आज हिंदी मध्यवर्ग का असली राजनीतिक प्रतिपक्ष हिंदी साहित्य ही है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: आम तौर पर मध्यवर्ग में प्रवेश ज्ञान के आधार पर होता आया है पर यही वर्ग इस समय ज्ञान के अवमूल्यन में हिस्सेदार है. एक ओर तो वह अपनी मातृभाषा से लगातार विश्वासघात कर रहा है, दूसरी ओर हिंदी को हिंदुत्व की, यानी भेदभाव और नफ़रत फैलाने वाली विचारधारा की राजभाषा बनाने पर तुला है.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: आम तौर पर मध्यवर्ग में प्रवेश ज्ञान के आधार पर होता आया है पर यही वर्ग इस समय ज्ञान के अवमूल्यन में हिस्सेदार है. एक ओर तो वह अपनी मातृभाषा से लगातार विश्वासघात कर रहा है, दूसरी ओर हिंदी को हिंदुत्व की, यानी भेदभाव और नफ़रत फैलाने वाली विचारधारा की राजभाषा बनाने पर तुला है.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

एक लगभग प्रामाणिक आकलन यह बताता है कि हिंदी अंचल का मध्यवर्ग लगभग सोलह करोड़ की आबादी का है: वह समूचे भारतीय मध्यवर्ग का, जो कि लगभग चालीस करोड़ की आंकी गई है, दो बटा पांचवां हिस्सा है. भारत के किसी मध्यवर्ग से वह बहुत बड़ा है.

यह संयोगवश उस अंचल का मध्यवर्ग है जिसकी आबादी भारत में सबसे अधिक ग़रीब, बेरोज़गार, अशिक्षित, आर्थिक रूप से अशक्त और औद्योगिकीकरण में पिछड़ी हुई है. यही वह अंचल भी है जिसमें स्त्रियों-बच्चों-दलितों-अल्पसंख्यकों-आदिवासियों आदि के विरुद्ध हिंसा-हत्या-बलात्कार आदि के भारत में सबसे अधिक अपराध होते हैं: समूचे देश के अपराधों का लगभग पैंसठ प्रतिशत. इनमें हिंदी मध्यवर्ग की काफ़ी बड़ी भागेदारी है. सबसे अधिक साम्प्रदायिक दंगे-फ़साद, जातिपरक हिंसा इसी अंचल में होती है.

यह भी सही है कि भारत में सबसे अधिक पुस्तकें हिंदी में प्रकाशित होती हैं. पाठक-संख्या के आधार पर सबसे बडे़ अख़बार हिंदी में हैं, सबसे लोकप्रिय टीवी चैनल हिंदी में हैं और भारत का सबसे बड़ा बाज़ार हिंदी अंचल में है. आनुपातिक ढंग से देखें, तो सबसे कम पुस्तकालय हिंदी प्रदेशों में हैं, सबसे कम पुस्तकों की दुकानें भी और सबसे कमज़ोर स्वास्थ्य-व्यवस्था भी. नागरिक जीवन में सबसे अधिक अराजकता और यातायात के सामान्य नियमों तक का निडर उल्लंघन भी इसी अंचल में.

हिंदी, मीडिया, राजनीति और धर्म के अभूतपूर्व गठबंधन से गाली-गलौज-झगड़ों-झूठ-नफ़रत-हिंसा की भाषा के रूप में उभर रही है. साफ़-सुथरी समझ में आने वाली हिंदी बोलने वालों की संख्या भयावह रूप से घट रही है. मध्यवर्ग ने इस धारणा को पोसा है कि हिंदी में गंभीर और जटिल विचार संधव ही नहीं है.

आम तौर पर मध्यवर्ग में प्रवेश ज्ञान के आधार पर ही होता आया है पर यही मध्यवर्ग इस समय ज्ञान की अवमानना और अवमूल्यन में हिस्सेदार है. यही नहीं, वह जिस नई धर्मांधता, नई सांप्रदायिकता और आक्रामक जातिवाद में लिप्त है उसमें वह हिंसा को वैध सामाजिक अभिव्यक्ति मानने लगा है.

हिंदुत्व एक राजनीतिक विधारधारा है जिसका हिंदू धर्म से कोई तात्विक संबंध नहीं है, जो अध्यात्म-शून्य है. लेकिन उसे सबसे अधिक समर्थन हिंदी अंचल में, उसके विशाल मध्यवर्ग से मिल रहा हैं. एक ओर तो उसका अंग्रेज़ी मोह बहुत फैल रहा है और वह अपनी मातृभाषा से लगातार विश्वासघात कर रहा है, पर दूसरी ओर वह हिंदी को हिंदुत्व की, यानी एक आक्रामक भेदभाव और नफ़रत फैलाने वाली विचारधारा की राजभाषा बनाने पर तुला है.

नई टेक्नोलॉजी और संचार सुविधा ने इस मध्यवर्ग की लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति के भूगोल का विस्तार किया है, पर यही मध्यवर्ग नई टेक्नोलॉजी में व्याप्त हो रही नई अनैतिकता, झूठ और घृणा से आह्लादित होने में, उसे प्रोत्साहित करने में कोई संकोच नहीं कर रहा है.

अगर कुछ वस्तुनिष्ठ और ठोस साक्ष्य के आधार पर यह मध्यवर्ग आकलन करे तो वह निश्चय ही पाएगा कि हिंदी अंचल ने शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान, पर्यावरण, विकास उद्योग, आर्थिकी आदि क्षेत्रों में जो थोड़ी-बहुत प्रगति की है, वह बिल्कुल ही नाकाफ़ी है. लेकिन साहित्य एक ऐसा क्षेत्र है जिसे हिंदी समाज की एक उत्कृष्ट उपलब्धि कहा जा सकता है: हिंदी साहित्य से बेहतर या समतुल्य किसी क्षेत्र में उपलब्धि नहीं है.

विडंबना यह है कि इस उपलब्धि से हिंदी समाज, ख़ासकर उसका पढ़ा-लिखा मध्यवर्ग, पूरी तरह से ग़ाफ़िल है. यह अचरज की बात है कि ऐसी सामाजिक उदासीनता के बावजूद इतना श्रेष्ठ साहित्य हिंदी में लिखा गया और यह भी कि लिखने वाले ज़्यादातर मध्यवर्ग से आए हैं. यह शायद अचरज की नहीं ध्यान देने योग्य बात है कि आज हिंदी साहित्य ही, एक तरह से, हिंदी मध्यवर्ग का असली राजनीतिक प्रतिपक्ष है.

पुराने दोस्त

पुराने दोस्तों से रूबरू मिलना इधर कम होता जाता है: उनमें से अधिकांश अब ज़्यादा यात्राएं नहीं करते. पिछले लगभग एक महीने में दो बार रायपुर और एक बार भोपाल जाना हुआ. सो कुछ समय निकालकर अपने कुछ पुराने दोस्तों से मिला: कवि-कथाकार विनोद कुमार शुक्ल और रमेश मुक्तिबोध से, रमेशचंद्र शाह से. तीनों ही आयु के कारण कुछ अशक्त और शिथिल हैं पर सभी की स्मृति अभी सजग और सक्रिय है.

विनोद जी अब ज़्यादातर अपने घर में ही रहते हैं. पहले राजेंद्र मिश्र उन्हें कुछ आयोजनों में साथ लेकर आ जाते थे. पर अब मिश्र जी के निधन के बाद वह सिलसिला ख़त्म हो गया. वे बोले कि इन दिनों उन्हें सिर्फ़ बच्चों के लिए लिखने का मन होता है. मैंने कहा कि यह बहुत अच्छा है क्योंकि बच्चों के लिए हिंदी के बड़े लेखकों में से बहुत कम ने लिखा है.

वे याद करते रहे 1982 में हुए भारत भवन के अत्यन्त भव्य शुभारंभ हो. उन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि वे कभी तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के इतने नज़दीक बैठे होंगे. वे यह भी कह रहे थे कि आज से चालीस बरस पहले वह सब कैसे संभव हुआ जो आज बिल्कुल अकल्पनीय लगता है.

रमेश मुक्तिबोध से उस बार नहीं मिल सका था क्योंकि वे अस्पताल में थे. इस बार हम यानी मैं और उदयन उनसे मिलने घर गए. अब वे घर पर हैं और हालांकि कैथेडर लगा है, सक्रिय और पढ़ते रहते हैं.

उन्होंने याद किया कि उनके पिता ने पहले मराठी में लिखना शुरू किया था और हिंदी में वे बाद में आए. रमेश को अपने बचपन में पढ़ी गईमराठी कविताएं मुखाग्र हैं. उन्होंने चार ज़िल्दों में प्रकाशित मराठी की उन कविताओं का संचयन दिखाया जिसमें बच्चों को पाठ्यपुस्तकों में पढ़ाई जाने वाली मराठी कविताएं हैं. रमेश के तीनों भाई भी निकट ही रहते हैं बल्कि चार मकानों की कतार एक तरह की मुक्तिबोध वीथिका है.

रमेशचंद्र शाह पिछले दिनों गिर पड़े थे और उसके प्रभाव से हुई क्षति से पूरी तरह मुक्त नहीं हैं. उनकी दोनों बेटियां शंपा और राजुला उनके साथ हैं और उनकी अच्छी देखभाल कर रही हैं. हालांकि यह कहा गया कि बीच-बीच में उन्हें स्मृतिभ्रंश हो जाता है, मेरे वहां रहने पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. वे हमारे भांजे के ब्याह में नहीं आ पाए थे. कुछ बात भोपाल में बढ़ती संवादहीनता पर हुई. पर उसका रोना क्या? अब तो सभी साहित्य-केंद्रों में संवाद या तो बंद हो गए हैं या कि वे विवाद और प्रलाप में बदल गए हैं.

तीनों बंधुओं से मिलकर यह लगा कि हमारी पीढ़ी के लोगों के साहित्य और जीवन दोनों का अनुराग अब भी बचा हुआ है और वे जो कुछ भी कर सकते हैं, कर रहे हैं. कहना न होगा, इससे मेरा मनोबल भी कुछ बढ़ा.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)

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