गढ़चिरौली की एक अदालत ने 2017 में जीएन साईबाबा और पांच अन्य को माओवादियों से संबंध रखने और देश के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ने जैसी गतिविधियों में संलिप्तता का दोषी ठहराया था. बॉम्बे हाईकोर्ट ने सभी को बरी करते हुए कहा कि ‘राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए कथित ख़तरे’ के नाम पर क़ानून को ताक़ पर नहीं रखा जा सकता.
नागपुर: बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर पीठ ने माओवादियों से कथित संबंधों से जुड़े मामले में दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) के पूर्व प्रोफेसर जीएन साईबाबा को शुक्रवार को बरी कर दिया और उन्हें जेल से तत्काल रिहा करने का आदेश दिया.
जस्टिस रोहित देव और जस्टिस अनिल पानसरे की खंडपीठ ने साईबाबा की उस अपील को स्वीकार कर लिया जो उन्होंने निचली अदालत के 2017 के एक आदेश को चुनौती देते हुए दायर की थी. निचली अदलत ने अपने आदेश में साईबाबा को दोषी ठहराया था और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी.
2014 में गिरफ्तार बावन वर्षीय साईबाबा 90 फीसदी शारीरिक अक्षमता के कारण व्हीलचेयर की मदद लेते हैं. उन्हें नागपुर केंद्रीय कारागार के कुख्यात अंडा सेल में रखा गया है. बीते सालों में साईबाबा के वकीलों की ओर से उन्हें जेल में उचित इलाज और सुविधाएं न दिए जाने का मुद्दा कई बार उठाया गया था.
रिपोर्ट के अनुसार, अदालत ने उन्हें बरी करते हुए कहा उच्च न्यायालय ने कहा कि ‘राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए कथित खतरे’ के नाम पर कानून की उचित प्रक्रिया को ताक पर नहीं रखा जा सकता.
अदालत ने यह टिप्पणी करते हुए साईबाबा को जेल से रिहा करने का आदेश दिया कि मामले में आरोपी के खिलाफ गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के सख्त प्रावधानों के तहत मुकदमा चलाने का मंजूरी आदेश ‘कानून की दृष्टि से गलत और अमान्य’ था.
मार्च 2017 में, महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले की एक सत्र अदालत ने साईबाबा और एक पत्रकार और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के छात्र सहित अन्य को माओवादियों से कथित संबंध और देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने की गतिविधियों में शामिल होने के लिए दोषी ठहराया था. अदालत ने साईबाबा और अन्य को सख्त गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) और भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के विभिन्न प्रावधानों के तहत दोषी ठहराया था.
निचली अदालत का निर्णय 22 गवाहों के बयान पर आधारित था, जिनमें से एक स्वतंत्र गवाह को छोड़कर बाकी पुलिस के गवाह थे.
आरोपियों के खिलाफ यूएपीए के तहत मुकदमा चलाने की मंजूरी 2014 में पांच आरोपियों के खिलाफ और 2015 में साईबाबा के खिलाफ दी गई थी.
पीठ ने कहा कि 2014 में जब निचली अदालत ने अभियोजन पक्ष द्वारा दायर आरोपपत्र पर संज्ञान लिया था, तब साईबाबा के खिलाफ यूएपीए के तहत मुकदमा चलाने की कोई मंजूरी नहीं थी.
अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया था कि दोषी प्रतिबंधित नक्सली संगठन भाकपा (माओवादी) और उसके मुखौटा संगठन रिवोल्यूशनरी डेमोक्रेटिक फ्रंट के सक्रिय सदस्य हैं.
अदालत ने अपने फैसले में कहा कि यूएपीए के तहत वैध मंजूरी के अभाव में निचली अदालत की कार्यवाही ‘शून्य और अमान्य’ थी और इसलिए फैसला (निचली अदालत का) रद्द करने योग्य है.
अदालत ने माना कि आतंकवाद राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक खतरा है और आतंक के घृणित कृत्य सामूहिक सामाजिक क्रोध और पीड़ा उत्पन्न करते हैं.
फैसले में कहा गया, ‘आतंक के खिलाफ युद्ध सरकार द्वारा दृढ़ संकल्प के साथ छेड़ा जाना चाहिए और आतंक के खिलाफ लड़ाई में शस्त्रागार के हर वैध हथियार को तैनात किया जाना चाहिए, एक नागरिक लोकतांत्रिक समाज कानूनी रूप से प्रदान किए गए प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय त्याग दिए जाने को सहन नहीं कर सकता…’
पीठ ने कहा कि विधायी अनिवार्यता यह है कि अभियोजन की मंजूरी स्वतंत्र प्राधिकार (अधिनियम के तहत नियुक्त) की रिपोर्ट पर विचार करने के बाद ही दी जाएगी, जो जांच के दौरान एकत्र किए गए सबूतों की स्वतंत्र समीक्षा करेगा और सिफारिश करेगा.
इसमें कहा गया है कि वर्तमान मामले में नियुक्त प्राधिकार की रिपोर्ट से मंजूरी देने वाले प्राधिकार को कोई सहारा या सहायता नहीं मिलती, क्योंकि इसमें एकत्र किए गए साक्ष्य की समीक्षा के विश्लेषण का संक्षिप्त सारांश नहीं है.
अदालत ने अपने फैसले में कहा, ‘हम बिना किसी हिचक के मानते हैं कि मंजूरी प्रदान करने वाले अधिकारी ने विधायी आदेश के लिए केवल दिखावटी कार्य किया था और नियुक्त प्राधिकारी की रिपोर्ट मांगी गई थी और दुर्भाग्यवश यह एक रस्मी औपचारिकता के रूप में दी गई थी. विधायी अनिवार्यता का अतिक्रमण करके दिया गया आदेश कानून की दृष्टि से गलत है और इसलिए अमान्य है.’
इसने कहा कि कानून की उचित प्रक्रिया से किसी भी तरह का विचलन एक ऐसे पारिस्थितिकी तंत्र को बढ़ावा देता है जिसमें आतंकवाद पनपता है और निहित स्वार्थों को बढ़ावा प्रदान करता है, जिसका एकमात्र एजेंडा झूठे आख्यानों का दुष्प्रचार करना है.
पीठ ने आदेश दिया कि यदि याचिकाकर्ता किसी अन्य मामले में आरोपी नहीं हैं तो उन्हें जेल से तत्काल रिहा किया जाए.
मामले में साईबाबा और अन्य की ओर से वकील निहाल सिंह राठौड़ पेश हुए थे. पीठ ने मामले के पांच अन्य दोषियों- महेश तिर्की, पांडु नरोटे, हेम मिश्रा, प्रशांत राही और विजय एन. तिर्की की याचिका भी स्वीकार कर ली और उन्हें बरी कर दिया. इनमें से एक याचिकाकर्ता पांडु नरोटे की मामले में सुनवाई लंबित होने के दौरान बीते अगस्त महीने में मौत हो चुकी है.
उस समय नरोटे के वकीलों ने आरोप लगाया था कि जेल अधिकारियों ने समय पर चिकित्सा सुविधा प्रदान नहीं की. उन्होंने कहा था कि नरोटे की हालत खराब होने के बाद ही उन्हें अस्पताल ले जाया गया.
साईबाबा को बरी करने के बारे में द वायर से फोन पर बात करते हुए साईबाबा की पत्नी एएम वसंता ने कहा, ‘यह जीत वकीलों और उन सभी के बिना मुमकिन नहीं थी, जिन्होंने इतने सालों में साईबाबा और मेरा साथ दिया. यह एक लंबी लड़ाई थी, लेकिन मैं खुश हूं कि आखिरकार इंसाफ हुआ.’
साईबाबा की सजा के बाद के सालों में निचली अदालत में उनके वकील रहे सुरेंद्र गाडलिंग; उनके सहयोगी डीयू के प्रोफेसर हेनी बाबू; और उनके करीबी दोस्त रोना विल्सन को भी यूएपीए के आरोपों के तहत गिरफ्तार किया गया था. जब गाडलिंग ने अदालत में उनका मामला लड़ रहे थे, तब बाबू और विल्सन ने उनकी रिहाई के लिए एक अभियान चलाया था. तीनों को 2018 के एल्गार परिषद मामले में मुख्य आरोपी के रूप में नामजद किया गया है.
हेनी बाबू की पत्नी और दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जेनी रोवेना ने कहा कि साईबाबा और अन्य के बरी होने से उन्हें अचानक बहुत उम्मीदें दिख रही हैं. रोवेना ने द वायर से कहा, ‘आखिरकार, एल्गार परिषद का मामला काफी हद तक साईबाबा के मामले पर निर्भर था. साईबाबा के बरी होने से हमें एल्गार परिषद मामले में दर्ज सभी लोगों को बेगुनाह साबित करने में मदद मिलेगी.’
3 अप्रैल, 2021 को दिल्ली विश्वविद्यालय के राम लाल आनंद कॉलेज ने साईबाबा को कॉलेज में सहायक प्रोफेसर के पद से हटा दिया था. उन्होंने साल 2003 में कॉलेज जॉइन किया था और 2014 में महाराष्ट्र पुलिस द्वारा गिरफ्तार करने के बाद उन्हें निलंबित कर दिया गया था.
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)
(नोट: इस ख़बर को अपडेट किया गया है.)