सुप्रीम कोर्ट में अखिल भारतीय मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा दायर याचिका में कहा गया कि पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 लोगों के किसी भी वर्ग के सांस्कृतिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं करता है और यह संविधान की मूलभूत विशेषताओं पर आधारित है, जो संशोधन योग्य नहीं हैं.
नई दिल्ली: अखिल भारतीय मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) ने पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 के कानून के कुछ प्रावधानों की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं के खिलाफ उच्चतम न्यायालय का रुख किया है.
इस कानून के तहत 15 अगस्त, 1947 को धार्मिक स्थलों की जो स्थिति थी या उसका जो चरित्र था, उसमें बदलाव के लिए याचिका दायर करना या दावा करना निषिद्ध किया गया है.
अपनी वादकालीन याचिका में एआईएमपीएलबी ने शीर्ष अदालत को बताया कि पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 भारतीय राजनीति के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के अनुरूप एक ‘प्रगतिशील कानून’ है और विभिन्न वर्गों के लोगों के बीच सद्भाव, सार्वजनिक शांति और समरसता को बढ़ावा देता है.
प्रधान न्यायाधीश उदय उमेश ललित की अध्यक्षता वाली पीठ 11 अक्टूबर को 1991 के कानून के कुछ प्रावधानों की वैधता पर सवाल उठाने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करने वाली है.
मुस्लिम संगठन ने अधिवक्ता एमआर शमशाद के माध्यम से दायर अपनी अर्जी में दलील दी है कि यह अधिनियम लोगों के किसी भी वर्ग के सांस्कृतिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं करता है और यह संविधान की मूलभूत विशेषताओं पर आधारित है, जो संशोधन योग्य नहीं हैं.
एआईएमपीएलबी ने कहा है कि उक्त अधिनियम को निरस्त करने या इसके मूल उद्देश्यों और/या सिद्धांतों को नष्ट करने का कोई भी प्रयास ‘असंवैधानिक और अमान्य’ होगा.
‘विश्व भद्र पुजारी पुरोहित महासंघ’ और अन्य के मामले में दायर हस्तक्षेप याचिका में दावा किया गया है कि कानून की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई से केवल जमीनी स्तर पर समस्याएं पैदा होंगी.
बोर्ड ने आरोप लगाया है कि वादकारियों का एक राजनीतिक एजेंडा है. याचिका में कहा गया है कि इस अधिनियम की परिकल्पना विभिन्न वर्गों के लोगों के बीच सद्भाव को बढ़ावा देने और सार्वजनिक व्यवस्था के उल्लंघन को रोकने तथा सार्वजनिक शांति और सौहार्द को बढ़ावा देने के लिए की गई है.
हिंदुस्तान टाइम्स के मुताबिक, एआईएमपीएलबी ने आगे कहा, ‘अधिनियम लोगों के किसी भी वर्ग के सांस्कृतिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं करता है. यह अधिनियम शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की परिकल्पना करता है और इस प्रकार हमारे देश में संस्कृतियों की विविधता को बढ़ावा देता है. यह अधिनियम समन्वित संस्कृति (गंगा-जमुना तहज़ीब) को बढ़ावा देने के उद्देश्य को प्राप्त करता है जो भारतीय संस्कृति का मूल लोकाचार है.’
एआईएमपीएलबी का दावा है कि इतिहास में ऐसे असंख्य उदाहरण हैं जहां जैन और बौद्ध पूजा स्थलों को हिंदू मंदिरों में, मुस्लिम पूजा स्थलों को गुरुद्वारों में तथा हिंदू पूजा स्थलों को मस्जिदों में परिवर्तित कर दिया गया है.
मुस्लिम निकाय ने आगे कहा कि अधिनियम का उद्देश्य पूजा स्थलों से संबंधित पुराने दावों को समाप्त करना था. इसने कहा कि विभिन्न समुदायों के बीच पूजा स्थल से संबंधित कोई भी विवाद अत्यधिक संवेदनशील है और सार्वजनिक व्यवस्था के उल्लंघन को खतरे में डालता है और समाज की शांति को भंग करता है.
एआईएमपीएलबी ने कहा, ‘बाबरी मस्जिद के संबंध में विवाद शुरू होने के बाद हमारे देश ने रक्तपात देखा है.’ इसने दिसंबर 1992 और जनवरी 1993 में मुंबई में हुए दंगों के कारणों और मार्च 1993 में हुए बम विस्फोट के कारणों की जांच के लिए गठित श्रीकृष्ण आयोग की खोज का उल्लेख किया.
इसने कहा कि आयोग का स्पष्ट निष्कर्ष यह है कि दिसंबर 1992 के दंगे 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस के शर्मनाक कृत्य से मुसलमान आहत महसूस करने के कारण हुए थे.
गौरतलब है कि बीते 9 सितंबर को शीर्ष अदालत ने कहा था कि 1991 के कानून के कुछ प्रावधानों की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं को निर्णय के लिए पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के पास भेजा जा सकता है और केंद्र से कानून पर सवाल उठाने वाली जनहित याचिकाओं का जवाब दाखिल करने को कहा था.
इस अधिनियम के कुछ प्रावधानों की वैधता को चुनौती देने वाले भाजपा नेता और अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय द्वारा दायर एक याचिका सहित कई अन्य याचिकाएं शीर्ष अदालत में दायर की गई हैं.
इसी साल जून में भाजपा के पूर्व सांसद चिंतामणि मालवीय ने एक याचिका दायर कर 1991 के इस अधिनियम की धारा 2, 3 और 4 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए दावा किया गया था कि ये धाराएं धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों का उल्लंघन करती हैं.
जून 2020 में लखनऊ स्थित विश्व भद्र पुजारी पुरोहित महासंघ ने सुप्रीम कोर्ट का रुख कर इस एक्ट को चुनौती दी थी. कुछ दिनों बाद जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने भी अदालत का रुख कर कहा था कि इस मामले में नोटिस जारी होने से पूजा स्थलों के संदर्भ में मुस्लिम समुदाय के मन में भय पैदा होगा, विशेष रूप से अयोध्या विवाद के बाद से और इससे देश का धर्मनिरपेक्ष ताना-बाना भी नष्ट होगा.
हाल ही में जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने भी शीर्ष अदालत में एक याचिका दायर कर एक लंबित याचिका में हस्तक्षेप करने की मांग की है, जिसमें 1991 के अधिनियम की धारा 2, 3 और 4 की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई है.
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)