‘खेला’ अपने बिखराव और उलझाव के बावजूद साहसिक उपन्यास है…

पुस्तक समीक्षा: नीलाक्षी सिंह का ‘खेला’ आसानी से हाथ आने वाला कथानक नहीं है. इसमें कई पात्रों का भंवर जाल-सा है, तो कहीं लगता है कि समकालीन विमर्शों का लावा फूट पड़ा है.

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(फोटो साभार: सेतु प्रकाशन)

पुस्तक समीक्षा: नीलाक्षी सिंह का ‘खेला’ आसानी से हाथ आने वाला कथानक नहीं है. इसमें कई पात्रों का भंवर जाल-सा है, तो कहीं लगता है कि समकालीन विमर्शों का लावा फूट पड़ा है.

(फोटो साभार: सेतु प्रकाशन)

खेला’ अपने बिखराव और उलझाव के बावजूद नीलाक्षी सिंह का साहसिक उपन्यास है, एक भंवर जाल सा- कई चेहरों के ख़ोल में लिपटा हुआ, जो अंततः अदृश्य या ओझल होकर प्रोटोटाइप में ढल जाता है.

यूं कहें कि नीलाक्षी ने अपनी कहानियों को ताश का पत्ता बना दिया है, जिसे री-शफल करते हुए अर्थ गांठने की मशक़्क़त उठानी पड़ सकती है, और अगर किसी कारणवश ये गांठ खुली या ढीली रह जाए तब भी इन बिखरे पन्नों की व्यथा सुनाई पड़ती है.

ये आसानी से हाथ आने वाला कथानक नहीं है, इसलिए कई मानों में इसे दुरुह की श्रेणी में रखने से भी मुझे गुरेज़ नहीं है. दरअसल, इसके स्टोरी-लाइन में एक तरह की प्रवंचना का गुमान होता है, जिसे डिकोड करने की कोशिश करें तो कह सकते हैं कि इसमें कच्चे तेल की सियासी बू है, आतंकी दुनिया के मंज़र हैं, सेना और सिपाही हैं, विस्थापन की त्रासदी और यातनाएं हैं.

साथ ही, पुलिस और सरकारों की निगरानी है, पहचान की सियासत है, प्रेम और विवाह की उलझनें हैं, रिश्तों का कड़वापन है, सत्ता की उठापटक है, विश्व बाज़ार का विषैलापन है, इस्लामिक स्टेट के ख़ूनी इरादे हैं, विकास के झूठे नारे हैं, औरतों के आज़ाद फ़ैसले हैं और ऐसे ही कई दूसरे अनुक्रमों के साथ अल्पसंख्यकों की पेशानी पर लिख दी गई उनकी ‘तक़दीर’ के बहुत सारे बिंब और मानी-ख़ेज़ इशारे हैं.

एक तरह से हमारी दुनिया की होनी-अनहोनी; बल्कि उसके अंधेरों और ख़ामोशी में अंदर तक पैवस्त इन विषयों पर क़ैय करते हुए, उनको रौंदते हुए और इनसे ही उपजी हमारी ग़लाज़त को दिखाते हुए ये उपन्यास अपने विशालकाय संरचना के भ्रम को तोड़ देता है. और शिल्प के इसी ढोंग और स्वांग की कोख से मूल कहानी पैदा होती है.

लेकिन जैसा कि मैंने इन मसलों के आवरण को ‘फ्रॉड’ के रूप में रेखांकित करने की कोशिश की है, जो कई मानों में प्रत्याशित या अप्रत्याशित घटनाक्रम की तरह इस आख्यान के रहन-सहन का हिस्सा बन गए हैं और कहीं-कहीं हावी भी हो गए हैं, तो असल में मुझे कहना चाहिए कि ये चंद औरतों और कुछ मर्दों के ‘सियाह कोनों’ की सशक्त कहानी है; बल्कि मुख्य तौर पर ये औरतों की बीती है, एक ऐसी कहानी जो अपनी ही मौज में लिपटी हुई सिर पटकती है और दिशाओं की खोज करती है.

और अंत में ये सिर्फ़ एक औरत वरा कुलकर्णी, चाहें तो इसे मुख्य पात्र कह लें- की रूह का बयान बन जाती है और सारे किरदार प्रोटोटाइप में ढल जाते हैं. फिर ये वरा कुलकर्णी भी ओझल हो जाती है और सहसा कई चेहरों के ख़ोल से एक ‘इंसान’ की गाथा बरामद होती है, एक ऐसे इंसान की गाथा जो दुनिया के तमाम क़िस्सों से आज़ाद है.

यहां लिंग, धर्म, देश और पहचान के तमाम हवाले मिटते हुए से लगते हैं, ये इंसान भारत का हो सकता है और बुडापेस्ट का भी, या इससे अलग पहचान की जड़ें उसकी आंखों के आसेब पर अपना साया भी कर सकती हैं – शायद सुख का या शायद दुख का…

मैंने ‘खेला’ को कई पात्रों के भंवर-जाल की संज्ञा भी इसी लिए दी है कि अगर इसको लहरों की सूरत अलहदा-अलहदा पकड़ने की कोशिश की जाए तो असल क़िस्सा जो ‘पानी’ और उसके ठहराव; मतलब हमारी ऑन्टोलजी [Ontology] का है, उसका नज़ारा ही बुझ जाएगा.

लहरों की चकरघिन्नी में पानी के मूल तक जाने वाली इस कथा से गुज़रते हुए अचानक एक अदृश्य दुनिया हम पर खुलती है, फिर इन सब बातों का कोई मतलब नहीं रह जाता कि वरा कुलकर्णी अपने देश में कच्चे तेल से जुड़े शेयर बाज़ार के ट्रेंड्स का आकलन करने वाली कंपनी में काम करते हुए बुडापेस्ट पहुंची है, और वो ऐसे परिवेश से आई है जहां मिक्सर-ग्राइंडर का शोर नहीं, सिल-बट्टे की ध्वनि है, जहां संयुक्त परिवार में बंटवारे के बाद दीवारों का नहीं बोरे के पर्दों का चलन है और उन बोरों में आज भी किसी की बनाई झिरियां मौजूद हैं…

कहानी इन्हीं झिरियों से शुरू होती है और हिर-फिर कर इसी दायरे में क़दम रखती है, इस दायरा को पूरा करने के कालखंड में वरा कुलकर्णी के जीवन में दिलशाद, अफ़रोज़, मिसेज़ गोम्स, टिम और कई दूसरे लोग शामिल होते हैं.

यहां वरा के पहले प्रेमी के मुसलमान होने के सवाल से लेकर दूसरे प्रेमी के आतंकी होने और उसके साथ बलात्कार के घटनाक्रम तक उसकी समानांतर दुनिया में और उसके संपर्क में आए दूसरे पात्रों के जीवन में भी बहुत कुछ घटित हो रहा है, एक स्क्रीनप्ले की तरह या फिर टेलीविज़न पर बदलते दृश्यों की तरह- हिंसा, कर्फ़्यू, भीड़, मंदिर, नफ़रत, प्रेम… या फिर प्रधानमंत्री का सेल्फ़ी लेते हुए स्मार्ट सिटी का उद्घाटन करना आदि… गोया देश-विदेश के सारे छोर मिल गए हों और सारे घटनाक्रम सत्ता का खेल बन रहे हों और यही सब मिलकर उसका लैंडस्केप तैयार कर रहे हों.

ऐसा लगता है नीलाक्षी के यहां समकालीन विमर्शों का लावा फूट पड़ा है, जिसमें पाठक की आंखें चौंधियाती हैं, उसके मुंह का स्वाद तेज़ी से बदलता है, कान सुन्न पड़ जाते हैं और हाथ-पांव कटे-कटे से महसूस होते हैं. इस बेबसी के बाद थोड़ी देर के लिए बोरे की उन्हीं झिरियों में आंख लगाने के मन करता है जहां औरतों के कई शेड्स हैं, लेकिन फिर याद आता है कि हमारी दुनिया में कालापन बहुत है जिसमें और दूसरे शेड्स के बचे रहने की गुंजाइश ज़्यादा नहीं है.

शायद इसलिए हमारे एकांत और उसके अंधेरे में फैलती हुई और कई बार उसे डसती हुई इस कहानी में सारे किरदार एक दूसरे के साथ ‘खेला’ जैसे शब्द को चरितार्थ करते नज़र आते हैं और कई बार अपने लिए बिछाए बिसात का ही तमाशा बनने लगते हैं.

बहरहाल, नीलाक्षी ने इस उपन्यास में अपनी होनहारी का परिचय देते हुए एक जगह सारी औरतों को इकठ्ठा कर दिया है, जहां वो बारी-बारी अलिफ़ लैला के शहरज़ाद की तरह कहानियां सुनाती हैं, बल्कि अपनी कहानियों को मुक्कमल करती हैं. और यही वो जगह है जहां पाठक को कहानी की कुंजी हासिल हो सकती है.

कुल मिलाकर अच्छी कहानियों जैसी मानी-ख़ेज़ ख़ामोशियों से ये उपन्यास लबरेज़ है और इसमें इंसानों से हमदर्दी के जज़्बे को यूं पेश किया गया है कि किसी के ‘हमवतन’ या कुछ और होने से पहले उसके ‘हम-ज़मीन’ होने का एहसास हमारे अंदर पैदा होना चाहिए.

अब दो एक बातें नीलाक्षी के भाषा के सिलसिले में कहूं, उससे पहले साहित्य के एक विद्यार्थी की हैसियत से मारियो वार्गास ल्योसा की किताब ‘लेटर्स टू अ यंग नॉवेलिस्ट‘ की चर्चा यहां ज़रूरी जान पड़ती है. ल्योसा ने इस किताब में विश्व साहित्य से मिसालें देकर बड़े पते की बात कही है कि ऐसे क़लमकार भी हैं जो वाक्य विन्यास में हर तरह की ग़लतियां करते हैं, व्याकरण का कोई लिहाज़ नहीं करते, ग़लत-लेखनी के नमूने उनके यहां बहुतायत हैं, इसके बावजूद उनका उपन्यास सर्वश्रेष्ठ है.

नीलाक्षी के उपन्यास पर ऐसा कोई बयान नहीं दूंगा, लेकिन उन्होंने जिस भाषा का निर्माण किया है – जिसे मैं एक उत्पत्ति की तरह देखता हूं, और ये भाषा उनके यहां चरित्र, विषय, जगह या चीज़ों के हिसाब से ही आई है, मगर इसमें नीलाक्षी का अपना लहजा और हिज्जे तक बुकमार्क की तरह मौजूद है. इसके होने न होने पर वाजिब सवाल उठाए जा सकते हैं.

साफ़-गोई से काम लूं तो इनके यहां व्याकरण और शब्दकोष के लिहाज़ से बड़ी ख़ामियां हैं, कई शब्दों को उसके मानक चलन से हटकर लिखा गया है, इसी तरह कई शब्दों से अर्थ ज़रूर गांठे गए हैं, लेकिन उनका प्रयोग ‘ग़लत तरीक़े’ से किया गया है और ऐसा अमूमन उनके पोषित लहजे, हिज्जे और लिए गए अर्थों के कारण हुआ है.

इसके बावजूद ये रचना हमें भाषा-स्वाद से ही नहीं भरती बल्कि अपने स्वर-संसार का बोध इस तरह भी कराती है कि हम कहीं-कहीं वर्णन को देखने-सुनने लग जाते हैं.

ज़रा-सी और हमदर्दी की जाए तो कह सकते हैं कि नीलाक्षी का उपन्यास भाषा के स्तर पर तिलस्म की उसी दुनिया में ले जाता है, जहां हमारे देखे-भाले दृश्य, हमारे जिए हुए अनुभव और हमारी संवेदनाएं किसी क़िस्सागो के बयान-महज़ का हिस्सा भर नहीं रहता, दरअसल इनकी वर्णन शैली; जिसे मैं कई कारणों से उपन्यासकार की अपनी काव्य शैली (Poetics) कहना पसंद करूंगा- हमें उसी स्वर-संसार/दृश्य-संसार से जोड़ देती है जिसे हमने कई बार छुआ है, सूंघा है और हमें ठीक-ठीक उसके रंग, गंध, स्वाद आदि का स्मरण भी है.

इन बातों से इतर भी कहें तो एक अपनी तरह के शब्द-योजना के अंतर्गत नीलाक्षी ने इस उपन्यास की रचना की है, जिसमें भाषा और व्याकरण की ‘ख़ामियां’ उनकी ‘ख़ूबी’ लगती है. उदहारण के तौर पर अगर मैं इन ख़ामियों पर बात करूं तो ‘ब्याह-शुदा’ और ‘ब्याहनामे’ उनके यहां एक ऐसी शब्दावली है जिसे इस उपन्यास से बाहर भाषा और व्याकरण की दृष्टि से कभी स्वीकार नहीं किया जा सकता, लेकिन उपन्यास में यही शब्द-योजना फ़ारसी और संस्कृत के मेल की उस भाषा परंपरा की तरफ़ हमें ले जाती है जहां लोक भाषा की अपनी सुंदरता आज भी मौजूद है.

उपन्यास में एक भाषा वो भी है जो हमारी पेशेवर ज़िंदगी से उपजी है और नीलाक्षी ने इसको ढंग से बरता भी है. लेकिन एक उपन्यासकार की भाषा जिसे हम सूत्रधार की भाषा भी कह सकते हैं; उसी तरह जीवंत है, जिस तरह हमारे रोज़मर्रा में. हालांकि उसका स्वरूप कई बार बदला हुआ इसलिए भी नज़र आता है कि इसमें उपन्यासकार का व्यक्तिगत रवैया शामिल है- जो उसके ठहराव, अवलोकन और इससे भी ज़्यादा उस परिवेश का हासिल है जिससे एक तरह की निजता का निर्माण होता है.

अच्छी बात ये है कि इनके यहां भाषा से पेंट की तरह का काम लेने का एक पैनापन नज़र आता है, जो कई जगहों पर कुर्रतुलऐन हैदर की याद दिलाती है, दरअसल हैदर अक्सर दृश्य को ऐसे पेश करती हैं जैसे वो उस पूरे वातावरण को पेंट कर रही हों और उसमें अर्थ का फैलाव अपने-आप समा रहा हो.

नीलाक्षी के यहां भी इस कारीगिरी की वजह से ग्रामीण और शहरी जीवन का जो दृश्य बनता हुआ सा महसूस होता है, वो इस बात की दलील है कि उन्हें अपने कैनवस की समझ है.

अंत में बस ये कि अगर आप प्रेम में ‘चिनिया बादाम’ का स्वाद लेते हुए आज की वहशतनाक दुनिया से गुज़रना चाहते हैं और अपने एकांत से संवाद भी करना चाहते हैं तो लगभग 400 पन्नों का ये उपन्यास आपके लिए है.

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