राजद्रोह क़ानून पर रोक का आदेश बरक़रार, सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को समीक्षा के लिए और वक़्त दिया

बीते मई महीने में सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक आदेश में राजद्रोह क़ानून पर उस तक के लिए रोक लगा दी थी, जब तक कि केंद्र औपनिवेशिक काल के इस क़ानून की समीक्षा के अपने वादे को पूरा नहीं करता. कोर्ट ने कहा था कि इसकी समीक्षा होने तक क़ानून के इस प्रावधान का उपयोग न किया जाए.

(इलस्ट्रेशन: द वायर)

बीते मई महीने में सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक आदेश में राजद्रोह क़ानून पर उस वक़्त तक के लिए रोक लगा दी थी, जब तक कि केंद्र औपनिवेशिक काल के इस क़ानून की समीक्षा के अपने वादे को पूरा नहीं करता. कोर्ट ने कहा था कि इसकी समीक्षा होने तक क़ानून के इस प्रावधान का उपयोग न किया जाए.

(इलस्ट्रेशन: द वायर)

नई दिल्ली: विवादास्पद राजद्रोह कानून और इसके परिणामस्वरूप दर्ज की जाने वाली प्राथमिकियों पर अस्थायी रोक लगाने वाला आदेश बरकरार रहेगा.

दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को औपनिवेशिक काल के इस प्रावधान की समीक्षा करने के लिए ‘उपयुक्त कदम’ उठाने के वास्ते सोमवार को अतिरिक्त समय दे दिया.

प्रधान न्यायाधीश उदय उमेश ललित और जस्टिस एस रवींद्र भट्ट तथा बेला एम. त्रिवेदी की पीठ से अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमानी ने कहा कि केंद्र को कुछ और वक्त दिया जाए क्योंकि ‘संसद के शीतकालीन सत्र में (इस सिलसिले में) कुछ हो सकता है.’

द हिंदू के अनुसार, देश के शीर्ष विधि अधिकारी ने कहा कि यह विषय संबद्ध प्राधिकारों के विचारार्थ है और प्रावधान के इस्तेमाल पर रोक लगाने वाले 11 मई के अंतरिम आदेश के मद्देनजर चिंता करने का कोई कारण नहीं है.

इस पर पीठ ने कहा, ‘आर. वेंकटरमानी, अटॉर्नी जनरल, ने दलील दी है कि 11 मई 2022 को इस न्यायालय द्वारा जारी किए गए निर्देशों के संदर्भ में यह विषय संबद्ध प्राधिकारों का अब भी ध्यान आकृष्ट कर रहा है. उन्होंने आग्रह किया कि कुछ अतिरिक्त समय दिया जाए, ताकि सरकार द्वारा उपयुक्त कदम उठाया जा सके.’

शीर्ष न्यायालय ने कहा, ‘इस न्यायालय द्वारा 11 मई 2022 को जारी अंतरिम निर्देशों के मद्देनजर… प्रत्येक हित और संबद्ध रुख का संरक्षण किया गया है तथा किसी के प्रति कोई पूर्वाग्रह नहीं है. उनके अनुरोध पर हम विषय को जनवरी 2023 के दूसरे हफ्ते के लिए स्थगित करते हैं.’

पीठ ने विषय पर दायर कुछ अन्य याचिकाओं पर भी गौर किया और केंद्र को नोटिस जारी कर छह हफ्तों में जवाब मांगा.

उल्लेखनीय है कि शीर्ष न्यायालय ने 11 मई को जारी अपने ऐतिहासिक आदेश में इस विवादास्पद कानून पर उस तक के लिए रोक लगा दी थी, जब तक कि केंद्र औपनिवेशिक काल के इस कानून की समीक्षा करने के अपने वादे को पूरा नहीं करता है.

सुप्रीम कोर्ट की एक विशेष पीठ ने कहा था कि हम उम्मीद करते हैं कि केंद्र और राज्य सरकारें किसी भी एफ़आईआर को दर्ज करने, जांच जारी रखने या आईपीसी की धारा 124ए (राजद्रोह) के तहत जबरदस्ती क़दम उठाने से तब तक परहेज़ करेंगी, जब तक कि यह पुनर्विचार के अधीन है. यह उचित होगा कि इसकी समीक्षा होने तक क़ानून के इस प्रावधान का उपयोग न किया जाए.

न्यायालय ने केंद्र और राज्य सरकारों को इस कानून के प्रावधानों के तहत कोई नया मामला दर्ज नहीं करने को भी कहा था. इसने यह भी निर्देश दिया था कि देश भर में चल रही जांच, लंबित मुकदमे और राजद्रोह कानून के तहत सभी कार्यवाही को रोक दिया जाए और राजद्रोह के आरोप में जेल में बंद लोग जमानत के लिए अदालत जा सकते हैं.

उल्लेखनीय है कि अदालत के आदेश से पहले मई महीने में केंद्र की मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में राजद्रोह से संबंधित दंडात्मक कानून (आईपीसी की धारा 124ए) और इसकी वैधता बरकरार रखने के संविधान पीठ के 1962 के एक निर्णय का बचाव किया था. केंद्र का कहना था कि लगभग छह दशकों से यह कानून बना हुआ है और इसके दुरुपयोग के उदाहरण कभी भी इसके पुनर्विचार का कारण नहीं हो सकते हैं.

शीर्ष अदालत राजद्रोह संबंधी कानून की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली विभिन्न याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी. राजद्रोह कानून उन आरोपों के बीच विवाद के केंद्र में रहा है, जिसमें कहा गया है कि विभिन्न सरकारों द्वारा राजनीतिक दुश्मनी निपटाने के लिए इसका हथियार की तरह इस्तेमाल​ किया जा रहा है.

इन आरोपों ने सीजेआई को यह पूछने के लिए प्रेरित किया था कि क्या स्वतंत्रता सेनानियों को दबाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले इस औपनिवेशिक युग के कानून की आजादी के 75 साल बाद भी जरूरत है.

एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, पूर्व मेजर जनरल एसजी वोम्बटकेरे और तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा द्वारा आईपीसी की धारा 124ए (राजद्रोह) की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं की जांच करने के लिए सहमत होते हुए शीर्ष अदालत ने कहा था कि इसकी मुख्य चिंता ‘दुरुपयोग’ है, जिससे मामलों की संख्या में वृद्धि हो रही है.

गृ​ह मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, 2014-19 के बीच छह सालों में राजद्रोह क़ानून के तहत कुल 326 मामले दर्ज किए गए, जिनमें केवल छह में दोषी करार दिए गए. इस अवधि में सबसे ज़्यादा 54 मामले असम में दर्ज किए गए, लेकिन एक में भी दोष सिद्ध नहीं हुआ.

गौरतलब है कि हाल के वर्षों में कई अदालतों ने इस कठोर कानून की आलोचना की है तथा कुछ मामलों में तो याचिकाकर्ताओं को दंडित भी किया, जिन्होंने इसके प्रावधानों को लागू करने का अनुरोध किया था.

राजद्रोह संबंधी दंडात्मक कानून के भारी दुरुपयोग से चिंतित शीर्ष अदालत ने पिछले साल जुलाई में केंद्र से पूछा था कि वह स्वतंत्रता आंदोलन को दबाने के लिए महात्मा गांधी जैसे लोगों को चुप कराने के लिए अंग्रेजों द्वारा इस्तेमाल किए गए प्रावधान को निरस्त क्यों नहीं कर रही है.

तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश एनवी रमना की अगुवाई वाली पीठ ने कहा था कि उसकी मुख्य चिंता ‘कानून का दुरुपयोग’ है और उसने पुराने कानूनों को निरस्त कर रहे केंद्र से सवाल किया कि वह इस प्रावधान को समाप्त क्यों नहीं कर रहा है. कोर्ट ने कहा था कि राजद्रोह कानून का मकसद स्वतंत्रता संग्राम को दबाना था, जिसका इस्तेमाल अंग्रेजों ने महात्मा गांधी और अन्य को चुप कराने के लिए किया था.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)