कैंपस की कहानियां: इस विशेष सीरीज़ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के शोध छात्र अंकित पाठक अफगान छात्रों से जुड़ा अपना अनुभव साझा कर रहे हैं.
हम एक ऐसे देश में रहते हैं जिसके शास्त्रों में यह लिखा गया है कि यह अपना है, वह पराया है, इसकी गणना तो छोटी मानसिकता के लोग करते हैं, उदार चरित्र के लोग तो पूरी पृथ्वी को अपना परिवार समझते हैं.
शास्त्रों में आत्मवत सर्वभूतेषु और अतिथि देवोभव जैसी बातें कही गई हैं लेकिन क्या यह पृथ्वी हमारा परिवार है, क्या इस पर रहने वाले अरबों लोगों के प्रति हमारा मनोभाव वैसा ही है जैसा अपने परिवार के सदस्यों के प्रति रहता है? क्या अपने जैसा ही हम सभी को समझते हैं? क्या हम बाहर से अपने देश में आए लोगों को देवता समान मानकर आतिथ्य देते हैं?
आज तक का इतिहास हमें बताता है कि हम ऐसा नहीं कर पाए. पिछले हफ्ते फतेहपुर सीकरी में स्विस पर्यटकों के साथ घटी घटना हमें सोचने पर मजबूर करती है कि हम अपने देश को कहां ले जा रहे हैं?
ये कहानी 21वीं सदी के उस भारत की है जहां विदेशी छात्रों के साथ तमाम शैक्षणिक संस्थानों में दुर्व्यवहार की घटनाएं आम हो चली हैं, उनका सहज रिश्ता यहां के छात्रों के साथ मुश्किल से बन पाता है.
जब व्यवस्था का पूरा ज़ोर दोस्त नहीं दुश्मन बनाने पर है, जब चारों तरह घृणा की राजनीति का पोषण किया जा रहा है, जब दो व्यक्तियों, दो मुल्कों के बीच दोस्ती और प्रेम के रिश्तों पर पहरे लगाए जा रहे हैं, जब जातियों को, धर्मों को, समुदायों को, मुल्कों को आपस में लड़ाने-भिड़ाने का पूरा प्रयोजन रचा जा रहा है, तब विदेशी छात्रों से सहज रिश्ता बन पाना आसान नहीं.
ऐसे समय में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सर सुंदर लाल छात्रावास (एसएसएल) की एनेक्सी में पिछले साल ईद की रात जो कुछ हुआ उसका बयान ज़रूरी है.
यूं तो इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अफ़गानी छात्र भारत सरकार के एक समझौते के तहत पढ़ने आते हैं, उन्हें अधिकतम पांच साल का वीज़ा मिलता है, अफगानी छात्रों के भारत आने की प्रक्रिया 2007 के बाद तेज़ी से बढ़ी है, इसी क्रम में वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय (इविवि) के अलग-अलग कोर्सेस में एडमिशन लेते हैं.
कहने को तो इलाहाबाद विश्वविद्यालय में विदेशी छात्रों के लिए एकमात्र ‘इंटरनेशनल हॉस्टल’ है जिसका आज तक नामकरण नहीं किया जा सका है, वहां भी पिछले साल तक ज़्यादातर कमरों में भारतीय छात्र ही कब्ज़ा जमाए थे, कुछ वैध और कुछ अवैध.
इस साल हॉस्टल वाश आउट के बाद स्थिति में कुछ सुधार हुआ है. इंटरनेशनल हॉस्टल में कमरा न मिल पाने के कारण कुछ अफगानी छात्रों को अलग-अलग हॉस्टलों में रखा गया था.
मेरा कमरा एसएसएल एनेक्सी की दूसरी मंज़िल पर था. वहीं पर चार अफ़गानी छात्र भी रहते थे. उनके रहन-सहन से ये लगता था कि वे अफ़गानिस्तान के उच्च वर्ग से ताल्लुक़ रखते हैं.
ईद का दिन था, दिन में हमें तपती गर्मी से तब राहत मिली थी जब बादल झूमकर बरस पड़े थे, हमने अपने दोस्तों को बधाइयां दी थीं, सेवई खाई थी लेकिन ईद की रात में जो कुछ हुआ वह बरबस याद आता है.
अफ़गानी दोस्तों ने दिनभर रात के जश्न की तैयारियां की थीं, यह दिनभर उनकी भाग-दौड़ में नज़र आ रहा था, शाम को बिरयानी की ख़ुशबू हमारे कमरे तक आ रही थी.
हॉस्टल में ईद का जश्न साहिल नाम के अफ़गानी छात्र की तरफ से रखा गया था, साहिल ने इलाहाबाद में रह रहे अपने तकरीबन 25 दोस्तों को बुलाया था. रात 11 बजे तक सभी हॉस्टल की छत पर जमा हो चुके थे.
मख़मली कालीन के चारों ओर बिछे गद्दों पर वे गोलाई बनाकर बैठ गए थे. हिंदी, अंग्रेज़ी, अफ़गानी गानों से भरा एक लैपटॉप छोटे से म्यूज़िक सिस्टम के साथ सभी को थिरकाने के लिए तैयार हो चुका था.
यह सब मैंने तब देखा जब फोन पर बात करते-करते मैं छत पर चला आया था. छत के एक कोने में खड़ा होकर दूसरे कोने में चल रहे ईद के जश्न को देखना मेरे मन में एक लालच पैदा कर रहा था.
काश उनके इस जश्न में मैं भी शामिल हो पाता. मैं सोचता रहा कि काश ये जो देशों और त्योहारों की दूरी है वह ख़त्म हो जाती, लेकिन हॉस्टल का ऐसा माहौल था कि उनके जश्न में एक भी भारतीय छात्र शामिल नहीं था.
शायद अपने देश से दूर उन्होंने पहली बार एक साथ इकट्ठा होकर ईद की सेवइयां खाई होंगी..! साउंड सिस्टम में कोई अफ़गानी गीत बज रहा था, गोलाई में से निकल उनमें से कोई एक बीच में आता था और हौले-हौले झूमते हुए नाचता था, फिर वे जोड़ी बनाकर बीच में आने लगे और एक दूसरे के कंधे पर हाथ रखे पहले थोड़ा झुकते थे फिर उठते थे.
यह उनके नाचने-झूमने की एक लय थी, जो उनके गीतों की धुन पर हो रहा था, धीरे-धीरे उनकी गति तेज़ होने लगी और सभी एक साथ उठकर बीच में आ गए और एक-दूसरे के कंधों पर हाथ रखे गोलाई बनाकर नाचने लगे. गीत के बोल मुझे समझ नहीं आ रहे थे लेकिन संगीत की यह ताकत थी कि मेरे पैर ख़ुद-ब-ख़ुद थिरकने लगे.
अब तक तकरीबन रात के एक बज रहे थे, मैं दौड़कर नीचे आया, मेरे कमरे पर मेरे मित्र किशन और आयुष आए हुए थे. मैंने उनसे कहा चलो ऊपर चलकर ‘ईद के जश्न’ में शामिल हुआ जाए, हमें कोई औपचारिक आमंत्रण नहीं मिला था, हमने ख़ुद ही ख़ुद को आमंत्रित कर लिया.
आयुष और किशन ने जल्दी से सिगरेट ख़त्म की और तैयार हो गए, हम तीनों एक साथ ऊपर गए. चूंकि हम बिन बुलाए मेहमान थे तो हॉस्टल के बाहर से आए अफ़गानी दोस्त एक पल के लिए हमें देखकर चौंके, लेकिन साहिल ने उनके बीच से उठकर सबसे पहले हमारा स्वागत किया, हम तीनों ने गले मिलकर सभी को ईद की बधाई दी. फिर हम भी गोले में बैठकर शामिल बाजा हो गए.
बैठते ही मैंने एक प्रस्ताव रखा कि सभी अपने पसंद का एक-एक गीत गायेंगे. शुरुआत अफ़गानी साथियों ने की. गीत सुनकर हम तीनों दोस्त हैरत में थे, वे हिंदी फिल्मों के गीत एक के बाद एक गाए जा रहे थे.
कुमार सानू उनके प्रिय थे, ‘तुझे देखा तो ये जाना सनम प्यार होता है दीवाना सनम’, ‘ये दिल आशिकाना’, ‘उठा ले जाऊंगा’, ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा’ जैसे गीत उनकी ज़बान पर थे, हम तालियां बजाकर उनकी हौसलाअफजाई कर रहे थे.
नब्बे के दशक की हिंदी फिल्मों के गाने उनके सबसे प्रिय गाने थे. अफ़गानी साथियों में एक ऐसे थे जिन्होंने संगीत सीखा था, सभी उन्हें ‘प्रोफेशनलिस्ट’ कहकर बुला रहे थे. उनकी तरफ गीतों की फरमाइश सबसे ज़्यादा की जा रही थी.
वे थोड़े शर्मीले किस्म के थे, उन्होंने सर झुकाकर गाना शुरू किया, फिल्म ‘साजन’ का गीत था ‘देखा है पहली बार साजन की आंखों में प्यार’, उनके गाने के शर्मीले अंदाज़ ने हम सभी को जोरदार ठहाका लगाने पर मजबूर किया, सभी देर तक हंसते रहे. इसके बाद उन्होंने इसी फिल्म का एक और गीत ‘बहुत प्यार करते हैं तुमको सनम’ गाया.
गीतों का सफ़र चलते-चलते शेरो-शायरी तक आ पहुंचा. बीकॉम के छात्र अब्दुल ने ऐसा शेर सुनाया कि लोगों ने एक बार फिर ठहाका लगाया. शेर था…
तेरे इश्क़ ने दिल को बना दिया है सरकारी दफ़्तर,
न कोई काम करता है, न किसी की बात सुनता है.
उधर से फरमाइश हुई तो इधर से किशन ने गाने का सिलसिला शुरू किया, फिर तो फरमाइशें बढ़ती गईं, इकबाल बानो से शुरू होकर जगजीत सिंह, ग़ुलाम अली, नुसरत फ़तेह अली ख़ान और अरिजीत सिंह तक के गीतों की डिमांड की गई.
किशन ने एक के बाद एक गीत गाए, सारे गीतों पर अफ़गानी दोस्तों के साथ हम सब झूम रहे थे. तकरीबन रात दो-ढाई बजे तक हमारी महफ़िल समाप्त हुई.
वैसे तो मैं हिंदी सिनेमा का छात्र अपने एमए के दिनों से हूं लेकिन शोध के दौरान यह मेरे लिए पहला मौका था जब हिंदी फिल्मों और गानों के प्रति भारत के अलावा और देशों के लोगों का लगाव दिखा था.
मेरे लिए यह एकदम प्राइमरी डेटा था, इसके पहले हिंदी फिल्मों की चर्चा की बातें दुनियाभर में होती हैं, यह केवल किताबों में पढ़ा था. अफगानिस्तान में हिंदी फिल्मों को लेकर एक तरह का क्रेज़ था, पाकिस्तान में जब हिंदी फिल्मों पर प्रतिबंध लगा तो अफगानिस्तान के रास्ते हिंदी फिल्में पायरेटेड फॉर्म में पहुंचती थी और अब जबकि दुनिया में वैश्वीकरण की बयार चल रही है तो तकनीक ने हिंदी सिनेमा को विभिन्न देशों के भीतर स्वीकार्य बना दिया है.
यह कला की ताकत भी है कि वह सरहदों में बंधकर नहीं रह पाती. अफ़गानी दोस्तों का हिंदी फिल्मों और हिंदी गानों के प्रति प्रेम इस बात का प्रमाण है कि किस क़दर हिंदुस्तान की कला से प्यार करते हैं.
लेकिन क्या यह प्यार यहां के लोगों के प्रति भी है? निश्चित तौर पर है लेकिन उनसे बातचीत और रिश्ते बनाने में जो एक तरह का संकोच है वह पहले हमें ही ख़त्म करना होगा, हमें ही पहले मेजबानी करनी होगी, हम जो वसुधैव कुटुंबकम में यकीन करने वाली परंपरा से आते हैं, शायद भूल गए हैं कि हमें अपने मेहमानों का स्वागत कैसे करना चाहिए.
विश्वविद्यालयों के भीतर उन्हें आए दिन तरह-तरह के भेदभावों से गुज़रना पड़ता है. हॉस्टल और कोर्सेज में उनसे मोटी फीस वसूली जाती है और सुविधाओं के नाम पर बहुत कम दिया जाता है.
उनकी ‘सेंस ऑफ़ बिलॉन्गिंग’ केवल अपने अफ़गानी दोस्तों से ही बन पाती है. कोई ऐसा साझा मंच भी नहीं है जो उन्हें एक साथ ला सके. इस कहानी को आप से साझा करने का यही मक़सद है कि हमारे आसपास दूसरी जगहों से आए लोगों के साथ हम अजनबी जैसा व्यवहार न करें बल्कि उनसे एक संवाद स्थापित करें. उनसे एक सांस्कृतिक रिश्ता कायम करें.
(आपके पास कैंपस से जुड़ा कोई अनुभव है और आप हमसे साझा करना चाहते हैं तो [email protected] पर मेल करें.)