भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने कहा कि कोई भी यह नहीं कह सकता है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम प्रणाली सबसे उत्तम प्रणाली है, लेकिन इस प्रणाली में सुधार किया जा सकता है जैसा कि प्रधान न्यायाधीश ने हाल ही में उल्लेख किया था.
नई दिल्ली: भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने शनिवार को कहा कि न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर विकल्प मुहैया कराए बिना कॉलेजियम प्रणाली की आलोचना करने का कोई मतलब नहीं है.
उनकी टिप्पणी कॉलेजियम प्रणाली के बारे में सरकार सहित विभिन्न तबकों से आलोचना की पृष्ठभूमि के मद्देनजर आई है.
जस्टिस ठाकुर ने कहा, ‘हर दिन आप किसी को यह कहते हुए सुनेंगे कि कॉलेजियम प्रणाली सही प्रणाली नहीं है. कोई भी यह नहीं कह सकता है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम प्रणाली सबसे उत्तम प्रणाली है, लेकिन कॉलेजियम प्रणाली में सुधार किया जा सकता है जैसा कि प्रधान न्यायाधीश ने हाल ही में उल्लेख किया था.’
वह स्पष्ट रूप से जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की टिप्पणी का जिक्र कर रहे थे, जिन्होंने नौ नवंबर को प्रधान न्यायाधीश के रूप में शपथ ली थी.
ठाकुर दिसंबर 2015 से जनवरी 2017 तक प्रधान न्यायाधीश थे.
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, ठाकुर ने राष्ट्रीय राजधानी में एक समारोह में कहा, ‘मुझे नहीं लगता कि कोई भी संभवत: व्यवस्था में सुधार के प्रयास के खिलाफ बहस कर सकता है.’
उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का चयन करने के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग में लाने के लिए एक संवैधानिक संशोधन को रद्द करने के बारे में भी उल्लेख किया.
गौरतलब है कि अक्टूबर 2015 में जजों द्वारा जजों की नियुक्ति की 22 साल पुरानी कॉलेजियम प्रणाली की जगह लेने वाले संसद के दोनों सदनों द्वारा सर्वसम्मति से पारित एनजेएसी अधिनियम, जिसके तहत उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति में कार्यपालिका को एक प्रमुख भूमिका दी गई थी, को निरस्त कर दिया था.
उन्होंने कहा, ‘अदालत में इसका परीक्षण किया गया और अदालत ने पाया कि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता से समझौता कर रहा था. इसका मतलब यह नहीं है कि यदि कोई अन्य अवसर है या यदि वही काम करने का कोई अन्य तरीका नहीं है… ऐसा है तो जैसे हो सके कृपया उसे करें.’
ठाकुर ने कहा, ‘कोई विकल्प दिए बिना व्यवस्था की आलोचना करना हमें कहीं नहीं ले जाता. कुछ मसले हैं, चाहे वह संघवाद का हो या मौलिक अधिकारों या देश की धर्मनिरपेक्ष साख की रक्षा का, ये ऐसे पहलू हैं जिन पर अंततः एक स्वतंत्र न्यायपालिका द्वारा ही ध्यान दिया जा सकता है. यही वह बिंदु है जहां मुझे लगता है कि न्यायपालिका और मीडिया की भूमिका बहुत महत्व रखती है.’
उल्लेखनीय है कि पिछले महीने केंद्रीय कानून और न्याय मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा था कि देश के लोग कॉलेजियम सिस्टम से खुश नहीं हैं और संविधान की भावना के मुताबिक जजों की नियुक्ति करना सरकार का काम है. उनका कहना था, ‘संविधान की भावना को देखा जाए तो न्यायाधीशों की नियुक्ति सरकार का ही काम है. दुनिया में कहीं भी न्यायाधीशों की नियुक्ति न्यायाधीश बिरादरी नहीं करती हैं.’
उन्होंने यह भी कहा था, ‘देश का कानून मंत्री होने के नाते मैंने देखा है कि न्यायाधीशों का आधा समय और दिमाग यह तय करने में लगा रहता है कि अगला न्यायाधीश कौन होगा. मूल रूप से न्यायाधीशों का काम लोगों को न्याय देना है, जो इस व्यवस्था की वजह से बाधित होता है.’
ज्ञात हो कि सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायाधीश करते हैं और इसमें अदालत के चार वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं. इस व्यवस्था को अक्सर इसके आलोचकों द्वारा अपारदर्शी करार दिया गया है.
गौरतलब है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली अक्सर ही आलोचना का केंद्र रहती है. हालांकि, सीजेआई के तौर पर अपने कार्यकाल के दौरान जस्टिस एनवी रमना ने कॉलेजियम प्रणाली का बचाव करते हुए कहा था कि न्यायिक नियुक्तियों पर उच्चतम न्यायालय के फ़ैसले जनता के विश्वास को बनाए रखने के मक़सद से होते हैं.
उनका कहना था कि न्यायाधीशों की नियुक्ति लंबी परामर्श प्रक्रिया के माध्यम से होती है, जहां कई हितधारकों के साथ विचार-विमर्श किया जाता है.
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)