विरोध प्रदर्शन नागरिक संस्थाओं के लिए एक साधन की तरह है: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका की सुनवाई करते हुए कहा कि जिस तरह कर्मचारियों के लिए हड़ताल एक हथियार है, उसी तरह विरोध प्रदर्शन करना नागरिक संस्थाओं के लिए एक साधन है.

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(फोटो: पीटीआई)

सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका की सुनवाई करते हुए कहा कि जिस तरह कर्मचारियों के लिए हड़ताल एक हथियार है, उसी तरह विरोध प्रदर्शन करना नागरिक संस्थाओं के लिए एक साधन है.

(फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: उच्चतम न्यायालय ने बुधवार को कहा कि जिस तरह कर्मचारियों के लिए हड़ताल एक हथियार है, उसी तरह विरोध प्रदर्शन करना नागरिक संस्थाओं के लिए एक ‘साधन’ है.

उच्चतम न्यायालय ने एक शख्श रवि नंबूथिरी द्वारा दायर याचिका की सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की. याचिकाकर्ता ने केरल उच्च न्यायालय के उस फैसले को चुनौती दी थी, जिसमें नवंबर 2015 में रवि के पार्षद चुने जाने को रद्द करने के निचली अदालत के फैसले को बरकरार रखा गया था.

पद के लिए उनका चुनाव इस आधार पर रद्द कर दिया गया था कि उन्होंने अपने नामांकन में एक आपराधिक मामले में अपनी संलिप्तता को छिपाया था और इस तरह उन्होंने एक भ्रष्ट आचरण किया.

जस्टिस एस. अब्दुल नजीर और जस्टिस वी. रामसुब्रमण्यम की पीठ ने कहा कि केरल पुलिस अधिनियम औपनिवेशिक युग के कुछ पुलिस अधिनियमों का उत्तराधिकारी कानून था जिसका उद्देश्य स्वदेशी आबादी की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को खत्म करना था.

समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, पीठ ने कहा, ‘जिस तरह हड़ताल श्रमिकों का और तालाबंदी नियोक्ता के हाथ में एक हथियार की तरह है, उसी तरह विरोध प्रदर्शन नागरिक संस्थाओं के लिए एक साधन है. पुलिस कार्रवाई एक उपकरण है केरल पुलिस अधिनियम, मद्रास पुलिस अधिनियम आदि जैसे सभी राज्य अधिनियम, पुलिस बल के बेहतर विनियमन के उद्देश्य से हैं और वे वास्तविक अपराध पैदा नहीं करते हैं.’

पीठ ने कहा, ‘यही कारण है कि ये अधिनियम स्वयं पुलिस को कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए आवश्यक निर्देश जारी करने का अधिकार देते हैं और इनमें से किसी भी निर्देश का उल्लंघन इन अधिनियमों के तहत दंडनीय अपराध है.’

पुलिस की शिकायत के मुताबिक, 20 सितंबर, 2006 को नंबूथिरी और अन्य गैरकानूनी रूप से एकत्र हुए और अन्नामनदा ग्राम पंचायत के कार्यालय परिसर में धरना आयोजित करने के लिए एक अस्थायी पंडाल लगाया.

अपीलकर्ता को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) और केरल पुलिस अधिनियम के तहत दंडनीय अपराधों के लिए दोषी ठहराया गया था. बाद में एक सत्र अदालत ने आईपीसी की धाराओं के तहत उसकी सजा को रद्द कर दिया. हालांकि, इसने केरल पुलिस अधिनियम के तहत उसकी सजा को बरकरार रखा और उसे 200 रुपये का जुर्माना भरने का निर्देश दिया.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)

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