आज अयोध्या सीता जैसी ही अकेली है. वह नहीं समझ पा रही कि इस उदासी का गिला किससे और कैसे करे? बुधवार की जगर-मगर देखने तो सैकड़ों न्यूज़ चैनल दौड़ पड़े थे, अब उसकी उदासी को खोज-ख़बर लेने वाला कोई नहीं है.
क्या पता, यह दीयों की विडंबना है, अयोध्या की, या दोनों की! एक साथ सर्वाधिक दीये जलाने का जो कीर्तिमान अब तक हरियाणा के सिरसा स्थित डेरा सच्चा सौदा के बलात्कारी बाबा गुरमीत राम रहीम के नाम था, अब अयोध्या के बहाने उस उत्तर प्रदेश सरकार के नाम है, जिसके राजमद ने मुहब्बत की अप्रतिम निशानी ताजमहल तक को सांप्रदायिक घृणा का शिकार और ‘कलंक’ बना डाला है!
जो भी हो, इसे कोई और क्या समझे, जब वह अयोध्या भी नहीं समझ पा रही, जो गत बुधवार को कुछ घंटों के लिए उस पर थोप दी गई बेहूदा सरकारी जगर-मगर के बीच अनमनी सी इस कीर्तिमान का बनाया जाना देखती रही और अब जगर-मगर खत्म होते ही नए सिरे से उदास हो गई है.
इतनी उदास कि कई लोगों को उसकी हालत देखकर सीता का वह शाप याद आने लगा है, जो उन्होंने तब दिया था, जब उनके कहें या स्त्री जीवन के बेहद कठिन दिनों में उन्हें एकदम अकेली करके अयोध्या सिर्फ राम ही होकर रह गई थी. याद करने वाले पूछते हैं कि सीता शाप नहीं देतीं तो क्या करतीं, अयोध्या में उनकी कौन-सी दुर्गति नहीं हुई?
यकीनन, आज अयोध्या सीता जैसी ही अकेली है. उन्हीं जैसे कठिन दिनों के सामने खड़ी. इतनी विचलित कि यह भी नहीं समझ पा रही कि इस उदासी का गिला किससे और कैसे करे? बुधवार की जगर-मगर देखने तो सैकड़ों न्यूज चैनल दौड़ पड़े थे, अब उसकी उदासी को खोज-खबर लेने वाला कोई एक भी नहीं है.
न्यूज चैनल तो न्यूज चैनल, अखबारों को भी उसके गिले-शिकवों में अब कोई रुचि नहीं है. सो भी जब सत्ताधीशों द्वारा बताया गया है कि उसे उदास करने के प्रयासों का यह अभी पहला चरण है. ऐसे तीन चरणों के बाद तो जानें क्या-क्या सहना और देखना पड़े उसे. वैसे भी पुरानी कहावत है उसके यहां: जहं-जहं चरण पड़े ‘संतन’ के तहं-तहं बंटाधार.
अयोध्या के जिस साकेत पीजी कालेज से बुधवार को ‘नयनाभिराम’ शोभायात्रा निकाली गई, उसी में हिंदी पढ़ाने वाले वरिष्ठ कवि अनिल कुमार सिंह कहते हैं कि अभी तो उसकी उदासी लगातार बढ़नी ही बढ़नी है. क्योंकि उसके नाम पर त्रेतायुग की वापसी का स्वांग जो रचा जा रहा है, अपनी कीर्तिपताका और ऊंची करने को व्यग्र उसकी हवस का अभी ऐसे कई और कीर्तिमान बनाने का मंसूबा है.
यकीनन, यह मंसूबा वह बिना सब कुछ को अस्त-व्यस्त किए और उलटे-पलटे नहीं पूरा कर सकती. इस मंसूबे द्वारा किए गए कई उलट-पलट तो अभी से साफ दिखते हैं.
उनमें से एक यह कि इस बार अयोध्या में छोटी दीपावली बड़़ी हो गई और बड़ी दीपावली यह देखकर सिर धुनने को अभिशप्त कि भले ही छोटी दीपावली पर उसके घाटों पर जलाये गए एक लाख सतासी हजार दीयों से आस-पास के गरीबों व वंचितों के दिल इस तरह जल रहे थे कि वे उनका ज्योतित होना निहारने की हिम्मत नहीं कर पाये, या कहना चाहिए कि प्रायः उनसे डरे रहने वाले सत्ताधीशों के ‘व्यापक सुरक्षा प्रबंधों’ ने उनकी औकात इतनी ही रहने दी कि उन दीपपंक्तियों को उनके जयकारों के साथ टीवी के परदे पर देख सकें, लेकिन सुबह होते ही वंचना की आग उन्हें उन घाटों पर खींच लाई.
वहां उनके हुजूम को हवा द्वारा बुझा दिए गए दीयों में बच रहे तेल को शीशियों वगैरह में भरते देखने के लिए वाकई पत्थर का कलेजा चाहिए था! इसलिए कि वे होली खेलने के लिए महाराज के माल पर टूट पड़ने वाले मिर्जा नहीं थे.
जिस सत्ता ने घाटों पर दीये जलवाये थे, उसने उन्हें असहाय करके रख देने के बाद फिक्र नहीं की थी कि उनके घरों में दीये कैसे जलेंगे?
जब उन्हें रामराज्य का सपना, माफ कीजिएगा, सब्जबाग दिखाया जा रहा था, वे उस जूठे बासी तेल से अपनी देहरी रोशन करने का सपना देखने को विवश थे!
अब जैसी परपंरा निर्मित की जा रही है, कौन जाने कल कोई ‘भक्त’ यह दावा करने को आगे आ जाये कि सरकार द्वारा उन दीयों में ज्यादा जेल इसीलिए भरवाया गया था ताकि बेचारे वंचित गरीब सुबह आएं और उड़ेल-उड़ेल कर ले जाएं और अपने घरों को रोशन करने में लगायें.
भक्त यह भी कह सकते हैं कि तेल को गरीबों तक पहुंचाने का इससे बेहतर कोई और तरीका हो ही नहीं सकता था.
लेकिन उनके पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि घाटों पर गिराए गए तेल नेे वहां जाने वाले श्रद्धालुओं की किस्मत में जो फिसलन और गंदगी लिख दी है और जिससे वे अभी से खैर नहीं मना पा रहे, उसकी जिम्मेदारी किनकी है?
क्या संस्कृति के अपरूपों को राजनीतिक हित साधन का उपकरण बनाने वाले उन्हीं महानुभावों की नहीं, जिन्होंने अपनी देव दीपावली के दौरान उन जगहों को भी गंदी करने से परहेज नहीं किया, जहां खुद उन्हीं की सरकार ने स्वच्छता के रुपहले नारे लिखवा रखे थे!
लेकिन वे उस नारे के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह क्या करते, जब उन्हीं के कई लोग कह रहे हैं कि उन्होंने उन भगवान राम की मर्यादा भी अखंडित नहीं रखी, अपनी राजनीति चमकाने के लिए जिनके नाम का निरंतर जाप करते रहना उनका शगल है.
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ‘पुष्पक’ बने हेलीकाप्टर से अयोध्या पहुंचे राम, सीता और लक्ष्मण के स्वरूपों की आगवानी करने हेलीपैड पहुंचे तो ‘राम’ को माल्यार्पण के वक्त उनका कद छोटा पड़ गया! तब चाटुकारों ने उनकी सुविधा के लिए ‘राम’ का सिर झुकवा दिया! यह भूलकर कि इससे राम के स्वरूप की मर्यादा भंग होती है. फिर तो सब कुछ राम लीला के बजाय स्वांग होकर रह गया!
हेलीकाप्टर से पुष्पवर्षा के बीच भूखे-प्यासे बैठे स्कूली-बच्चों, कॉलेजों के छात्रों, विभिन्न सरकारी योजनाओं के लाभार्थियों और साधु-संतों के सामने मुख्यमंत्री ने अयोध्या के लिए 133 करोड़ रुपये की योजनाओं के साथ कई बड़े-बड़े ऐलान किए.
कहा कि अब अयोध्या की भावनाओं को सम्मानित और उसके सपने साकार होने से कोई नहीं रोक सकता और वह पर्यटन का अंतरराष्ट्रीय हब बनकर रहेगी.
अयोध्या पहले भी कई बार ऐसी झूठी घोषणाएं सुन चुकी है. इसलिए उत्साहित हुए बिना सोचती रही कि अभी तो वह एक अदद बस स्टेशन के लिए भी तरस रही है और उसे जो रेलवे स्टेशन मिला है, उसकी हालत यह है कि ट्रेन से उतरे किसी पर्यटक को अचानक शौचालय जाने की जरूरत महसूस होने लगे तो वह ढूढ़ता रह जाये.
वहां निःशुल्क की कौन कहे, यात्रियों को पे ऐंड यूज वाला कोई शौचालय भी मयस्सर नहीं. अगर पर्यटक महिला है तो उसे कदम-कदम पर ऐसी दुर्दशा के लिए तैयार रहना चाहिए.
यहां यह सवाल उठाना फिजूल है कि इस सरकारी दीवापली पर किसके और कितने रुपये खर्च हुए. ‘संतों’ की सरकार कह रही है कि सारे रुपये ‘संतों’ ने ही खर्च किए तो दोनों के संबंधों के मद्देनजर उसकी यह बात मान लेने में कोई हर्ज नहीं. क्योंकि इससे इस बात का भी पता चलता है कि मोहमाया से निर्लिप्त संतों के दरबार में अब किसी चीज की कमी नहीं है.
लेकिन अयोध्या की उदासी का सबब तो यह है कि जो भी रुपये खर्च हुए, उनसे उसके स्थानीय दीये बनाने वाले कुम्हारों और फूलमालायें गूंथने वाले मालियों को कोई फायदा नहीं हुआ. यहां तक कि टेंट वालों को भी नहीं. इसलिए कि सबकी व्यवस्था व आपूर्ति में ‘कॉरपोरेट संस्कृति’ हावी रही.
इस सिलसिले में एक शिकायत यह भी है कि प्रदेश के पर्यटन व संस्कृति मंत्रालय ने इससे जुड़े ढेर सारे काम टेंडर निकाले बगैर वर्क आर्डर के आधार पर कराये ताकि आगे-पीछे मुकेरने या ढकने-तोपने की गुंजायश बनी रहे.
इस सारे हड़बोंग के बीच अयोध्या व उसके जुड़वां शहर फैजाबाद के बाजारों में अव्यवस्था के साथ पसरे सन्नाटे से अंततः वे व्यापारी भी निराश ही हुए, जिनके लिए दीपावली धनतेरस से ही शुरू हो जाती है और अतिरिक्त कमाई का अवसर होती है.
रही सही कसर सरकारी दीपावली से ऐन पहले धनतेरस के दिन, जब सरयू का बह गया पानी तक वापस लाने में असमर्थ प्रशासन अयोध्या में त्रेतायुग वापस ला रहा था, फैजाबाद के हृदयस्थल चौक में सरेशाम हुई युवा व्यापारी की हत्या ने पूरी कर दी. इस खूरेंजी के बीच जश्न मनाकर अयोध्या खुश होती भी तो कैसे?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और फैज़ाबाद में रहते हैं)