इतिहास की रणभूमि

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: भारत में इस समय विज्ञान की लगातार उपेक्षा और अवज्ञा हो रही है. इस क़दर कि वैज्ञानिक-बोध को दबाया जा रहा है. यह ज्ञान मात्र की अवमानना का समय है: बुद्धि, तर्क, तथ्य, संवाद, असहमति आदि सभी हाशिये पर फेंके जा रहे हैं.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: भारत में इस समय विज्ञान की लगातार उपेक्षा और अवज्ञा हो रही है. इस क़दर कि वैज्ञानिक-बोध को दबाया जा रहा है. यह ज्ञान मात्र की अवमानना का समय है: बुद्धि, तर्क, तथ्य, संवाद, असहमति आदि सभी हाशिये पर फेंके जा रहे हैं.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

आम तौर पर यह माना जाता रहा है कि भारत में अपना इतिहास लिखने-समझने की वृत्ति बहुत शिथिल रही है. इधर जब से वर्तमान निज़ाम आया है, इतिहास एक बड़ा प्रिय बल्कि लोकप्रिय विषय हो उठा है. ऐसे लोग जिन्हें शायद, पढ़े-लिखे होने के बावजूद, सभ्यता और इतिहास की न तो सम्यक जानकारी है और न ही कोई बौद्धिक समझ, और जिनमें अधिकांशतः राजनेता और धर्मनेता हैं, आए दिन इतिहास को लेकर कोई बेसिर-पैर का वक्तव्य देते रहते हैं.

ऐसे लोगों की कोई जवाबदेही नहीं होती और जो मीडिया उनकी इन बातों को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता रहता है, उनसे कोई तथ्य या साक्ष्य देने की मांग नहीं करता.

कुछ ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि जैसे सच्चा इतिहास तो अभी लिखा जाना है और पहले जो लिखा गया है वह मुख्यतः हिंदुओं की उपस्थिति-सक्रियता-अवदान को हाशिये में डाल कर लिखा गया है. यह भी कि ऐसा करने के लिए औपनिवेशिक और वामपंथी दोनों ही तरह के इतिहासकार समान रूप से दोषी हैं.

इसी माहौल में फैलाए गए उकसावों से प्रेरित होकर सरकार ने 2020 में एक समिति नियुक्त की, जो यह आज से 12 हज़ार वर्ष पहले से भारतीय संस्कृति के उद्भव और विकास का समग्र अध्ययन करेगी और इसका भी कि इस संस्कृति की संसार की अन्य संस्कृतियों से क्या परस्परता रही है. इस समिति में न कोई स्त्री है, न कोई दलित, न दक्षिण का कोई विशेषज्ञ. अभी तक उसकी कोई रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं हुई है.

प्रख्यात भाषाविद् और हमारे समय में बौद्धिक-नैतिक प्रतिरोध की बहुत उजली शबीह गणेश देवी ने दो वर्ष की अवधि एक वैकल्पिक रिपोर्ट संसार भर से भारतविद विशेषज्ञों द्वारा विभिन्न विषयों पर लिखवाकर पिछले रविवार को उसके शीघ्र प्रकाशन की घोषणा एक आयोजन में की जिसमें बड़ी संख्या में बौद्धिक और युवा एकत्र हुए.

रिपोर्ट का शीर्षक है: ‘भारत के बारह हज़ार वर्ष’ और उपशीर्षक है ‘होलसीन से अब तक भारत की सभ्यता और इतिहासों पर रिपोर्ट’. जो पांडुलिपि प्रसारित की गई उसमें सौ निबंध हैं और वह पांच सौ से अधिक पृष्ठों की है, ए-4 आकार के पृष्ठों में. देश-विदेश में प्रख्यात शायद ही ऐसा कोई सक्रिय विशेषज्ञ हो जो छूट गया हो और सभी ने गंभीरता, ज़िम्मेदारी, अध्यवसाय, साक्ष्यसम्मत दृष्टि से लिखा है.

भारत की बुनियादी बहुलता के अनुरूप, इस रिपोर्ट में विषयों और दृष्टियों की बहुलता है. एक हज़ार से अधिक संदर्भ सूत्र दिए गए हैं. कुल दो वर्ष की अवधि में इतनी बड़ी संख्या में संसार भर से विशेषज्ञों को जुटाना और उनसे लिखवाना, जबकि साधनों का घोर अभाव रहा, बहुत साहस और लगन का काम है.

रिपोर्ट की भूमिका में डॉ. देवी ने स्पष्ट कहा है कि इस रिपोर्ट से भारत के अतीत के बखान को किसी भी तरह से पूरा या मुकम्मल हुआ नहीं माना जा सकता. इस रिपोर्ट को भी परिष्कृत, पुनरीक्षित करने, संशोधित करने की दरकार होगी. इसलिए भी कि ताकि भारत किसी ध्रुवांतकारी मानसिकता का शिकार न हो जाए कर्म और विचार में ऐसा अपर्वजन करने लगे जो उसके परंपराओं, कायाकल्पों और लोगों के संघ होने को कम कर दे.

प्राचीनता और शुद्धि के पूर्वाग्रह

वर्तमान निज़ाम के बौद्धिक समर्थक इस कोशिश में लगातार लगे हैं कि वे यह बात व्यापक जनमानस में गहरे बिठा दें कि भारत दुनिया में सबसे प्राचीन देश और सभ्यता है, कि हिंदू धर्म सबसे प्राचीन धर्म है और कि भारत में नस्ली शुद्धता न केवल बची हुई है बल्कि पुनर्जीवित की जा सकती है, की जाना चाहिए.

यह रिपोर्ट बताती है कि भारत की प्राचीनता असंदिग्ध है पर वह उतना और एकमात्र प्राचीन नहीं है जैसा कि फैलाया जा रहा है. रिपोर्ट यह भी बताती है कि सिंधु घाटी सभ्यता और वैदिक जन में निरंतरता नहीं है.

हार्वर्ड विश्वविद्यालय के चिकित्सा विद्यालय ने संसार भर के वैज्ञानिकों को एकत्र कर दक्षिण एशिया की प्रागैतिहासिक आबादी पर एक निश्चयात्मक रिपोर्ट बनाई है. उससे प्रगट है कि इंडो-आर्यन भाषाएं बोलने वाले यूरेशियन स्‍टेपीज़ से कई सदियों बाद जब आए तब तक सिंधु सभ्यता का पतन हो चुका था.

शुद्धता का मुद्दा सामाजिक और राजनीतिक दोनों ही रूप से बेहद ख़तरनाक है: दूसरे महायुद्ध के दौरान साठ लाख से अधिक यहूदियों, जिप्सियों आदि का जनसंहार इसी आधार पर हुआ था कि वे नस्ली तौर पर अशुद्ध ठहराए गए थे, हिटलर द्वारा.

भारत सरकार के ही एक संस्थान भारतीय नृतत्व सर्वेक्षण ने लगभग तीस वर्ष पहले भारतीय जन का समाजवैज्ञानिक अध्ययन किया था. इस उपक्रम में दो सौ से अधिक समाजवैज्ञानिक शामिल थे और उनके सर्वेक्षण पर आधारित पचास से अधिक पुस्तकें ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित हुई हैं.

इस सर्वेक्षण के दो व्यापक निष्कर्ष थे. पहला तो यह कि भारत में 4,600 से अधिक सामाजिक समूह हैं और दूसरा कि उनमें से एक भी नस्ली शुद्धता का दावा नहीं कर सकता. नस्ली सम्मिश्रण प्राचीन काल से ही भारत में होता रहा है और यह निर्णायक रूप से कहा जा सकता है कि भारत नस्ली सम्मिश्रण की निरंतरता का विश्व-रूपक है.

यह अनदेखा नहीं जाना चाहिए कि शुद्धता के दावों के लिए कोई वैज्ञानिक या पुरातात्विक साक्ष्य नहीं है. विज्ञान और पुरातत्व तो शुद्धता की स्थिति को असिद्ध ही करते हैं.

भारत में इस समय विज्ञान की लगातार उपेक्षा और अवज्ञा हो रही है: आग्रह टेक्नोलॉजी पर बहुत अधिक है- इस क़दर कि वैज्ञानिक-बोध को दबाया जा रहा है. यह ज्ञान मात्र की अवमानना का समय है: बुद्धि, तर्क, तथ्य, संवाद, असहमति आदि सभी हाशिये पर फेंके जा रहे हैं.

ठीक इसलिए ऐसे समय में ऐसी व्यापक रिपोर्ट का महत्व है. उसका बौद्धिक महत्व है और नैतिक भी. हमें अपने को अज्ञान से ज्ञान की ओर, असत्य से सत्य की ओर ले जाने के लिए सिर्फ़ प्रार्थना नहीं करना है बल्कि सकर्मक होकर कुछ प्रयत्न करना है. यह सामूहिक प्रयत्न ऐसा ही कर्म है.

रिल्के फिर-फिर

रिल्के को बार-बार पढ़ना मेरी ज़िद या व्यसन भर नहीं है. उनका अकेली अंग्रेजी भाषा में लगभग तीन-चार वर्षों में नया अनुवाद आ जाता है जो इस बात का प्रमाण है कि उन्हें और लोग भी चाव से पढ़ रहे हैं और कुछ तो इतने चाव से कि उन्हें उनका नया अनुवाद करना ज़रूरी जान पड़ता है.

रिल्के ऐसे आधुनिक थे जिन्हें आधुनिकता विरोधी भी कहा जा सकता है. वे जिस निरंतरता में विश्वास करते थे, उनके नज़दीक, आधुनिकता उसे खंडित कर रही थी. वे परम प्रश्न पूछने वाले, ऐसे प्रश्न पूछने वाले कवि थे जिनके कोई उत्तर संभव नहीं थे- हम कौन हैं, मृत्यु क्या है, क्या प्रेमियों के विशेषाधिकार हैं, कला हमें क्या दे सकती है?

पोलिश कवि अदम जागेवस्की ने अपने एक निबंध में कहा है कि कविता का मुख्य क्षेत्र मनन का होता है, भाषा के सघन साधनों के द्वारा, मानवीय और ग़ैर-मानवीय सचाइयों पर, उनके अलगाव पर, उनके संवाद पर, वह ट्रैजिक हो या आनंदप्रद, मनन का.

रिल्के का फ़रिश्ता चौकसी करता है आनंद की अनुभूति, विस्मय और रहस्यपूर्ण अज्ञान के क्षणों, पढ़ने की मधुर मंदगति के क्षणों पर जिनसे आधुनिकता से हमें वंचित कर दिया है. रिल्के के पास फिर-फिर जाने का आशय सचाई के निश्शेष रहस्य और विस्मय को फिर छूने की कोशिश है.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)