सर आते थे, लेकिन अब बहुत कम आते हैं. ग्रामीणों को डर व दबाव में उन्हें खाना देना पड़ता था.

31 में से 16 व्यक्तियों के खिलाफ 2014 से पहले मामले दर्ज किए गए थे, जबकि 9 के खिलाफ 2014-2019 के बीच और 3 के खिलाफ 2019 के बाद मामले दर्ज किए गए थे.

22 पीड़ितों के आंकड़ों के अनुसार, पीड़ितों ने करीब 2 साल औसतन जेल में बिताए. कई पीड़ित तो 5 सालों से भी ज्यादा जेल में रहे हैं.

रिपोर्ट में कहा गया है कि सालों से विचाराधीन रहने के बाद एक-एक करके पीड़ित आरोप-मुक्त हो रहे हैं. 29 पीड़ितों में से 9 पूरी तरह से आरोप-मुक्त होकर बरी हो गए हैं, जबकि 20 पीड़ितों के ऊपर कम से कम एक मामला अब भी विचाराधीन है.

साथ ही, रिपोर्ट में बताया गया है कि किसी भी पीड़ित के पास कोर्ट में चल रहे मामले से संबंधित दस्तावेज नहीं हैं, जैसे कि एफआईआर कॉपी, केस डायरी या अन्य कोई दस्तावेज. सभी दस्तावेज वकीलों के पास जमा हैं. इसलिए बहुतों को तो यह जानकारी भी नहीं है कि वे कितने मामलों में आरोपित हैं.

पीड़ितों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर बात करते हुए सर्वे कहता है कि सभी की आजीविका का मुख्य स्रोत कृषि व मजदूरी है. कई परिवारों की आर्थिक स्थिति बहुत खराब है. 31 में से 18 निरक्षर हैं या न के बराबर पढ़े हैं.

रिपोर्ट में कहा गया है, ‘केस के कारण पीड़ित परिवारों की स्थिति बद हो गई है. कई परिवारों को घर के गाय-बैलों को बेचना पड़ा और अपनी ज़मीन का कुछ हिस्सा गिरवी रखना पड़ा. कई परिवारों ने अन्य ग्रामीणों व रिश्तेदारों से कर्ज लिया.’

रिपोर्ट आगे कहती है, ‘केस का प्रभाव सीधा बच्चों की पढ़ाई पर पड़ा. आर्थिक तंगी के कारण बच्चों की पढ़ाई छूट गई.’

28 पीड़ितों द्वारा अपने केस पर खर्च की गई राशि के आधार पर देखें तो हर पीड़ित को औसतन 90,000 रुपये अपने केस पर खर्च करने पड़े. जो लोग कई मामलों में आरोपी थे और कई सालों तक जेल में रहना पड़ा, उन्हें 3,00,000 रुपये तक अपने केस में खर्च करने पड़े.

रिपोर्ट में कहा गया है, ‘जब भी कोई हिंसा की घटना (माओवादी या अन्य के द्वारा) होती है, पुलिस एफआईआर में सिर्फ संदेह के आधार पर कुछ मूलनिवासी-आदिवासी निर्दोष लोगों के नाम जोड़ देती है. इसके अलावा, अगर किसी का नाम किसी घटना या केस में जुड़ जाता है, तो अगली बार जब भी उसी क्षेत्र में कोई समान घटना घटित होती है तो पुलिस फिर से एफआईआर में उसी व्यक्ति का नाम जोड़ देती है. कई बार तो पुलिस निर्दोष लोगों को दोषी बनाकर पेश कर देती है, सिर्फ इसलिए ताकि वह दिखा सके कि वह अपना काम कर रही है.’

झारखंड जनाधिकार महासभा की ओर से मांग की गई है कि पीड़ितों के खिलाफ दर्ज मामलों को अविलंब वापस लिया जाए, पीड़ितों के परिवारों के सदस्यों को नौकरी दी जाए, फर्जी मामले दर्ज करने के दोषी पुलिस अधिकारियों पर कार्रवाई हो, आदिवासियों के खिलाफ दर्ज मामलों की स्वतंत्र न्यायिक जांच हो.

महासभा की ओर से पुलिस प्रणाली में सुधार यानी पुलिस रिफॉर्म्स की मांग भी की गई है और सरकार से आग्रह किया गया है कि माओवादी विरोधी अभियानों के नाम पर आर्थिक रूप से तंग, विशेष तौर पर आदिवासियों का उत्पीड़न और शोषण न किया जाए.

साथ ही मांग की गई है कि माओवादियों को दबाव में आकर महज खाना खिलाने के चलते केवल संदेह के आधार पर निर्दोष आदिवासियों और वंचितों को किसी माओवादी या हिंसक घटना से न जोड़ा जाए.

रिपोर्ट 5 जुलाई को एल्गार परिषद मामले में हिरासत में रहे फादर स्टेन स्वामी की पहली पुण्यतिथि के मौके पर जारी की गई थी. स्वामी विचाराधीन कैदियों के मुद्दे पर संघर्षरत थे. झारखंड के आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता स्वामी की मौत मुंबई मे न्यायिक हिरासत के दौरान हो गई थी.