हम इन दिनों अधिकता के प्रकोप के मारे हुए हैं

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हम निस्संदेह अधिकता के समय में जी रहे हैं. चीज़ें बहुत अधिक हो गई हैं और उनके दाम भी. महंगाई बढ़ रही है, विषमता भी. हत्या, बलात्कार, हिंसा आदि में बढ़ोतरी हुई है. पुलिस द्वारा जेल में डाले गए और सुनवाई न होने के मामले भी बढ़े हैं. न्याय व्यवस्था में सर्वोच्च स्तर पर सत्ता के प्रति भक्ति और आसक्ति बढ़ी है. 

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हम निस्संदेह अधिकता के समय में जी रहे हैं. चीज़ें बहुत अधिक हो गई हैं और उनके दाम भी. महंगाई बढ़ रही है, विषमता भी. हत्या, बलात्कार, हिंसा आदि में बढ़ोतरी हुई है. पुलिस द्वारा जेल में डाले गए और सुनवाई न होने के मामले भी बढ़े हैं. न्याय व्यवस्था में सर्वोच्च स्तर पर सत्ता के प्रति भक्ति और आसक्ति बढ़ी है.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

संविधान सम्मत होने के बारे में आज की स्थिति का बहुविधि विवेचन ‘हंस’ की वार्षिक गोष्ठी में प्रेमचंद जयंती पर हुआ. कई महत्वपूर्ण तथ्य और स्थापनाएं सामने आईं. एक यह कि हमारा संविधान लंबी प्रक्रिया और विचार-विमर्श की परिणति था और यह प्रक्रिया 19वीं सदी के अंत के नज़दीक संभवतः तिलक द्वारा लिखित अधिकार-पत्र से शुरू होती है.

संविधान के इर्दगिर्द तीन मुख्य कल्पनाशीलताएं थीं: गांधी, नेहरू और आंबेडकर की. चौथी कल्पनाशीलता सावरकर की संविधान में नहीं लेकिन उसके बाहर सक्रिय रही. एक वक्ता, जो नए निज़ाम के भक्त प्रवक्ता हैं, ने जब यह कहा कि सबसे संविधान सम्मत प्रधानमंत्री इस समय पदासीन हैं, तो इसे भरे सभागार ने सिरे से खारिज कर दिया.

मैं सोचने लगा कि इस समय या किसी भी समय संविधान सम्मत होने का अर्थ उसके तीन बुनियादी मूल्यों स्वतंत्रता-समता-न्याय से सम्मत होने का ही हो सकता है. यह निरा संयोग नहीं है कि साहित्य में भी ये मूल पिछले सत्तर वर्षों में केंद्रीय रहे हैं.

इस दौरान लिखे गए साहित्य का मुख्य रूप से व्यवस्था-विरोधी होना इन्हीं मूल्यों का एक तरह से, सत्यापन है. ये मूल्य हमेशा ही वस्तुस्थिति से, सत्ता और समाज से दबाए जाने का तनाव उठाते रहे हैं और इस तनाव के बहुत से अक्स समवर्ती साहित्य में मिल जाएंगे. इस दौरान साहित्य अपने को, परिस्थिति को, अनेक व्यवस्थाओं को इसी मूल्यत्रयी के आधार पर समझता, देखता-परखता रहा है. उसकी गति एकतान नहीं रही है और उसमें विपथगामिता भी रही है.

दलित और स्त्री विमर्श, आदिवासियों की देर से दृश्य पर आई अभिव्यक्ति इन मूल्यों का भी विस्तार हैं, स्वयं साहित्य के लोकतंत्र के विस्तार के साथ-साथ. संभवतः रचनात्मक उत्कृष्टता की कुछ हानि हुई है पर इसमें संदेह नहीं किया जा सकता कि हमारा साहित्य आज पहले की अपेक्षा अधिक लोकतांत्रिक है.

इस अंतर्विरोध को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि इस दौरान उन वृत्तियों ने, जिन्होंने प्रगतिशील या जनधर्मी होने के दावे किए हैं, संगठनात्मक रूप से उनसे असहमत वृत्तियों का निषेध किया है जो साहित्य के लोकतंत्र को संकुचित करता है.

इस समय संविधान का सबसे बड़ा और लगभग अभूतपूर्व संकट यह है कि संवैधानिक प्रक्रियाओं और संस्थाओं का उपयोग संविधान की आत्मा को विखंडित करने के लिए किया जा रहा है. अब तो न्यायालय भी, कुल मिलाकर, संविधान के रखवाले होने से लगातार विचलित हो रहे हैं.

ऐसे में, जैसा कि ‘हंस’ की सभा में भी कहा गया, स्वयं व्यापक नागरिकता को ही संविधान को बचाने और सामाजिक-राजनीतिक वृत्तियों को संविधान सम्मत बनाने के लिए सक्रिय-आंदोलित-प्रतिरोधक होना पड़ेगा. साहित्य को शायद इस सजग-सक्रिय नागरिकता की रचना और उद्वेलन में एक तरह से नई भूमिका निभानी पड़ेगी.

शायद यह भूमिका नागरिकों के रूप में लेखकों की होगी. इसके लिए लेखक-समाज तैयार है ऐसा बहुत साफ़ नज़र नहीं आता. ऐसा न हो कि जब स्वतंत्रता-समता-न्याय को हमारी सबसे अधिक ज़रूरत है, हम उदासीन और निष्क्रिय हो बैठें.

नया क्या है?

‘नया’ साहित्य और कलाओं में अपेक्षाकृत आधुनिक रूढ़ि है. अपना इस अर्थ में औचित्य सिद्ध करने के लिए कुछ वृत्तियों या आंदोलनों ने अपने नाम ही ‘नई कविता’, ‘नई कहानी’, ‘नई आलोचना’ आदि रखे. आधुनिकता भी अब तक एक रूढ़ि बन गई है, उत्तर आधुनिकता के दौर के बाद. कुछ इस तरह की धारणा व्यापक हो गई है कि अगर आप कुछ ‘नया’ साहित्य में नहीं कर पा रहे हैं तो आपका साहित्य पिछड़ा-बासा माना जायेगा.

हमारी परंपरा में इसका विचार न हुआ हो यह नहीं है. स्वयं कालिदास ने कहा कि पुराना हर समय अच्छा नहीं है और नए में सब कुछ ख़राब नहीं है. 10वीं सदी में उदयनाचार्य ने अपने नव्य न्याय को कश्मीर शैव न्याय से अलग करते हुए गर्वोक्ति की: ‘ते प्राचीनाः, वयं आधुनिकाः’.

अलग-अलग वृत्तियां अपने समय में आधुनिक ही मानी गई हैं जैसे भक्ति काव्य, रीति काव्य, छायावाद, प्रयोगवाद, नई कविता, नई कहानी आदि. दूसरी ओर, हमारे सौंदर्यशास्त्र में स्थायी भाव की कल्पना है और चूंकि वे मनुष्य के स्वभाव की सनातन वृत्तियां हैं, अपरिवर्तनीय हैं.

तीसरी ओर यह भी सही है कि परंपरा परिवर्तन से ही पुनर्नवा और जीवंत होती है: ऐसा हमारी सृजन और विचार की परंपरा में होता आया है. अगर ‘दूसरा सप्तक’ से नई कविता की शुरूआत मानें तो इस वर्ष उसके सत्तर वर्ष पूरे हो रहे हैं. इसका अर्थ यह है कि अब नई कविता परंपरा का हिस्सा हो गई है और स्वयं उसकी एक परंपरा बन गई है जिसमें बारी-बारी से नए उन्मेष होते रहे हैं.

इधर की कविता को देखें तो यह स्पष्ट होगा कि इस बीच तीन नए क्षेत्र उभरे हैं: दलित, स्त्री और आदिवासी. तीनों ने ही साहित्य के लोकतंत्र में, स्वतंत्रता-समता-न्याय में अभूतपूर्व विस्तार किया है. कविता की महानगरीय केंद्रीयता अपदस्थ हुई और अब कवि अनेक अप्रत्याशित जगहों से, गांवों-कस्बों-छोटे शहरों से बड़ी संख्या में आ रहे हैं. कुछ तो यह टेक्नोलॉजी के कारण हुआ है पर उससे अधिक लोकतांत्रिक सशक्तीकरण की वजह से.

इस कविता में नए बिंब, नए अभिप्राय और आशय, नई छबियां, नई स्थानीयता, नए मुहावरे और भाषा हैं. ऐसे बिंबों-छवियों-अनुभवों-शब्दों की संख्या बड़ी है जो हिन्दी कविता और भाषा में लगभग पहली बार दाखि़ल हो रहे हैं. अभिधा को, एक नए क़िस्म के प्रश्नांकन से, जो सवर्णता-जातिजकड़न-पुरुष-वर्चस्व आदि को लेकर है, एक नई धार, तीख़ापन और प्रासंगिकता मिल रही है.

पर इस बात को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि इधर कविता में, एक ऐसे समय में जब लोकतंत्र, संविधान, सत्ता की जवाबदेही, न्याय की तलाश आदि सभी घोर संकटग्रस्त है, उसके बड़े हिस्‍से में उसमें राजनीति के प्रति उदासीनता या दकियानूसी दूरी है. कई बार उसमें आत्मप्रश्नता, आत्मलिप्ति और हिस्सेदारी का अभाव भी लगता है.

विचारदृष्टि और सौंदर्यदृष्टि में फांक हमेशा से रही है पर लगता है कि इधर वह अधिक चौड़ी हो रही है. यह भी क्‍या नया है?

अधिकता का समय

हम जिस समय में जी रहे हैं वह निस्संदेह अधिकता का समय है: शायद जब अच्छे दिनों के जल्दी ही आने की घोषणा की गई थी तो तात्पर्य इसी अधिकता से रहा होगा. अधिकता के अच्छे दिन तो आ ही गए हैं. इस समय हमारे समाज और व्यवस्था में अधिकता के कई रूप बिखरे हुए हैं. उन पर एक नज़र डालना ज़रूरी है ताकि हम पर इस अद्भुत घटना को नज़रअंदाज़ करने का लांछन न लगे.

चीज़ें बहुत अधिक हो गई हैं और उनके दाम भी बहुत अधिक. महंगाई बढ़ रही है यानी अधिक हो रही है. विषमता भी बढ़ रही है: ज़्यादा लोग ग़रीब हो गए हैं और करोड़पतियों की संख्या बढ़ गई है.

हिन्दी अंचल में केंद्र सरकार के अपने आंकड़ों के साक्ष्य के आधार पर स्पष्ट हो रहा है कि हत्या, बलात्कार, हिंसा आदि में बढ़ोतरी हुई है. यह अब जगज़ाहिर है कि पुलिस द्वारा जेल में डाले गए और सुनवाई न होने के मामले भी बढ़े हैं. न्याय व्यवस्था में सर्वोच्च स्तर पर सत्ता के प्रति भक्ति और आसक्ति बढ़ी है. नागरिक अधिकारों की रक्षा के मामले में न्यायालय तेज़ी से पिछड़ रहे हैं.

व्यापक रूप से मुसलमानों के विरुद्ध अत्याचार और अन्याय के मामले बढ़े हैं. आदिवासियों और दलितों के विरुद्ध हिंसा और हत्या के मामलों में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई है. मीडिया की सत्ता-भक्ति और हिंदुत्व-समर्थन इतना बढ़ा है कि कुछेक अपवाद भर बचे हैं.

संसद में स्थगन बढ़े हैं और चर्चा के दिनों-घंटों में कमी आई है. शिक्षा व्यवस्था में भक्तों की नियुक्ति अपार बढ़ी है और स्तर लगातार गिर रहा है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक लगाने की कोशिशों में बहुत इज़ाफ़ा हुआ है और छोटी-छोटी घटनाओं पर पुलिस कार्रवाई बढ़ी है.

विपक्ष के राजनेताओं पर छापों की संख्या बढ़ी है: भाजपा के सदस्यों पर कार्रवाई मंद हुई है. राजनीतिक आचरण में नीचता, अभद्रता, झगड़ालूपन आदि बढ़े हैं. सार्वजनिक घोषणाओं और वास्तविक आचरण के बीच दूरी विपर्यय में बदल गई है यानी राजनीति में पाखंड बहुत बढ़ गया है.

बेरोज़गारी पिछले चालीस वर्षों में इस समय सबसे अधिक बढ़ी है और भारत संसार की सबसे तेज़ी से विकसित अर्थव्यवस्थाओं में से एक है ऐसा दावा किया जा रहा है. इन दिनों झूठ और घृणा बहुत तेज़ी से फैलाए जा रहे हैं और झूठ को सच माननेवालों की संख्या में अपार वृद्धि हुई है इतनी कि सच अब अल्पसंख्यक हो गया है.

दूसरों को अपना मानने और प्रेम करने की इच्छा लगातार घट या घटाई जा रही है. यह सब कुछ इतना अधिक है कि अगर कम होता तो कुछ राहत मिलती. हम इन दिनों अधिकता के प्रकोप में, उसके मारे हुए हैं.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)