पी. साईनाथ की किताब ‘अमृत महोत्सव’ के तमाशाई माहौल में सार्थक हस्तक्षेप की तरह है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: पी. साईनाथ की नई किताब 'द लास्ट हीरोज़: फुट सोल्जर्स ऑफ इंडियन फ्रीडम' पढ़कर एहसास होता है कि हम अपने स्वतंत्रता संग्राम में साधारण लोगों की हिस्सेदारी के बारे में कितना कम जानते हैं. यह वृत्तांत हमें भारतीय साधारण की आभा से भी दीप्त करता है.

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पी. साईनाथ और उनकी नई किताब. (साभार: पेंगुइन इंडिया/फेसबुक)

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: पी. साईनाथ की नई किताब ‘द लास्ट हीरोज़: फुट सोल्जर्स ऑफ इंडियन फ्रीडम’ पढ़कर एहसास होता है कि हम अपने स्वतंत्रता संग्राम में साधारण लोगों की हिस्सेदारी के बारे में कितना कम जानते हैं. यह वृत्तांत हमें भारतीय साधारण की आभा से भी दीप्त करता है.

पी. साईनाथ और उनकी नई किताब. (साभार: पेंगुइन

हम एक ऐसे समय में रह रहे हैं जहां हमें हर रोज़ कोई न कोई डराता रहता है. सत्तारूढ़ शक्तियों का तो जैसे बिना डराए काम ही नहीं चलता. फिर अख़बार, टीवी चैनल, धर्मनेता, बाज़ार, गुंडे-लफंगे आदि लगातार ऐसा कुछ न कुछ, लगभग नियमित रूप से, करते या कहते रहते हैं कि डर लगने लगता है. आस-पास के लोग, पड़ोसी और अजनबी सभी डर की चपेट में लगते हैं.

ऐसे भयभ्रस्त वातावरण में अभय के लिए की गई एक वैदिक प्रार्थना हाथ लग गई जो अथर्ववेद से है. प्रार्थना मेरा एक प्रिय शब्द और भाव है, हालांकि आस्था के वरदान से वंचित रहने के कारण, मुझे कभी यह समझ में नहीं आया कि किससे प्रार्थना करूं! अपनी एक कविता का समापन मैंने इन शब्दों से किया है: ‘करो प्रार्थना/कि टुच्चे लोगों से भले न बच सको/अपने टुच्चेपन से बचे रहो/और जीवन की तरह/मृत्यु में भी कुछ गरिमा हो/करो प्रार्थना…’

हिन्दी अनुवाद में वैदिक प्रार्थना इस तरह है:

अभय करो प्रभु, अभय करो हमें.
भूमि से न भय हो, आकाश से न भय हो;
मित्र से न भय हो, शत्रु से न भय हो;
भय हो न सामने से, पीछे से न भय हो;
दाएं न भय हो, न बाएं से ही भय हो;
दिन में न भय हो, न रात में भी भय हो;
शत्रु मेरा कोई न हो, सब ही दिशाएं मेरी
मित्र बनें और मेरी मित्रता की जय हो.

ऐसा अभय मिल सके, ऐसी स्वस्ति और आश्वस्ति हमारे हिस्से आ आए ऐसी संभावना कम ही है. इसके लिए दोष और दायित्व हमारा ही है. हम ही तो हैं जो शत्रुता बढ़ाते रहते हैं और फिर उसी से भयाक्रांत होते हैं. हम ही तो हैं जो पृथ्वी को लगातार क्षत-विक्षत-नष्ट कर रहे हैं और आकाश को हर पल दूषित.

हम ही हैं जो दाएं-बाएं का खेल खेलते रहते हैं. हम स्वयं डरते-डराते हैं और दिन और रात दोनों में डर का चालीसा पढ़ते-गाते रहते हैं. सारी दिशाएं हमें अविश्वास से देखती हैं. अभय आकाश से नहीं गिरेगा: वह इसी पृथ्वी पर हमारे लाए आएगा. कई बार यह कुछ तीख़ेपन से पूछने का मन होता है: हम खुद अपने से डरना, अपनों को डराना कब छोड़ेंगे?

पेरिस में रज़ा

यूं तो चित्रकार सैयद हैदर रज़ा ने पेरिस में 60 वर्ष रहते और चित्र बनाते बिताए और वहां की कई गैलरियों में उनकी समूह या एकल प्रदर्शनियां हुईं. पर उसी शहर में विश्व-विख्यात, आधुनिक कला के विश्व के मूर्धन्य संग्रहालयों में गिने जाने वाले पाम्पिदू संग्रहालय में अगले वर्ष उनके कला-जीवन की सबसे बड़ी प्रदर्शनी होने जा रही है.

आयोजन रज़ा फाउंडेशन के लगभग पांच वर्षों के अथक प्रयास का प्रतिफल है. 14 फरवरी से शुरू होने वाली इस प्रदर्शनी, जो तीन महीने तक चलेगी, में रज़ा की लगभग सौ कलाकृतियां प्रदर्शित होंगी जिनमें से लगभग साठ भारत के सार्वजनिक और निजी संग्रहों से चुनी गई हैं. इनमें से कुछ कलाकृतियां ऐसी भी हैं जो इससे पहले किसी सार्वजनिक प्रदर्शनी में शामिल नहीं हुई हैं.

रज़ा के दुखद देहावसान के लगभग सात वर्षों बाद आयोजित इस प्रदर्शनी में फ्रेंच, अमेरिकी और ब्रिटिश कलाविदों के अलावा भारतीय कलाविद भी शामिल होंगे. यह फ्रांस में अब तक आयोजित किसी भारतीय कलाकार की सबसे बड़ी प्रदर्शनी भी होगी. शुभारंभ के अवसर, जो रज़ा की 101वीं वर्षगांठ से सिर्फ़ एक सप्ताह पहले होगा, पर फ्रांस और भारत के, क्रमशः दिल्ली और पेरिस स्थित राजदूत भी उपस्थित रहेंगे.

रज़ा फाउंडेशन इस अवसर पर दो स्वतंत्र ज़िल्दों में कैटलॉग, फ्रेंच और अंग्रेज़ी में प्रकाशित कर रहा है जिसमें डॉ. होमी भाभा, यशोधरा डालमिया, रूबीना करोड़े, गीति सेन, अश्विन राजगोपालन, रणजीत होस्कोटे आदि के निबंध, रज़ा के कुछ कलाकारों-पत्रों और से लिए गए पत्र, अपनी पत्नी जानीन मोंज़िला से पत्राचार के कुछ अंश, कई फ्रेंच कलाविदों द्वारा उन पर लिखे गए निबंधों का एक संचयन शामिल है.

इस कैटल़ग का लोकार्पण भी शुभारंभ के अवसर पर होगा. आयोजन की पूर्वसंध्‍या पर होमी भाभा व्याख्यान देंगे और फिर 15 फरवरी को वे रज़ा पर चित्रकार अतुल डोडिया से संवाद करेंगे. 16 फरवरी को भारतीय राजदूत के निवास पर अनी मोन्तो द्वारा फ्रेंच में संपादित पुस्तक ‘रज़ा और प्रकृति की आत्मा’ का लोकार्पण होगा और 20 फरवरी को इनालको में ‘रज़ा, प्रकृति और भारतीय आधुनिकता’ का विषय पर परिसंवाद, जिसमें शार्ल मलामूद, उदयन वाजपेयी, अनी मोन्तो आदि भाग लेंगे.

उधर 17 फरवरी को संग्राहक कैथरीन दावीद के संयोजन में ‘रज़ा और उनका समय’ विषय पर एक परिसंवाद होगा जिसेमें रूबीना करोड़े, रणजीत होस्कोटे, अश्विन राजगोपालन, दीपक अनंत आदि भाग लेंगे. इसकी भी प्रबल संभावना है कि प्रदर्शनी के चलते, बाद में, पेरिस के एक और संग्रहालय म्यूजी द गिमे में कविता-संगीत-नृत्य पर एकाग्र एक ‘रज़ा पर्व’ आयोजित हो.

बड़ी संख्या में देश-विदेश से रज़ा के संग्राहक और प्रशंसक यह प्रदर्शनी देखने पेरिस आएंगे ऐसी उम्मीद की जा रही है. प्रदर्शनी में फ्रांस, यूरोप और ब्रिटेन के संग्रहों से कला-कृतियां भी शामिल हैं.

अंतिम नायक

हम ऐसे समय में रह रहे हैं जहां हम यह लगभग भूल चुके हैं कि अक्सर साधारण लोग भी नायक हो सकते हैं, हुए हैं: साधारण की जिजीविषा, संघर्ष, गरिमा, कुछ असाधारण करने की क्षमता और अदम्यता हमारे ध्यान के भूगोल से बाहर हो गई है. अब हमारे नायक बड़े धनिक-व्यापारी, अपराधी, फिल्म अभिनेता, वाक्शूर पर कर्महीन राजनेता होने लगे हैं. वे सब जो तरह-तरह से सत्ता हथियाते या उसके इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं.

पी. साईनाथ एक ऐसे पत्रकार हैं जिन्होंने हमारे समय में साधारण किसानों की दुखी आत्महंता जीवन, ग़रीबों के संघर्ष और दुर्भिक्ष की गाथा विस्तार और प्रामाणिकता के साथ लिखी है. इसी क्रम में उनकी नई पुस्तक आई है ‘द लास्ट हीरोज़: फुट सोल्जर्स ऑफ इंडियन फ्रीडम’, जो पेंगुइन ने प्रकाशित की है.

आज़ादी के अमृत महोत्सव के अंतर्गत जो तमाशाई माहौल है उसमें यह पुस्तक एक बहुत सार्थक हस्तक्षेप की तरह है क्योंकि वह उन कुछ स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों की कथा कहती है जो इस संग्राम के आधिकारिक वृत्तांत में कभी शामिल नहीं किए गए पर जिन्होंने नामहीनता में रहकर भी इस संग्राम में हिस्सा लिया था.

उनमें आदिवासी, दलित, पिछड़ी जातिवाले, ब्राह्मण, मुसलमान, सिख और हिंदू शामिल हैं. वे देश के विभिन्न अंचलों से आते हैं और अलग-अलग भाषाएं बोलते हैं और उनमें आस्थावान और नास्तिक, वामपंथी, गांधीवादी और आंबेडकर के अनुयायी शामिल हैं.

उनमें से किसी का भी कोई सत्तापरक जीवन नहीं रहा, न उन्हें कोई पद या सम्मान मिले. पर वे सभी ब्रिटिश राज्य के विरोध में रहे. कुछ नाम हैं: शोभाराम गहरवार, भगत सिंह झुग्गियां, एन. शंकरैय्या, बाजी मोहम्मद, गणपति यादव, भवानी महतो, लक्ष्मी पंडा, एचएस दोरैस्वामी, थैलू और लोक्खी महतो, एन. नल्लूकण्णु, मल्लू स्वराज्यम, देमती देई सबर.

इन सबकी गाथा पुस्तक में कही गई है: उसमें उपन्यास जैसा स्वाद मिलता है. यह भी एहसास होता है कि हम अपने स्वतंत्रता संग्राम में साधारण लोगों की हिस्सेदारी के बारे में कितना कम जानते हैं. यह वृत्तांत हमें भारतीय साधारण की आभा से दीप्त करता है.

महाराष्ट्र के सांगली से स्वतंत्रता सैनिक और तूफान सेना के ‘कैप्टेन भाऊ’ रामचंद्र श्रीपति लाड कहते हैं: ‘हम दो चीज़ों के लिए लड़े- स्वतंत्रता और मुक्ति के लिए. हमने स्वतंत्रता प्राप्त कर ली.’ ज़ाहिर है कि मुक्ति का संग्राम अभी भी चल रहा है.

इस पुस्तक को पढ़ने से यह एहसास भी गहरा होता है कि हम साधारण लोगों की मुक्ति की आकांक्षा और उसके लिए अब भी संघर्ष करने की ज़िम्मेदारी निभाने की इच्छा और कर्मठता को शायद ठीक से नहीं समझ पा रहे हैं. इस समय लगातार फैल रहे अधिनायकतावाद से यही साधारण लोग मुक्ति दिला सकते हैं. हमारी उम्मीद का केंद्र वे ही हैं. इस संदर्भ में यह पुस्तक उम्मीद दिलाती पुस्तक भी है.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)