निर्मल वर्मा: साहित्य में एक जीवन

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: विनीत गिल की किताब निर्मल जीवन और लेखन का सूक्ष्म-सजग-संवेदनशील पाठ है. हर बखान या विवेचन, हर खोज या स्थापना के लिए प्राथमिक और निर्णायक साक्ष्य उनका लेखन है.

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(फोटो साभार: पेंगुइन इंडिया)

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: विनीत गिल की किताब निर्मल जीवन और लेखन का सूक्ष्म-सजग-संवेदनशील पाठ है. हर बखान या विवेचन, हर खोज या स्थापना के लिए प्राथमिक और निर्णायक साक्ष्य उनका लेखन है.

(फोटो साभार: पेंगुइन इंडिया)

यह सुखद संयोग है कि बहुत कम अंतराल से हिन्दी में दो मूर्धन्यों- अज्ञेय और निर्मल वर्मा की सुलिखित जीवनियां हाल ही में प्रकाशित हुई हैं: दोनों ही अंग्रेज़ी में लिखी गई हैं. जीवनीकार पत्रकार हैं और इसलिए हिन्दी की साहित्यिक दुनिया में इन दोनों लेखकों को लेकर जो पूर्वाग्रह अभी तक सक्रिय हैं उनसे मुक्त हैं. हालांकि उन पूर्वाग्रहों को उन्होंने हिसाब में लिया है.

पेंगुइन बुक्स द्वारा ही प्रकाशित विनीत गिल की जीवनी ‘हीयर एंड हीयरआफ्टर’ (यहां और यहां के बाद) अज्ञेय की जीवनी से एक चौथाई आकार की है और इसमें उस जीवनी की तरह तथ्यों की भरमार नहीं है.

यह एक सजग-संवेदनशील पाठक द्वारा निर्मल जी के साहित्य में प्रगट जीवन का बखान और विवेचन है: जहां-तहां तथ्य भी हैं पर वही जीवन केंद्र में है जो लेखन में प्रगट हुआ है, वह नहीं जो तथ्यों में बंधा होता है. दूसरे शब्दों में, यह ‘फैक्ट्स’ पर नहीं ‘आर्टीफ़ैक्ट्स’ पर आधारित जीवन है.

विनीत गिल से पहली बार मैं लगभग एक सप्ताह पहले मिला जब मैं उनकी लिखित जीवनी पढ़ चुका था. यह उनकी पहली पुस्तक है. निर्मल जीवन और लेखन का सूक्ष्म-सजग-संवेदनशील पाठ है. हर बखान या विवेचन के लिए, हर खोज या स्थापना के लिए उनका प्राथमिक और निर्णायक साक्ष्य लेखन है. इस अर्थ में यह जीवनी होने के साथ-साथ एक ऐसी पुस्तक भी है जो हमें बताती-सिखाती है, बिना ऐसा कोई दावा किए या मुद्रा अपनाए, कि किसी लेखक को और उसके लेखन में चरितार्थ जीवन को कैसे मनोयोग और सावधानी से पढ़ा-समझा जा सकता है.

निर्मल जी ने कभी स्वयं यह कहा था कि उनका लेखन, समग्रतः लिए जाने पर, उनकी आत्मकथा है. विनीत की एक रोचक स्थापना यह है कि निर्मल जी एक पाठक-लेखक थे: वे लेखक के पहले पाठक थे और उनके यहां, उनके लिए पाठक का बहुत महत्व है. वे कम से कम तीन शहरों के लेखक थे: शिमला, प्राग और दिल्ली.

विनीत के अनुसार, वे ‘इनडोर्स’ के लेखक थे, भले उनके यहां प्रकृति और बाहरी जीवन के लिए बड़ी ललक है. वे मकानों, दरवाज़ों, खिड़कियों, छतों के लेखक भी थे. यह उचित ही लक्ष्य किया गया है कि निर्मल के लेखन में शुरू से ही परिपक्वता और परिष्कार है: उनके यहां कुछ भी कच्चा-अधपका-अपरिपक्व नहीं है. वे अपनी शुरुआत से ही एक परिपक्व लेखक थे.

यह भी कहा गया है कि निर्मल उन लेखकों में से थे जिन्होंने गद्य और कविता के बीच की विभाजक रेखा मिटा दी: वे गद्य में कवि थे. यह काव्यमयता उनकी कहानियों, उपन्यासों, निबंधों, डायरियों, यात्रा-वृत्तांतों आदि सभी में सक्रिय है. अंदर और बाहर निर्मल के यहां विलोम नहीं है- वे ज़रूरी तौर पर सीमाबद्धता और स्वतंत्रता व्यक्त या विन्यस्त नहीं करते. उनका लेखन सचाई और कल्पना के बीच सहज भाव से विचरता है.

विनीत की एक स्थापना यह है कि निर्मल की मृत्यु-चेतना उनके साहित्यिक प्रोजेक्ट के केंद्र में है. इस हद तक कि कई बार लगता है कि मृत्यु उनका बड़ा विषय भर नहीं, एकमात्र विषय है. निर्मल का विश्वास था कि लेखक के पास अपनी नश्वरता से आत्मीय संबंध बनाने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है.

वे कला को संसार की टीका नहीं मानते थे: कला उनके लिए एक आत्मसम्पूर्ण संसार थी, अपने आप में सजीव वस्तु. साहित्य कोई नक़्शा नहीं था जो किसी भविष्यत राजनीतिक यूटोपिया की राह दिखाता हो: वह एक रिकॉर्ड होता है, एक अन्वेषण ऐसे प्रश्नों का जो राजनीति से अधिक तात्कालिक होते हैं- मानवीय होने का अर्थ क्या है? एक समय-विशेष में जीवित होने का क्या अर्थ होता है? हमेशा के लिए मृत होने का क्या अर्थ है?

निर्मल यह भी सोचते थे कि पश्चिमी उपन्यास बुनियादी तौर पर एक आत्मकेंद्रित संसार को लेकर लिखा गया है. उसके अलग, भारतीय संवेदना है जिसमें मनुष्य और प्रकृति को समान स्थान दिया गया है. निर्मल वर्मा को उनके आरंभिक दौर से प्रायः भारत का यूरोपीय लेखक कहा जाता था. वे जिस यूरोप का आभास देते थे वह, विनीत क़यास लगाते हैं, आविष्कृत यूरोप ही था, सचमुच का यूरोप उतना नहीं. उनके उत्तरकाल में शायद इसी आलोचना का प्रतिकार करने के लिए निर्मल ने अपनी भारतीय जड़ों पर इसरार करना शुरू किया.

उन्होंने अपने ऐतिहासिक और उससे भी अधिक मिथकीय उत्तराधिकार का दावा करना शुरू किया. विनीत यह स्पष्ट करते हैं कि उन्हें निर्मल के लेखन में ऐसा कुछ नहीं मिला जिससे यह प्रमाणित होता हो कि वे किसी हिंदू विचार या किसी सभ्यतागत वैभव के पक्षधर या विश्वासी हों.  अपने कथेतर गद्य में निर्मल के यहां केंद्र में निजी क्षति, अभाव का बोध है. किसी नव-उपलब्ध हिंदू आदर्श का इसरार करने के बजाय, निर्मल इस विचार को ही चुनौती देने लगते हैं कि मनुष्य की ‘बिलॉन्गिंग’ की खोज कभी सफल भी होती है संस्कृति, इतिहास या सहारा लेकर?

विनीत निर्मल को बुढ़ापे के बारे में भी उद्धृत कर बताते हैं कि उन्होंने कहा था कि बूढ़ा होना अपने को ख़ाली करने की प्रक्रिया है, एक के बाद एक अपना बोझ कम करना. यह भारहीनता वांछनीय है ताकि मृत्यु के बाद जब देह चिता पर रखी जाए तो रखने वालों को भार न लगे और आग को भी उस पर अधिक समय उस पर ख़र्च न करना पड़े.

विनीत यह भी बताते हैं कि उनके लेखन में निर्मल के नास्तिक होने का पर्याप्त प्रमाण है पर इसका भी कि वे जीवन भर धर्म के अनुष्ठानपरक रूप से विरत रहे. फिर भी, ऐसा लगता है कि धर्म, विशेषतः हिंदू धर्म, ख़ासकर अपने ग़ैर-रूढ़ वैदिक रूप में उनके कला-लक्ष्य में मददगार था.

भारत की खोज

पिछले कुछ बरसों से ऐसा संयोग घटता रहा है कि मुझे विदेशी कृतियों और कवियों के अध्ययन में कई बार अप्रत्याशित रूप से भारत की उपस्थिति मिलती रही है. रूसी कवि जोसेफ़ ब्रॉडस्की में भारतीय अध्यात्म, संगीतकार बीथोवन में भारतीय अध्यात्म का प्रभाव, भाषाविद रोमन जैकब्सन में भारतीय भाषा-चिंतन का एहतराम, पुर्तगाली कवि फर्नान्‍दो पेसोआ में महात्मा गांधी ऐसे ही अकस्मात मिले.

सेंट लूसिया में 1930 में जन्मे नोबेल पुरस्कार विभूषित कवि डैरेक वालकॉट के संचयन ‘सलेक्टेड पोएम्स’ को पलट रहा था, फे़बर द्वारा 2007 में प्रकाशित. तो एक कविता ‘द साधू ऑफ कूवा’ पर ध्यान अटका. कविता कैनेथ रामचंद के लिए लिखी गई है. उसके दो अंश हिन्दी अनुवाद में, अपनी आत्मा की प्रतीक्षा करता हुआ, कवि कहता है:

मैं चुपचाप बैठा, उसकी वापसी की प्रतीक्षा में
जैसे वह आएगी कीचड़-सनी भकोस लिए जाने वाली मवेशी की तरह
क्योंकि, मेरी आत्मा के लिए भारत बहुत दूर है
और उस घंटी पर
कभी गंजे बादल जमा होते है गेरूए कपड़ो में
संध्या के लिए पवित्र
पवित्र रामलोचन तक के लिए…
……

मैं अपने सिर पर एक बादल बांध लेता हूं,
मेरी सफ़ेद मूंछें सींगों की तरह सुगबुगाती हैं,
मेरे हाथ रामायण के पृष्ठों की तरह नाजुक हैं,
पहले कभी पवित्र वानर शाखाओं की तरह बहुताते थे
प्राचीन मंदिरों में…

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)