अप्रैल 2007 में इंडिया टुडे में ब्रिटेन में पदस्थ तीन भारतीय राजनयिकों पर लगे आरोपों को लेकर एक लेख प्रकाशित हुआ था. इसे लेकर अरुण पुरी के ख़िलाफ़ दर्ज मानहानि की शिकायत ख़ारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि लेख लिखने वाले पत्रकार के कृत्य के लिए प्रधान संपादक को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता.
नई दिल्ली: उच्चतम न्यायालय ने 2007 में प्रकाशित एक कथित मानहानिकारक लेख को लेकर ‘इंडिया टुडे’ के संस्थापक-निदेशक अरुण पुरी के खिलाफ दायर आपराधिक मानहानि की शिकायत सोमवार को खारिज कर दी, लेकिन लेख लिखने वाले पत्रकार को राहत देने से इनकार कर दिया.
शीर्ष अदालत ने कहा कि शिकायत में लगाए गए आरोपों में पुरी को जिम्मेदार ठहराने के लिए कुछ भी खास तथ्य नहीं है. न्यायालय ने दिल्ली उच्च न्यायालय के अप्रैल 2021 के आदेश के खिलाफ तीन लोकसेवकों द्वारा दायर अपील भी स्वीकार कर ली.
उच्च न्यायालय ने उनकी उन अपीलों को खारिज कर दिया था, जिसमें एक मजिस्ट्रेट अदालत द्वारा जारी समन को रद्द करने का आग्रह किया गया था.
प्रधान न्यायाधीश उदय उमेश ललित की अध्यक्षता वाली पीठ ने उस पत्रकार की याचिका को स्वीकार करने से इनकार कर दिया, जिसने ‘इंडिया टुडे’ पत्रिका में कथित मानहानिकारक लेख लिखा था. पीठ के सदस्यों में जस्टिस बेला ए.म त्रिवेदी भी शामिल हैं.
पीठ ने 17 पृष्ठों के अपने फैसले में कहा, ‘इन सिद्धांतों के आलोक में, यदि हम शिकायत में लगाए गए आरोपों पर विचार करें, तो हम पाते हैं कि ए-1 (पुरी), प्रधान संपादक, को जिम्मेदार ठहराने के लिए कुछ भी खास तथ्य नहीं है.’
न्यायालय ने कहा, ‘इसलिए, उन्हें लेख लिखने वाले ए-2 (पत्रकार) द्वारा किए गए कृत्य के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता. शिकायत में लगाए गए आरोप ए-1 के खिलाफ कोई मामला बनाने में पूरी तरह से नाकाम साबित होते हैं.’
मानहानि की शिकायत पत्रिका में अप्रैल 2007 में प्रकाशित एक लेख ‘मिशन मिसकंडक्ट’ को लेकर दर्ज कराई गई थी और इसमें एडिनबरा में तैनात एक भारतीय मिशन अधिकारी के खिलाफ आरोप लगाए गए थे.
लाइव लॉ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस लेख में विस्तार से बताया गया कि कैसे ब्रिटेन में भारतीय उच्चायोग में पदस्थ तीन भारतीय अधिकारियों को मार्च 2007 में कई गंभीर आरोपों का सामना करने के बाद वापस बुलाना पड़ा, समाचार पत्रिका ने इसे शर्मनाक करार दिया था.
लेख के अनुसार, इन आरोपों में ‘यौन दुराचार, वीजा जारी करने में भ्रष्टाचार और अवैध अप्रवासियों को भारतीय पासपोर्ट की बिक्री’ शामिल है.
रिपोर्ट के अनुसार, लेख में भारतीय विदेश सेवा के 1989 बैच के एक अधिकारी का विशिष्ट संदर्भ दिया गया था, जिन्हें उन्हीं की तरह उसी मिशन पर कार्यरत एडिनबरा के एक स्थानीय कर्मचारी से यौन संबंध बनाने की मांग करने संबंधी आरोपों का सामना करना पड़ा था.
इसके अलावा, लेखों में कहा गया कि बाद की जांच में वित्तीय अनियमितताएं भी सामने आईं और घर वापस भेजे जाने के बाद आरोपी राजनियकों को अनुशासनात्मक कार्रवाई का सामना करना पड़ा.
लेख के प्रकाशन के बाद पुरी सहित कई लोगों के खिलाफ शिकायत दर्ज की गई, जिसमें आरोप लगाया गया कि लेख मानहानिकारक था और भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की विभिन्न धाराओं के तहत कार्रवाई की मांग की गई.
इस दौरान पुरी के वकील ने कहा कि प्रेस और पुस्तक पंजीकरण अधिनियम- 1867 की धारा 7 के तहत, केवल एक ‘प्रिंटर/संपादक’ पर मुकदमा चलाया जा सकता है. इस पर शीर्ष अदालत ने माना कि यह मामले के तथ्यों पर निर्भर करता है.
लाइव लॉ के मुताबिक, लेख के लेखक के संबंध में पीठ ने कहा, ‘उन्होंने जो किया, वह उचित ठहराने लायक कार्य था या नहीं, यह केवल सुनवाई के दौरान ही साबित होगा.’
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)