सुप्रीम कोर्ट की पूर्व जज सुजाता मनोहर साल 2003 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की सदस्य थीं, जब आयोग ने बिलक़ीस बानो गैंगरेप मामले में हस्तक्षेप किया था. उन्होंने कहा कि हम महिलाओं को सशक्त बनाना चाहते हैं पर उनके लिए पर्याप्त सुरक्षा सुनिश्चित नहीं करते. यह सज़ा माफ़ी उनकी सुरक्षा को लेकर सही संदेश नहीं देती है.
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट की पूर्व जज सुजाता मनोहर वर्ष 2003 में उस समय राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की सदस्य थीं, जब आयोग ने बिलकीस बानो की ओर से मामले में हस्तक्षेप किया था.
उन्होंंने बीते दिनों 2002 के गुजरात दंगों के मामले में सामूहिक बलात्कार और हत्या के 11 दोषियों को रिहा करने संबंधी गुजरात सरकार के फैसले को ‘कानून का राज कमजोर करने’ वाला करार दिया है.
पूर्व जज ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया, ‘विशेष तौर पर इस तरह के मामले में दोषियों को रिहा करने का फैसला मनमाने ढंग से नहीं लिया जा सकता है. जब अदालत ने उन्हें दोषी सिद्ध किया है और सजा सुनाई है, तो मनमाने ढंग से उन्हें रिहा करना कानून के शासन को कमजोर करता है.’
बता दें कि 15 अगस्त को गुजरात सरकार के आयोग ने अपनी क्षमा नीति के तहत 11 दोषियों की उम्र कैद की सजा को माफ कर दिया था, जिसके बाद उन्हें 16 अगस्त को गोधरा के उप कारागार से रिहा कर दिया गया था.
सोशल मीडिया पर सामने आए वीडियो में जेल से बाहर आने के बाद बलात्कार और हत्या के दोषी ठहराए गए इन लोगों का मिठाई खिलाकर स्वागत किया जा रहा है.
इसे लेकर कार्यकर्ताओं ने आक्रोश जाहिर किया था. इसके अलावा सैकड़ों महिला कार्यकर्ताओं समेत 6,000 से अधिक लोगों ने सुप्रीम कोर्ट से दोषियों की सजा माफी का निर्णय रद्द करने की अपील की है.
गौरतलब है कि 2003 में एनएचआरसी ने मामले में काफी महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किया था, जिसके चलते गुजरात पुलिस द्वारा केस बंद किए जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट जाने में बानो को कानून सहायता मिल सकी थी.
मार्च 2002 में गोधरा के एक राहत शिविर में जब मानवाधिकार आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष दौरा करने गए थे, तब आयोग बिलकीस से भी मिला था. जस्टिस मनोहर तब आयोग की सदस्य थीं, जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष बिलकीस का प्रतिनिधित्व करने के लिए वरिष्ठ अधिवक्ता और पूर्व सॉलिसिटर जनरल हरीश साल्वे को नियुक्त किया था.
साल्वे ने केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) से नए सिरे से जांच कराने और बाद में मामले की सुनवाई गुजरात से मुंबई स्थानांतरित कराने के लिए बहस की थी. बानो का मामला गुजरात दंगों से संबंधित एकमात्र ऐसा मामला था, जिसकी सीबीआई ने नए सिरे से जांच की थी.
अब जस्टिस मनोहर ने कहा, ‘यह देखना बहुत दुखद है कि मामले ने यह मोड़ ले लिया. हम महिलाओं को सशक्त बनाना चाहते हैं लेकिन हम उनके लिए पर्याप्त सुरक्षा सुनिश्चित नहीं करते हैं. यह सजा माफी महिलाओं की सुरक्षा को लेकर सही संदेश नहीं देती है.’
गौरतलब है कि 27 फरवरी, 2002 को साबरमती एक्सप्रेस के डिब्बे में आग लगने की घटना में 59 कारसेवकों की मौत हो गई. इसके बाद पूरे गुजरात में दंगे भड़क गए थे. दंगों से बचने के लिए बिलकीस बानो, जो उस समय पांच महीने की गर्भवती थी, अपनी बच्ची और परिवार के 15 अन्य लोगों के साथ अपने गांव से भाग गई थीं.
तीन मार्च 2002 को वे दाहोद जिले की लिमखेड़ा तालुका में जहां वे सब छिपे थे, वहां 20-30 लोगों की भीड़ ने बिलकीस के परिवार पर हमला किया था. यहां बिलकीस बानो के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया, जबकि उनकी बच्ची समेत परिवार के सात सदस्य मारे गए थे.
बिलकीस द्वारा मामले को लेकर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में पहुंचने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई जांच के आदेश दिए थे. मामले के आरोपियों को 2004 में गिरफ्तार किया गया था.
मामले की सुनवाई अहमदाबाद में शुरू हुई थी, लेकिन बिलकीस बानो ने आशंका जताई थी कि गवाहों को नुकसान पहुंचाया जा सकता है, साथ ही सीबीआई द्वारा एकत्र सबूतों से छेड़छाड़ हो सकती, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने अगस्त 2004 में मामले को मुंबई स्थानांतरित कर दिया.
21 जनवरी 2008 को सीबीआई की विशेष अदालत ने बिलकीस बानो से सामूहिक बलात्कार और उनके सात परिजनों की हत्या का दोषी पाते हुए 11 आरोपियों को उम्रकैद की सजा सुनाई थी. उन्हें भारतीय दंड संहिता के तहत एक गर्भवती महिला से बलात्कार की साजिश रचने, हत्या और गैरकानूनी रूप से इकट्ठा होने के आरोप में दोषी ठहराया गया था.
सीबीआई की विशेष अदालत ने सात अन्य आरोपियों को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया. एक आरोपी की सुनवाई के दौरान मौत हो गई थी.
इसके बाद 2018 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने आरोपी व्यक्तियों की दोषसिद्धि बरकरार रखते हुए सात लोगों को बरी करने के निर्णय को पलट दिया था. अप्रैल 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार को बिलकीस बानो को 50 लाख रुपये का मुआवजा, सरकारी नौकरी और आवास देने का आदेश दिया था.