अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट में को लेकर उन्होंने कहा कि सर्वेक्षण से यह प्रदर्शित होता है कि वंचित और आदिवासी बच्चे शिक्षा विभाग द्वारा असहाय छोड़ दिए गए. स्कूल दो साल बंद रहे, लेकिन बच्चों के लिए कुछ नहीं किया गया. इस दौरान ऑनलाइन शिक्षा केवल मज़ाक बन कर रह गई, क्योंकि सरकारी स्कूलों में 87 प्रतिशत छात्रों की पहुंच स्मार्टफोन तक नहीं थी.
रांची: कोविड-19 महामारी के बाद झारखंड के स्कूलों में छात्रों की उपस्थिति उच्च प्राथमिक स्तर (छठी से आठवीं तक) की कक्षाओं में घटकर 58 प्रतिशत और प्राथमिक विद्यालयों में कम होकर 68 प्रतिशत रह गई. अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट में यह दावा किया गया है.
‘स्कूल में भूल’ नामक यह सर्वे झारखंड में स्कूली शिक्षा प्रणाली की निराशाजनक स्थिति को उजागर करती है. यह रिपोर्ट सितंबर-अक्टूबर 2022 में ज्ञान विज्ञान समिति झारखंड (जीवीएसजे) द्वारा राज्य सरकार द्वारा 16 जिलों में संचालित 138 प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों के सर्वेक्षण पर आधारित है.
रिपोर्ट के अनुसार, 53 प्रतिशत शिक्षकों ने स्वीकार किया है कि महामारी के बाद स्कूलों के खुलने पर छात्र पढ़ना और लिखना भूल गए थे.
ज्यां द्रेज ने कहा, ‘सर्वेक्षण से यह प्रदर्शित होता है कि वंचित और आदिवासी बच्चे शिक्षा विभाग द्वारा असहाय छोड़ दिए गए. स्कूल दो साल बंद रहे, लेकिन बच्चों के लिए कुछ नहीं किया गया. इस अवधि के दौरान ऑनलाइन शिक्षा केवल मजाक बन कर रह गई, क्योंकि सरकारी स्कूलों में 87 प्रतिशत छात्रों की पहुंच स्मार्टफोन तक नहीं थी.’
झारखंड शिक्षा परियोजना परिषद की निदेशक किरन कुमारी पासी ने कहा कि छात्रों की सीखने की क्षमता और स्कूलों में उपस्थिति महामारी के बाद घट गई.
उन्होंने कहा, ‘मैं सर्वेक्षण पर टिप्पणी नहीं करना चाहती, क्योंकि मैंने इसे नहीं देखा है. लेकिन, यह एक तथ्य है कि महामारी के बाद छात्रों की सीखने की क्षमता और स्कूलों में उपस्थिति में गिरावट आई है. छात्रों को स्कूलों में वापस लाने के लिए हमने कई पहल की हैं – खेल को बढ़ावा देने से लेकर मनोरंजन गतिविधियों तक – स्थिति में अब सुधार हो रहा है.’
झारखंड शिक्षा परियोजना परिषद एक स्वायत्त संस्था है, जिसका गठन राज्य सरकार ने प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण के लिए किया है.
सर्वेक्षण में स्कूलों में शिक्षकों की भी कमी पाई गई.
द्रेज ने शोधार्थी परन अमिताव के साथ तैयार की गई रिपोर्ट में कहा है कि छठी से आठवीं कक्षा तक के केवल 20 प्रतिशत और पहली से पांचवीं कक्षा तक के स्कूलों (प्राथमिक विद्यालयों) में 53 प्रतिशत में शिक्षक छात्र अनुपात 30 से कम है, जैसा कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम में निर्धारित है.
अन्य विद्यालयों में भी शिक्षकों की भारी कमी है. सैंपल में केवल 19 प्रतिशत उच्च-प्राथमिक विद्यालयों में प्रति शिक्षक 30 से कम छात्र थे.
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, 55 प्रतिशत स्कूलों में प्राथमिक स्तर के शिक्षकों में पारा-शिक्षकों का बहुमत था. उच्च-प्राथमिक स्तर पर यह आंकड़ा 37 प्रतिशत था.
लगभग 40 प्रतिशत प्राथमिक विद्यालयों का सर्वेक्षण किया गया, जो पारा-शिक्षकों द्वारा चलाए जा रहे थे. एक तिहाई प्राथमिक विद्यालयों में एक ही शिक्षक है. आमतौर पर जो ‘पारा-शिक्षक’ हैं. उनके पास औसतन 51 छात्र हैं. इन स्कूलों में ज़्यादातर छात्र (87 प्रतिशत) दलित या आदिवासी बच्चे हैं.
प्राइमरी स्तर पर ज्यादातर शिक्षक (55 प्रतिशत) पारा शिक्षक और अपर-प्राइमरी स्तर पर 37 प्रतिशत पारा शिक्षक हैं. सैंपल में लगभग 40 प्रतिशत प्राइमरी स्कूल पूरी तरह से पारा शिक्षक ही चला रहे हैं.
द्रेज ने कहा, ‘पारा-शिक्षकों के पास नियमित शिक्षकों की तुलना में कम योग्यता और कम प्रशिक्षण है और यह संदेहास्पद है कि क्या वे अधिक जवाबदेह हैं, राज्य में पिछले छह वर्षों में कोई शिक्षक भर्ती नहीं की गई.’
रिपोर्ट में दावा किया गया है कि सर्वेक्षण में शामिल किसी भी स्कूल में शौचालय, बिजली या पानी की आपूर्ति नहीं थी. इसमें कहा गया है कि लगभग 66 प्रतिशत प्राथमिक विद्यालयों में चारदीवारी नहीं थी, 64 प्रतिशत में खेल का मैदान नहीं था और 37 प्रतिशत के पास लाइब्रेरी की किताबें नहीं थीं.
अधिकांश शिक्षकों ने कहा कि स्कूल के पास मिड-डे मील के लिए पर्याप्त धन नहीं है. कई स्कूल (10 प्रतिशत शिक्षक और ज्यादातर सर्वेक्षण टीमों के मुताबिक) अब भी हफ्ते में दो बार अंडे नहीं दे रहे हैं, जो तय किया गया था.
इस संबंध में द्रेज द्वारा जारी एक विज्ञप्ति के अनुसार, ‘झारखंड में स्कूली शिक्षा प्रणाली की निराशाजनक स्थिति प्राथमिक शिक्षा के प्रति की दशकों की सरकारी उदासीनता को दर्शाती है. यह उदासीनता गलत भी है और अन्याय भी. यह गलत है, क्योंकि सभी के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा झारखंड की अर्थव्यवस्था और समाज को पूरी तरह से बदल सकती है. यह एक अन्याय है, क्योंकि यह उत्पीड़ित वर्गों और समुदायों को वहीं रहने पर मजबूर करती है जहां वे हैं.’
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)