यूपी: दक्षिणपंथियों की शिकायत के बाद एएमयू ने पाठ्यक्रम से दो इस्लामी विद्वानों के विचार हटाए

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ने बीसवीं सदी के दो प्रमुख इस्लामी विद्वानों- अबुल आला मौदूदी और सैयद क़ुतुब के विचार पाठ्यक्रम से हटाए जाने पर कहा कि ऐसा किसी भी तरह के अनावश्यक विवाद से बचने के लिए किया गया है. इससे पहले दक्षिणपंथी विचारधारा के 20 से अधिक स्कॉलर्स ने इन विद्वानों के विचारों को आपत्तिजनक क़रार देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखा था.

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अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (फाइल फोटो: पीटीआई)

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ने बीसवीं सदी के दो प्रमुख इस्लामी विद्वानों- अबुल आला मौदूदी और सैयद क़ुतुब के विचार पाठ्यक्रम से हटाए जाने पर कहा कि ऐसा किसी भी तरह के अनावश्यक विवाद से बचने के लिए किया गया है. इससे पहले दक्षिणपंथी विचारधारा के 20 से अधिक स्कॉलर्स ने इन विद्वानों के विचारों को आपत्तिजनक क़रार देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखा था.

अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (फोटो: पीटीआई)

अलीगढ़: अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) ने बीसवीं सदी के दो प्रमुख इस्लामी विद्वानों अबुल आला मौदूदी और सैयद कुतुब के विचारों को पाठ्यक्रम से हटाए जाने को लेकर उठे विवाद पर सफाई पेश की है.

विश्वविद्यालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि एएमयू ने यह कदम किसी भी तरह के अनावश्यक विवाद से बचने के लिए उठाया है.

ज्ञातव्य है कि दक्षिणपंथी विचारधारा के 20 से ज्यादा विद्वानों ने एएमयू में इस्लामी विद्वानों अबुल आला मौदूदी और सैयद कुतुब के विचारों को आपत्तिजनक करार देते हुए इस सिलसिले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कथित रूप से पत्र लिखा था.

अधिकारी ने बुधवार को बताया, ‘हमने इस विषय पर किसी औरअनावश्यक विवाद से बचने के लिए यह कदम उठाया है क्योंकि कुछ स्कॉलर्स ने इन विचारों की आलोचना की है और उन्होंने प्रधानमंत्री से शिकायत करते हुए इन दो लेखकों के विचार को आपत्तिजनक सामग्री के रूप में वर्णित किया है.’

एएमयू के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, ‘हमने इस मामले पर उठे विवाद को और आगे बढ़ने से रोकने के लिए यह कदम उठाया है. इसे शैक्षणिक स्वतंत्रता के अतिक्रमण के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए.’

गौरतलब है कि अबुल आला मौदूदी (1903-1979) एक भारतीय इस्लामी विद्वान थे जो हिंदुस्तान के बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले गए थे. वह जमात-ए-इस्लामी नामक एक प्रमुख मुस्लिम धार्मिक संगठन के संस्थापक भी थे. उनकी कृतियों में ‘तफहीम उल कुरान’ भी शामिल है. मौदूदी ने वर्ष 1926 में दारुल उलूम देवबंद से स्नातक की डिग्री हासिल की थी. वह धार्मिक बहुलतावाद के पैरोकार थे.

एक अन्य इस्लामी विद्वान सैयद कुतुब जिनके विचारों को भी एएमयू के पाठ्यक्रम से हटाया गया है, वह मिस्र के रहने वाले थे और इस्लामी कट्टरपंथी विचारधारा के पैरोकार थे. वह इस्लामिक ब्रदरहुड नामक संगठन के प्रमुख सदस्य भी रहे.

उन्हें मिस्र के तत्कालीन राष्ट्रपति गमल अब्दुल नासिर का विरोध करने पर जेल भी भेजा गया था. कुतुब ने एक दर्जन से ज्यादा रचनाएं लिखी. उनकी सबसे मशहूर कृति ‘फी जिलाल अल कुरान’ थी जो कुरान पर आधारित है.

एएमयू के प्रवक्ता उमर पीरजादा ने कहा कि इन दोनों इस्लामी विद्वानों की कृतियां विश्वविद्यालय के वैकल्पिक पाठ्यक्रमों का हिस्सा थी, इस वजह से उन्हें हटाने से पहले एकेडमिक काउंसिल में इस पर विचार-विमर्श करने की प्रक्रिया अपनाने की ‘कोई जरूरत नहीं’ थी.

समाचार एजेंसी एएनआई के मुताबिक, सनातन धर्म को पाठ्यक्रम में शामिल करने के संबंध में उमर सलीम पीरजादा ने कहा, ‘एएमयू एक समावेशी विश्वविद्यालय है, सभी धर्मों के छात्र यहां आते हैं. इस प्रकार हमने एमए में इस्लामी अध्ययन विभाग में एक ‘सनातन धर्म अध्ययन’ पाठ्यक्रम शुरू किया है.’

इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, 25 शिक्षाविदों द्वारा लिखे गए खुले पत्र का शीर्षक ‘अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया इस्लामिया और जामिया हमदर्द जैसे सरकार द्वारा वित्त पोषित संस्थानों में छात्रों को भारत-विरोधी/राष्ट्र-विरोधी पाठ्यक्रम के माध्यम से प्रेरित करना’ था.

इसमें लिखा था, ‘हम आपके ध्यान में लाना चाहते हैं कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया इस्लामिया और जामिया हमदर्द विश्वविद्यालय जैसे सरकार द्वारा वित्त पोषित इस्लामी विश्वविद्यालयों के कुछ विभागों द्वारा बेशर्मी से जिहादी इस्लामी पाठ्यक्रम का पालन किया जा रहा है.’

खुले पत्र में कहा गया था कि यह गहरी चिंता का विषय है कि अबुल आला मौदूदी का लेखन तीन विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम का हिस्सा है. हस्ताक्षरकर्ताओं में नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी की सीनियर फेलो मधु किश्वर भी शामिल हैं.

इस अख़बार के अनुसार, एएमयू के जनसंपर्क अधिकारी शफी किदवई ने दो विद्वानों की शिक्षाओं को पाठ्यक्रम से हटाने की पुष्टि की है.

उन्होंने कहा, ‘दो विद्वानों की शिक्षाओं को पाठ्यक्रम से हटा दिया जाएगा. इसके लिए प्रक्रिया का पालन किया जाएगा. विश्वविद्यालय में किसी भी विवाद से बचने के लिए पाठ्यक्रम से भागों को हटाने का निर्णय लिया गया. इतने सालों में परिस्थितियां बदल गई हैं. जो बरसों पहले पढ़ाने लायक समझा जाता था, वह अब पढ़ाने लायक नहीं समझा जाता.’

किदवई ने आगे कहा, ‘हां, कुछ शिकायतें उठाई गई थीं. मुझे नहीं पता कि किसने शिकायत की, लेकिन हां, कुछ लोगों ने यह मुद्दा उठाया और विभाग ने इसे हटाने का फैसला किया.’

वहीं, नाम न छापने के शर्त पर विभाग के एक प्रोफेसर ने कहा, ‘हमें विश्वविद्यालय के उच्च अधिकारियों द्वारा इन दो विद्वानों को इस्लामिक अध्ययन विभाग के पाठ्यक्रम से हटाने के लिए कहा गया था. हमें बताया गया कि विश्वविद्यालय ने विवाद से बचने के लिए यह फैसला लिया है.’

प्रोफेसर ने कहा, ‘हमें विश्वविद्यालय के अधिकारियों द्वारा यह नहीं बताया गया है कि जो पढ़ाया जा रहा था उसका कौन-सा हिस्सा आपत्तिजनक या राष्ट्र-विरोधी था. हमें बस इन दो लेखकों की शिक्षाओं को हटाने के लिए कहा गया है.’

विश्वविद्यालय के एक कर्मचारी ने बताया कि इन दोनों लेखकों को इस्लामी अध्ययन विभाग के पोस्टग्रेजुएशन कोर्स में वैकल्पिक पेपर के रूप में पढ़ाया जा रहा था.

अधिकारी ने कहा, ‘इन दो लेखकों को कम से कम कुछ दशकों से पढ़ाया जा रहा था. वैकल्पिक पेपरों में विभाग दोनों लेखकों के विचार और शिक्षाओं को पढ़ाता था. इसमें उनकी धार्मिक शिक्षाओं से लेकर राजनीतिक विचार भी शामिल थे.’

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)