बिलक़ीस मामला: रिहा हुए दोषी ने सज़ा माफी के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका को चुनौती दी

बिलक़ीस बानो मामले 11 दोषियों की समयपूर्व रिहाई के ख़िलाफ़ माकपा नेता सुभाषिनी अली, स्वतंत्र पत्रकार रेवती लाल और लखनऊ की पूर्व प्रोफेसर व कार्यकर्ता रूपरेखा वर्मा ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाख़िल की है. उनकी याचिका का विरोध करने वाले दोषी पर बीते दिनों एक गवाह ने उन्हें धमकाने का आरोप लगाया है.

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गोधरा जेल से बाहर निकलते दोषी. (फोटो साभार: स्क्रीनग्रैब/ट्विटर/योगिता भयाना)

बिलक़ीस बानो मामले 11 दोषियों की समयपूर्व रिहाई के ख़िलाफ़ माकपा नेता सुभाषिनी अली, स्वतंत्र पत्रकार रेवती लाल और लखनऊ की पूर्व प्रोफेसर व कार्यकर्ता रूपरेखा वर्मा ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाख़िल की है. उनकी याचिका का विरोध करने वाले दोषी पर बीते दिनों एक गवाह ने उन्हें धमकाने का आरोप लगाया है.

गोधरा जेल से बाहर निकलते दोषी. (फोटो साभार: स्क्रीनग्रैब/ट्विटर/योगिता भयाना)

नई दिल्ली: बिलकीस बानो मामले के दोषियों में से एक ने गुजरात सरकार द्वारा उसे मिली सजा माफी को चुनौती देने वाली याचिका को ‘अव्यवहार्य और राजनीति से प्रेरित’ बताया है और याचिकाकर्ताओं के हस्तक्षेप के अधिकार पर सवाल उठाया है.

इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, 15 साल की सजा काटने के बाद गुजरात सरकार से सजा माफी पाने वाले राधेश्याम भगवानदास शाह ने कहा है कि याचिकाकर्ताओं में से कोई भी उक्त मामले से संबंधित नहीं है और या तो केवल राजनीतिक कार्यकर्ता जान पड़ते हैं या फिर तीसरे पक्ष के अज्ञात लोग.

अधिवक्ता ऋषि मल्होत्रा के जरिये सुप्रीम कोर्ट में दायर एक हलफनामे में दोषी राधेश्यान ने उन मामलों का उल्लेख किया है जिनमें शीर्ष अदालत स्पष्ट शब्दों में यह कह चुकी है कि अभियोजन पक्ष के लिए पूरी तरह अनजान तीसरे पक्ष के पास आपराधिक मामलों में हस्तक्षेप का अधिकार नहीं है और संविधान के अनुच्छेद-32 के तहत याचिका दायर करने का कोई अधिकार नहीं है.

उन्होंने कहा कि ऐसी याचिका पर विचार करने से जनता में से कोई भी, किसी भी अदालत के समक्ष, किसी भी आपराधिक मामले में बीच में कूदने लगेगा. यह उनके लिए खुला निमंत्रण होगा और ऐसी याचिकाओं की अदालतों के समक्ष बाढ़ आ जाएगी.

बिलकीस बानो मामले में सामूहिक बलात्कार और हत्या के 11 दोषियों में से राधेश्याम भी एक हैं, जिन्हें गुजरात सरकार द्वारा 15 अगस्त को 1992 की ‘सजा माफी और समयपूर्व रिहाई’ नीति के तहत रिहा किया गया था.

उनकी रिहाई के बाद से सुप्रीम कोर्ट ने दो याचिकाओं पर नोटिस जारी किया है. एक याचिका माकपा नेता सुभाषिनी अली, पत्रकार रेवती लाल और शिक्षाविद् रूपरेखा वर्मा द्वारा दायर की गई थी और दूसरी तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा द्वारा. इनमें दोषियों की रिहाई को चुनौती दी गई थी. शाह की याचिका अली व अन्य की याचिका से संबंधित है.

गौरतलब है कि गुजरात सरकार ने ‘अच्छे व्यवहार’ के आधार पर दोषियों को सजा माफी के लिए जेल सलाहकार समिति (जेएसी) की सर्वसम्मति से की गई सिफारिश का हवाला दिया था.

अपने हलफनामे में शाह ने एक अन्य मामले का उल्लेख किया और बताया कि इसी तरह के सवाल तब उठाए गए थे, जब अकाली दल (एम) के अध्यक्ष सिमरनजीत सिंह मान द्वारा टाडा अधिनियम के तहत कुछ आरोपियों की सजा को संविधान के अनुच्छेद-32 के तहत चुनौती देने की मांग की गई थी.

सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि संविधान के अनुच्छेद-32 के तहत केवल मौलिक अधिकार को लागू करने के लिए याचिका दायर की जा सकती है.

इसी तरह, याचिका में 2013 के सुब्रमण्यम स्वामी बनाम राजू फैसले का भी उल्लेख किया गया है जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि कुछ विशेष परिस्थितियों में पीड़ित या उसके परिवार के सदस्यों को प्रक्रिया में भाग लेने का सीमित अधिकार है, विशेष रूप से ट्रायल के दौरान.

इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने निर्भया सामूहिक बलात्कार मामले में नाबालिग आरोपी के खिलाफ कार्यवाही में किशोर न्याय बोर्ड के समक्ष पक्ष बनाने की स्वामी की प्रार्थना को खारिज करने के दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ उनकी अपील को खारिज कर दिया था.

उल्लेखनीय है कि इन्हीं राधेश्याम शाह पर बीते दिनों इस मामले के एक प्रमुख गवाह को धमकाने के भी आरोप लगे हैं. मामले के प्रमुख गवाह इम्तियाज घांची ने इस संबंध में भारत के मुख्य न्यायाधीश यूयू ललित को पत्र लिखते हुए जान के खतरे के मद्देनजर सुरक्षा की मांग की थी.

घांची ने अपनी जान को खतरा बताते हुए गुजरात के गृह सचिव और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को भी एक प्रति भेजी है.

गौरतलब है कि अपनी क्षमा नीति के तहत गुजरात की भाजपा सरकार द्वारा दोषियों को माफी दिए जाने के बाद बिलकीस बानो सामूहिक बलात्कार और उनके परिवार के सात सदस्यों की हत्या के मामले में उम्र कैद की सजा काट रहे सभी 11 दोषियों को 16 अगस्त को गोधरा के उप कारागार से रिहा कर दिया गया था.

सोशल मीडिया पर सामने आए वीडियो में जेल से बाहर आने के बाद बलात्कार और हत्या के दोषी ठहराए गए इन लोगों का मिठाई खिलाकर स्वागत किया जा रहा था.

इसे लेकर कार्यकर्ताओं ने आक्रोश जाहिर किया था. इसके अलावा सैकड़ों महिला कार्यकर्ताओं समेत 6,000 से अधिक लोगों ने सुप्रीम कोर्ट से दोषियों की सजा माफी का निर्णय रद्द करने की अपील की थी.

इस निर्णय से बेहद निराश बिलकीस ने भी इसके बाद अपनी वकील के जरिये जारी एक बयान में गुजरात सरकार से इस फैसले को वापस लेने की अपील की थी.

उल्लेखनीय है कि द वायर  ने एक लेख में बताया है कि इस साल जून में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने दोषी ठहराए गए कैदियों की रिहाई के संबंध में राज्यों को दिशानिर्देश जारी किए थे. ये दिशानिर्देश भारत की स्वतंत्रता के 75वें वर्ष को लेकर तैयार की गई एक विशेष नीति के तहत जारी किए गए थे.

दिशानिर्देशों के अनुसार, कैदियों को 15 अगस्त, 2022, 26 जनवरी, 2023 (गणतंत्र दिवस) और 15 अगस्त, 2023 को विशेष छूट दी जानी थी. हालांकि, दिशानिर्देशों में यह स्पष्ट किया गया था कि आजीवन कारावास की सजा पाने वाले और बलात्कार के दोषी समय से पहले रिहाई के हकदार नहीं होंगे.

ऐसे में इस निर्णय के बाद कई विशेषज्ञों ने सवाल उठाए हैं कि क्या गुजरात सरकार ने बिलकिस बानो मामले के दोषियों को रिहा करने में  केंद्रीय दिशानिर्देशों का उल्लंघन किया है.

इस बीच रिहाई की सिफारिश करने वाले पैनल के एक सदस्य भाजपा विधायक सीके राउलजी ने बलात्कारियों को ‘अच्छे संस्कारों’ वाला ‘ब्राह्मण’ बताया था.

ज्ञात हो कि 27 फरवरी, 2002 को साबरमती एक्सप्रेस के डिब्बे में आग लगने की घटना में 59 कारसेवकों की मौत हो गई. इसके बाद पूरे गुजरात में दंगे भड़क गए थे. दंगों से बचने के लिए बिलकीस बानो, जो उस समय पांच महीने की गर्भवती थी, अपनी बच्ची और परिवार के 15 अन्य लोगों के साथ अपने गांव से भाग गई थीं.

तीन मार्च 2002 को वे दाहोद जिले की लिमखेड़ा तालुका में जहां वे सब छिपे थे, वहां 20-30 लोगों की भीड़ ने बिलकीस के परिवार पर हमला किया था. यहां बिलकीस बानो के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया, जबकि उनकी बच्ची समेत परिवार के सात सदस्य मारे गए थे.

बिलकीस द्वारा मामले को लेकर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में पहुंचने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई जांच के आदेश दिए थे. मामले के आरोपियों को 2004 में गिरफ्तार किया गया था.

केस की सुनवाई अहमदाबाद में शुरू हुई थी, लेकिन बिलकीस बानो ने आशंका जताई थी कि गवाहों को नुकसान पहुंचाया जा सकता है, साथ ही सीबीआई द्वारा एकत्र सबूतों से छेड़छाड़ हो सकती, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने अगस्त 2004 में मामले को मुंबई स्थानांतरित कर दिया.

21 जनवरी 2008 को सीबीआई की विशेष अदालत ने बिलकीस बानो से सामूहिक बलात्कार और उनके सात परिजनों की हत्या का दोषी पाते हुए 11 आरोपियों को उम्रकैद की सजा सुनाई थी. उन्हें भारतीय दंड संहिता के तहत एक गर्भवती महिला से बलात्कार की साजिश रचने, हत्या और गैरकानूनी रूप से इकट्ठा होने के आरोप में दोषी ठहराया गया था.

सीबीआई की विशेष अदालत ने सात अन्य आरोपियों को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया. एक आरोपी की सुनवाई के दौरान मौत हो गई थी.

इसके बाद 2018 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने आरोपी व्यक्तियों की दोषसिद्धि बरकरार रखते हुए सात लोगों को बरी करने के निर्णय को पलट दिया था. अप्रैल 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार को बिलकीस बानो को 50 लाख रुपये का मुआवजा, सरकारी नौकरी और आवास देने का आदेश दिया था.