स्मृति शेष: नैयरा नूर ग़ालिब और मोमिन जैसे उस्ताद शायरों के कलाम के अलावा ख़ास तौर पर फ़ैज़ साहब और नासिर काज़मी जैसे शायरों की शायरी में जब ‘सुकून’ की बात करती हैं तो अंदाज़ा होता है कि वो महज़ गायिका नहीं थीं, बल्कि शायरी के मर्म को भी जानती-समझती थीं.
ग़ज़ल-गायकी ख़ास तौर पर फ़ैज़-गोई की कोई हालिया अतीत-कथा कहनी हो तो मैं उसमें नैयरा नूर का नाम सबसे पहले लूंगा.
शायद इसलिए जब नूर ने दुनिया को अलविदा कहा तो यूं महसूस हुआ जैसे फ़ैज़ साहब की शायरी ने चुप की कोई ‘तान’ ली हो.
क़िस्सा ये कि हम जिसकी आवाज़ में गुम थे, वो अब अपनी आवाज़ में चुप है…
फ़ैज़ साहब के हवाले से मैं उनकी गायकी को फ़ैज़-गोई, आप चाहें तो इसे एक तरह का सस्वर-पाठ समझें; इसलिए कह रहा हूं कि फ़ैज़ के कलाम में जो काव्य-संगीत है वो हू-ब-हू नूर की गायकी में सुनाई पड़ता है, कहीं कोई लफ़्ज़ या एहसास दबता हुआ और छूटता हुआ नहीं जान पड़ता.
मेरे ख़याल में ग़ज़ल गायकी में किसी भी कलाकार के लिए ये सबसे बड़ी उपलब्धि है.
बहरहाल, यहां नूर और उनकी गायकी से आबाद अपने चंद एक लम्हे की कुरेद में जाऊं और उसकी कहानी लिखूं, उससे पहले ये स्वीकारोक्ति ज़रूरी है कि बहुत साल तक इस ‘नाम’ से मेरा परिचय नहीं था.
हां, इस दौरान मुझे एक पाकिस्तानी पत्रिका ‘सरगुज़िश्त’ में क़िस्तवार पाकिस्तानी फ़िल्मों के सुनहरे दौर की दिलचस्प रूदाद देखने को मिली, जहां मैडम नूरजहां, रूना लैला, तसव्वुर ख़ानम और नैयरा नूर की आवाज़ों के ‘तूती बोलने’ का तज़्किरा था; यूं कहें कि इसी तज़्किरे में नूर से मेरी आधी-अधूरी और पहली मुलाक़ात हुई.
सच पूछिए तो उस समय तक ज़रा भी गुमान नहीं था कि जिस दिल-सोज़ आवाज़ को हम कई बार अख़्तर शीरानी, बहज़ाद लखनवी और अक्सर फ़ैज़ साहब के बहाने सुनते रहे, उसको सरहद पार ‘बुलबुल-ए-पाकिस्तान’ कहा जाता है, और किसी ज़माने में इस आवाज़ की तूती भी बोलती रही है.
यूं तो मैं ख़ुद को मौसीक़ी का औसत दर्जे का रसिया भी नहीं समझता, लेकिन किसी हद तक सरहद ने इतना तो बांट ही दिया है कि जहां हमें अपने मुल्क के हर ऐरे-ग़ैरे नत्थू-ख़ैरे गुलू-कार के बारे में चाहे-अनचाहे कुछ न कुछ मालूमात हासिल हैं, वहीं कई दफ़ा एक ऐसी आवाज़ से भी बेगानगी और अजनबियत का एहसास शर्मिंदा करने लगता है, जिसे हम मंत्रमुग्ध होकर बस सुनते आए हैं.
संयोग से नैयरा नूर मेरे लिए ऐसी ही गुलू-कारा रहीं, यूं कि इस आवाज़ की मुलायमियत, नाज़ुकी, दिल-सोज़ी, सिसकी, सरगोशी और चुभन से तो हम ख़ूब आशना रहे, लेकिन इस नूरानी शख़्सियत से हमारी कोई पहचान न हो सकी.
शायद इसमें कुछ क़ुसूर फ़ैज़ साहब का भी हो कि उनकी बेपनाह शोहरत ने हमें इस आवाज़ के बारे में अलग से जानने-समझने की तौफ़ीक़ नहीं दी.
हालांकि, मेरे जानने वालों में ऐसे लोग भी हैं जो नूर की वजह से फ़ैज़ साहब की शायरी तक पहुंचे. और मुझे यक़ीन है कि मेरे मुल्क में नूर को ढंग से जानने वाले बहतेरे हैं, और शायद ये मेरी ही कम-नज़री हो कि सिनेमा और साहित्य की किसी उल्लेखनीय हस्ती की तरफ़ से उनके बारे में कोई शोक संदेश और श्रद्धांजलि देखने में नहीं आई.
बहरहाल, अब नूर चुप हैं…
मगर उनकी आवाज़ हम-कलाम है…
यूं तो 2012 के आसपास ही उन्होंने गायकी से दूरी बना ली थी, लेकिन उनके होने में मौसिक़ी के लिए एक उम्मीद-ए-सहर जैसी बात तो थी ही.
बताया जाता है कि रुबाइयत हुसैन की विक्टर बनर्जी और जया बच्चन अभिनीत फ़िल्म ‘मेहरजान’ के लिए उन्होंने आख़िरी बार गाया था, हालांकि ये फ़ैज़ साहब का वही कलाम है जिसे वो पहले गा चुकी थीं.
ख़ैर, कहीं पढ़ा था कि पाकिस्तान की एक पूरी पीढ़ी के दिल में किसी न किसी तौर पर हिंदुस्तान धड़कता है, और शायद ऐसी ही किसी कैफ़ियत में जौन एलिया ने कहा हो कि, मैं पाकिस्तान आकर हिंदुस्तानी हो गया.
दरअसल, नूर के बारे में भी इस हिंदुस्तानियत की बात की जा सकती है कि गुवाहाटी (असम) में जन्मीं इस गुलू-कारा ने कभी संगीत की कोई बाक़ायदा तालीम नहीं ली, बल्कि असम में पड़ोस की लड़कियों के भजन और घंटियों की बाज में उनको संगीत और गायकी की राह नज़र आई.
हिंदुस्तान की आज़ादी और पाकिस्तान बनने के बाद क़रीब आठ साल की उम्र तक वो असम में रहीं.
और यहां जाने कितनी बार भोर भए उनके बेकल मन को मंदिर की प्रार्थना में मौसिक़ी की जो लौ नज़र आई, उसी की फैलती रोशनी में सहगल और बेगम अख़्तर जैसी चित्त-आल्हादित आवाज़ें उनके कानों में रस घोलने लगीं.
मैं यहां उसी कनरस नूर को याद कर रहा हूं, जिसके बारे में हमारे ख़य्याम साहब ने कभी कहा कि उस जैसी कोई दूसरी आवाज़ नहीं, काश मैं उसके लिए धुन बना सकूं…
बहरहाल, संगीत के लिए एकाग्रचित्त इस गुलू-कारा ने हिमायत अली शाएर और फ़ैज़ साहब की बेटी मुनीज़ा हाशमी को दिए साक्षात्कारों में भी इसी भजन और घंटियों की बाज को अपने पहले सबक़ की तरह याद करते हुए दोहराया था कि कमसिनी के बावजूद जब भी ‘सही सुर’ कानों में पड़ते थे मेरे क़दम ठहर जाते थे.
इसी तरह जब वो अपने गाने से ज़्यादा ‘सुनने के शौक़’ के बारे में बात करते हुए कमला झरिया और कानन देवी जैसी गायिकाओं की स्मृति से लिपटती हैं तो उनके लहजे की हिंदुस्तानियत और ज़्यादा महसूस होने लगती है, अब इसको उनकी गायकी के अंदाज़ में रेखांकित करते हुए कोई भी नाम दे लें, मुझे इसमें ठेठ और देसी से भी ज़्यादा घरेलू लयकारी की ठाठ नज़र आती है.
इस लयकारी में शोख़ी भी है लेकिन तेज़ी का अंदाज़ बिल्कुल नहीं है, शायद इसलिए अपनी सादा-तबियत और संजीदगी को भी वो उसी टोह और तलाश का नतीजा समझती हैं जिसके बीज सुर-संगीत के रूप में असम में अंकुरित हुए थे.
दरअसल इस सादगी में उनकी गायकी और गायन-शैली के कई सवालों का जवाब भी है, जैसे फ़िल्मों के लिए कई शोख़ और चंचल गीत गाने के बावजूद उनका ख़याल था कि वो इस तरह के गानों के लिए नहीं बनीं.
ख़ैर, ग़ालिब और मोमिन जैसे उस्ताद शायरों के कलाम के अलावा ख़ास तौर पर फ़ैज़ साहब और नासिर काज़मी जैसे शायरों की शायरी में जब वो ‘सुकून’ की बात करती हैं तो अंदाज़ा होता है कि वो सिर्फ़ गुलू-कारा नहीं थी, बल्कि शायरी के मर्म को भी जानती-समझती थीं.
और शायद इसलिए वो ऐसे गायन की ज़्यादा क़ायल रहीं जो मानवता की बोली बोले, और कई बार तो वो इंक़लाब के तरानों में भी अपनी संजीदा तबियत का सामान करती नज़र आईं.
रेडियो, टेलीविज़न और फ़िल्मों से इतर कल्चरल प्रोग्रामों में उनके इस तरह के गायन को ज़्यादा तलाश किया जा सकता है, शायद इसलिए उनके निधन के बाद ये चर्चा भी की गई कि मार्शल लॉ के विरोध की वजह से जब हबीब जालिब और उनकी शायरी पर पाबंदी लगा दी गई थी तो ये नैयरा नूर थीं जो थिएटर में उनके कलाम को आवाज़ देकर उनके मिशन को आगे बढ़ा रही थीं.
इस बारे में पकिस्तान में जालिब साहब की बेटी ताहिरा जालिब के साथ फ़िक्र-ए-जालिब फाउंडेशन में अपनी सेवाएं दे रहे अली हसनैन मसूद ने द वायर को एक बातचीत में बताया कि नैयरा नूर ने जालिब के गीत फ़िल्मों के लिए भी गाए.
उन्होंने ‘आपा ताहिरा’ के हवाले से 1975 की एक फ़िल्म ‘गुमराह’ का भी ख़ुसूसी ज़िक्र किया और बताया कि नैयरा नूर ने इस फ़िल्म में जालिब साहब का ये कलाम कि ‘कुछ लोग मोहब्बत का सिला मांग रहे हैं’ बड़ी ख़ूबी के साथ पेश किया था.
मैं यहां बस ये जोड़ना चाहता हूं कि इस तरह के कलाम को सुनते हुए अंदाज़ा होता है कि नूर अपनी गायकी के अंतिम दौर में जिस ‘मानवता और अर्थपूर्ण शायरी’ की बात कर रही थीं उसका एक हवाला जालिब के ये गीत भी हैं, दो शेर आप भी देखिए;
दुनिया ने तो मरने की सज़ा बख़्श ही दी थी
हम मौत से जीने की अदा मांग रहे हैं
फिरते हैं तिरे शहर में कुछ आबला-पा लोग
पूछे तो कोई इनसे ये क्या मांग रहे हैं
यहां पर ये भी कहना चाहिए कि नूर बहुत हद तक किसी एक रंग या टाइपकास्ट गुलू-कारा नहीं थीं, इसलिए उनके यहां बिना किसी रस्मी तालीम के गायकी के इतने रंगों को देखना हैरतअंगेज़ भी है.
अब यही देखिए कि आज हम जिस नूर को याद कर रहे हैं, किश्वर नाहिद ने उनकी ज़िंदगी में इस आवाज़ को ‘अजब’ और ‘बे-मिस्ल’ क़रार देते हुए बताया था कि शुरू में वो हल्क़ा-ए-अरबाब-ए-ज़ौक़ में मीराजी का ‘जयजयवंती राग’ छेड़ा करती थीं.
इसी तरह फ़ैज़ साहब की आज़ाद नज़्म ‘इंतिसाब’ की गायकी को एक प्रयोग की तरह तो देखा जा सकता है, लेकिन इसमें कोई और बात है जो इस नज़्म को हमारी पढ़ंत से उठाकर बुलंदी अता करती है.
शायद ऐसी ही गायकी के बाद अहमद नदीम क़ासमी ये कहने को मजबूर हुए होंगे कि, आज़ाद नज़्म को नूर से बेहतर कोई नहीं गा सकता, वो शायरी से पूरा इंसाफ़ करती हैं.
असल में नज़्म और वो भी इस तरह की नज़्मों को गाने की परंपरा ग़ज़ल-गायकी जैसी नहीं रही, इसलिए ज़ुबैर रिज़वी ने नैयरा नूर, नूरजहां और जगजीत सिंह की कुछ ऐसी कोशिशों को मुंह का ज़ायक़ा बदलना कहा और उनके नज़दीक इसकी वजह ये थी कि अनिल बिस्वास की तरह शायद ही कोई संगीतकार हो जिसके दिल में अच्छी नज़्मों की धुन बनाने का ख़याल आया हो.
यहां कह सकते हैं कि नूर ने किसी हद तक अपनी नज़्म की गायकी से भी लोगों को प्रभावित किया.
शायद इसलिए फ़ैज़ के मामले में मेहदी हसन, नूरजहां, फ़रीदा ख़ानम और मलिका पुखराज की गायकी का तज़्किरा करते हुए कुर्रतुलऐन हैदर कहती हैं कि फ़ैज़ साहब इस लिहाज़ से ख़ुशक़िस्मत हैं कि उनके कलाम को सुरों में ढालने के लिए नैयरा नूर जैसी आवाज़ें मिलीं हैं.
इसी तरह उर्दू के प्रसिद्ध हास्य-व्यंग्यकार मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी भी फ़ैज़ के कलाम की नग़्मगी और गायकी का हक़ अदा करने वालों में नैयरा नूर का नाम लेते हैं.
नूर के शब्दों में कहें तो फ़ैज़ साहब उनके दिल के बहुत क़रीब थे, और कई कलाम की तैयारी के वक़्त साथ भी होते थे.
उनकी इस मौजूदगी की गवाही देते हुए नूर ने फ़ैज़ साहब की वही ख़ूबियां शुमार की हैं जो मसलन इस गुलू-कार की अपनी पहचान भी थी, यानी सुनने का शौक़, चुप्पी और मासूमियत में लिपटी हुई उनकी मुस्कान.
फ़ैज़ साहब के बेहद क़रीबी दोस्त अय्यूब मिर्ज़ा की तहरीरों से भी ऐसी घरेलू महफ़िलों का पता चलता है, जहां नूर को सुना जा रहा है.
और ये सब हमें इस तरह से भी नज़र आता है कि नूर ने पहले पहल ‘सच गप’ और ‘टाल-मटोल’ जैसे टीवी सीरियलों में फ़ैज़ साहब के कलाम को आवाज़ दी और फिर उनकी सालगिरह के अवसर पर ईएमआई पाकिस्तान ने नूर की आवाज़ में कलाम-ए-फ़ैज़ का एक यादगार तोहफ़ा भी पेश किया.
सिर्फ़ इस एक रिकॉर्ड को सुन लीजिए तो अंदाज़ा होगा कि नूर ग़ज़ल और नज़्म की नाज़ुकी को आसानी से निबाह ले जाने का हुनर जानती थीं.
यहां ये बात उल्लेखनीय है कि इस रिकॉर्ड के समय नूर को संगीत की दुनिया में आए सिर्फ़ 6 साल हुए थे. इसके बावजूद सारे कलाम एक से बढ़कर एक हैं, लेकिन मैं ‘आज बाज़ार में पा-ब-जौलां चलो’ को बार-बार सुनता रहा हूं, अब ये गायकी की वजह से है या शायरी की वजह से इसका फ़ैसला ज़रा मुश्किल है.
हालांकि मुनीज़ा हाशमी के शब्दों से काम चलाया जाए तो कह सकते हैं कि फ़ैज़ और नूर दोनों एक दूसरे में जज़्ब हैं.
मैं यहां इसी एलपी में शामिल ‘हम कि ठहरे अजनबी…’ की लाजवाब गायकी की भी चर्चा करना चाहता हूं कि नूर की आवाज़ में गुम बहुत कम लोगों हैं जो यहां फ़ैज़ के शेर में भाषा की ख़ामी की गिरफ़्त कर पाए.
दरअसल फ़ैज़ ने इसमें एक लफ़्ज़ ‘मदारातों’ का प्रयोग किया है जो अरबी शब्द ‘मदार’ से बना है जिसका बहुवचन ‘मदारात’ है, यूं देखें तो ‘मदारातों’ बहुवचन का बहुवचन है जो भाषा में एक बड़ी ख़ामी समझी जाती है.
नूर की गायकी और इस कलाम की बेपनाह मक़बूलियत के बाद भी फ़ैज़ साहब का कमाल है कि बाद में उन्होंने इसको बदलकर ‘मुलाक़ातों’ कर दिया, हालांकि नूर की वजह से आज भी लोग जहां इसे ‘मदारातों’ गुनगुनाते हैं वहीं साहित्य के कई बड़े प्लेटफार्मों ने भी इसको ठीक करने कि ज़हमत नहीं उठाई.
बहरहाल, दरमियान में ये बातें ज़ेब-ए-दास्तान के लिए आ गई.
नूर को फ़ैज़ साहब के संदर्भ में जानने समझने के लिए और भी बातें हैं, लेकिन इससे अलग उनकी गायकी पर सरसरी नज़र डालें तो हमें पाकिस्तान के फ़िल्म पत्रकार और गीतकार यूनुस हमदम बताते हैं कि नूरजहां और उस समय की तमाम बड़ी गुलू-कारा के बीच नूर की आमद ने फ़िल्मी दुनिया में हलचल मचा दी थी, और उनके पहले ही फ़िल्मी गीत की धूम सारे पाकिस्तान में मच गई थी.
ख़ुद हमदम उन चंद ख़ुशनसीब लोगों में हैं जिनके लिखे गीत को नूर ने अपनी आवाज़ दी थी.
यूं देखें तो इस्लामिया कॉलेज लाहौर में प्रो. असरार की सरपरस्ती के बाद रेडियो, टेलीविज़न और फ़िल्मों में उनकी गायकी का जादू ख़ूब चला.
इस तरह हमें कहां हो तुम चले आओ, तुम मेरे पास रहो और उनका अपना पसंदीदा गीत मेरा साजन मुझसे बेगाना जैसे कम्पोजीशन सुनने को मिले.
अंत में बस ये कि उनको पसंद करने वालों में हर वर्ग के लोग हैं, लेकिन वो हमारे ज़माने में कई मानों में साहित्य प्रेमियों की पहली पसंद रहीं.
शायद उनकी सादगी और मासूमियत भी इसकी एक वजह रही हो कि उनमें पेशेवर गाने वालियों जैसा कुछ नहीं था, जो कुछ भी था बस उनकी गायकी थी, और ये उनके सादा लिबास की तरह आज भी बेहद ख़ूबसूरत है.
और शायद इसलिए, नूर भले ही तितलियों के देश चली गई हों, वो किताबों में बसी ख़ुशबुओं की मानिंद हमारे एहसास में महकती रहेंगी.