भारतीय मुस्लिमों के मानसिक स्वास्थ्य को नए नज़रिये से देखने की ज़रूरत: अध्ययन

बेबाक कलेक्टिव द्वारा जारी हालिया रिपोर्ट में देश में पिछले कुछ वर्षों में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और घृणा अपराधों में वृद्धि के कारण मुस्लिम समुदाय के सामने खड़ी हुई सामाजिक, भावनात्मक और वित्तीय मुश्किलों को शामिल किया गया है.

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(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

बेबाक कलेक्टिव द्वारा जारी हालिया रिपोर्ट में देश में पिछले कुछ वर्षों में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और घृणा अपराधों में वृद्धि के कारण मुस्लिम समुदाय के सामने खड़ी हुई सामाजिक, भावनात्मक और वित्तीय मुश्किलों को शामिल किया गया है.

(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

मुंबई: जब हिंसा, भेदभाव और अपमान का लगातार सामना किया जा रहा हो, ऐसे में उनके प्रभाव को पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (पीटीएसडी) जैसे स्थापित क्लीनिकल ​​शब्दों के जरिये भी पूरी तरह से नहीं समझा जा सकता. सामाजिक कार्यकर्ता और शोधकर्ता हसीना खान हाल के एक शोध, जिसमें सुदीति जीएम और उमरा ज़ैनब सह-लेखक हैं, में कहती हैं कि ट्रॉमा रेस्पॉन्स निरंतर चलते हैं और इनका अपना एक चक्र होता है.

साथ ही, उनका कहना है कि मानसिक स्वास्थ्य, आत्मनिर्भरता, सहनशीलता और सर्वाइवल के अर्थ को फिर से परिभाषित करने के लिए एक नए लेंस और दृष्टिकोण की जरूरत है.

उनके संगठन ‘बेबाक कलेक्टिव’ द्वारा प्रकाशित एक नए अध्ययन में शोधकर्ताओं ने अलग-अलग राज्यों में शिक्षा के विभिन्न स्तरों के साथ विभिन्न वर्गों और जातियों के मुस्लिमों से बातचीत की है ताकि सांप्रदायिक रूप से भड़के हुए माहौल में समुदाय के जीवन और मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों की जांच की जा सके.

यह अध्ययन, जिसे अपनी तरह का इकलौता माना जा रहा है, इस साल फरवरी से शुरू होने के बाद छह महीने की अवधि में किया गया था. सैद्धांतिक रूप से रिपोर्ट में देश में पिछले कुछ वर्षों में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और घृणा अपराधों में नाटकीय वृद्धि के कारण मुस्लिम समुदाय के सामने खड़ी हुई सामाजिक, भावनात्मक और वित्तीय मुश्किलों को शामिल किया गया है.

रिसर्च मेथडोलॉजी कहती है, ‘हमने अपना दायरा बड़ा रखा और उन कार्यकर्ताओं से बात की जिन्हें हिरासत में लिया गया है, साथ ही सामाजिक कार्यकर्ताओं के दोस्त, लिंचिंग का शिकार हुए पुरुषों के परिवार, मुस्लिम मरीजों का इलाज करने वाले डॉक्टर, दंगा पीड़ितों के परिवार और जेल में बंद लोगों के परिवार के कई सदस्य भी इसमें शामिल रहे.’

इस बात पर जोर देते हुए कि भारत में मुसलमानों के बीच मानसिक स्वास्थ्य, आत्मनिर्भरता, सहनशीलता और अपना अस्तित्व बचाने (Survival) के अर्थ को फिर से परिभाषित करने की सख्त आवश्यकता है, शोधकर्ताओं ने फ़िलिस्तीनी स्वास्थ्य मंत्रालय में मानसिक स्वास्थ्य इकाई की अध्यक्ष डॉ. समाह जबर का कई जगह हवाला दिया है. जबर का कहना है कि मानसिक बीमारी की उपलब्ध/पश्चिमी कैटेगरी और पीटीएसडी की क्लीनिकल परिभाषाएं फिलिस्तीनियों के अनुभवों पर लागू नहीं होती हैं.

‘पीटीएसडी एक अमेरिकी सैनिक के अनुभवों को बेहतर तरीके से बताता है जो बमबारी के लिए इराक जाता है और संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की सुरक्षा में वापस लौट जाता है. उसे बुरे सपने आते हैं और युद्ध के मैदान से जुड़े डर हैं और उसके डर काल्पनिक हैं. जबकि गाजा में एक फिलिस्तीनी के लिए, जिसके घर पर बमबारी की गई थी, उसके लिए फिर से बमबारी होने का डर बहुत वास्तविक है. यह काल्पनिक नहीं है. कोई ‘पोस्ट’ यानी बाद में होने वाली बात नहीं है क्योंकि ट्रामा बार-बार हो रहा है और निरंतर चल रहा है.’

बेबाक कलेक्टिव की रिपोर्ट में ट्रॉमा के कई कारणों में से शुरुआत ‘क़ानून द्वारा’ भड़काई गई हिंसा पर करीब से नज़र डालने के साथ की गई है. रिपोर्ट में कहा गया है कि भारतीय मुसलमानों को व्यवस्थित रूप से अलग-थलग करने में कानून की भूमिका को हिंदू बहुसंख्यकवादी कल्पना और जमीनी स्तर पर इसके लिए किए जा रहे प्रयासों को बढ़ावा देने के तौर पर देखा जा सकता है.

रिपोर्ट कहती है कि कानून इस विचार को मजबूत करने के इरादे से पेश किए गए हैं कि ‘मुस्लिम भारत की ‘हिंदू’ राष्ट्र के रूप में बहुसंख्यक अवधारणा के लिए एक राष्ट्रीय और अस्तित्वगत खतरा पैदा करते हैं.’

हाल के सालों में, विशेष रूप से नागरिकता (संशोधन) अधिनियम के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) लाने के इरादे के साथ समुदाय के नेताओं, कार्यकर्ताओं और यहां तक कि मुस्लिम पत्रकारों के खिलाफ गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) का अंधाधुंध इस्तेमाल किया गया.

एक युवक बिलाल, जिनके भाई को फरवरी 2020 में दिल्ली दंगों के बाद एक मामले में कथित रूप से झूठा फंसाया गया था, कहते हैं, ‘मुझे रात में नींद नहीं आती. कोर्ट की वेबसाइट ही देखता रहता हूं पूरी रात.’

शाहीन बाग की एक एक्टिविस्ट तैय्यबा ने शोधकर्ताओं को बताया, ‘अगर परिवार में पिता या भाई मुखर और राजनीतिक रूप से सक्रिय हैं, तो सरकारी प्रतिक्रिया होने पर परिवार के बाकी सदस्य प्रभावित होते हैं. अगर परिवार के मुख्य पुरुष सदस्य को गिरफ्तार किया जाता है, तो अलग पड़ना और कई संकट सामने होते हैं क्योंकि सुरक्षा देने वाला कोई मौजूद ही नहीं होता.

उन्होंने याद आया कि जब उनके पति को गिरफ्तार किया गया था तो उन्हें अकेले ही थाने जाना पड़ा था और उस समय उनके साथ कोई खड़ा नहीं हुआ था.

शोधकर्ताओं का कहना है कि ट्रॉमा की निरंतर प्रकृति अक्सर पीड़ितों के रोजमर्रा के जीवन और बातचीत को बदल देती है. वे बाहरी दुनिया से कैसे बातचीत करते हैं, मुख्य रूप से उनकी धार्मिक पहचान और वे कहां और कैसे आते-जाते हैं, किसके साथ उठते-बैठते हैं और किसके साथ कितनी बात करते हैं, इस पर गहरा असर देखने को मिलता है.

इसी तरह, रिपोर्ट में पाया गया कि दंगे के कारण अवसरों को खो देना न केवल परिवारों की आर्थिक संभावनाओं को सीमित करता है बल्कि लोगों की आकांक्षाओं, सपनों और उम्मीदों को भी बदल देता है.

एक बातचीत में दिल्ली के 22 वर्षीय बिलाल का कहना था कि उन्होंने दिल्ली में मेडिकल क्षेत्र में अपना करिअर बनाने की सोची थी, लेकिन दंगों के कारण उन्हें अपनी कक्षा 12वीं की बोर्ड परीक्षा छोड़नी पड़ी. वे अभी 22 साल के हैं और स्कूल खत्म करने की कोशिश कर रहे हैं. साथ ही उनकी कोशिश कंप्यूटर कोर्स करके अपने परिवार को सहारा देने की भी है.

कर्नाटक में सरकार द्वारा कक्षाओं में छात्राओं के हिजाब पहनने पर प्रतिबंध लगाए जाने के बाद कई लड़कियों ने बातचीत में अपने दोस्त और आसपास के लोगों से मिलने वाला समर्थन खोने की बात स्वीकारी.

बेंगलुरु में मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में प्रैक्टिस करने वाली शमीमा असगर भेदभाव का सामना करने वाले समुदायों के साथ काम करती हैं. उन्होंने कहा, ‘लोग दोस्तों से निराश होने की बात करते हैं, रिश्तों को खोने के बारे में बताते हैं, यहां तक ​​कि उनके पास उस रिश्ते के ख़त्म होने का दुख जाहिर करने की भी जगह नहीं है क्योंकि जिन लोगों के साथ उन्हें रिश्ते खत्म करने पड़े, वे नफरत फैलाने वाले लोग थे. मैंने भी इस वजह से बहुत सारे दोस्तों को खो दिया.’

उनका कहना है कि ‘मानसिक स्वास्थ्य अपनी क्लीनिकल प्रैक्टिस में अत्यंत व्यक्तिवादी हो सकता है.’ वह बताती हैं कि इसमें ट्रॉमा और पीड़ा से निपटने के तरीके के रूप में हिंसा की जड़ की जांच नहीं होती, बल्कि इसका उद्देश्य इससे प्रभावित लोगों पर इसके दुष्प्रभाव को कम करना होता है.

वे कहती हैं, ‘एक तरह से कहें तो यह ऐसा कहने का तरीका है कि तुम जो हिंसा सह रहे हो वह बनी रहेगी; आपको बस इसके साथ जीना सीखना होगा.’

अध्ययन में कहा गया है कि समुदाय या संगी-साथियों को खो देना कानूनी मामलों में किसी कठिन स्थिति को संभालने में या किसी हिंसक घटना के बाद जिंदगी फिर शुरू करने की स्थिति में किसी के भी आत्मविश्वास और निश्चिंतता की भावना को बुरी तरह प्रभावित करता है.

रिपोर्ट में अंत में कहा गया है, ‘एक फासीवादी सरकार और नफरत भरी विचारधारा के सामने बेबस महसूस करने की सर्वव्यापी भावना, जिसने सांप्रदायिक हिंसा के कई मुस्लिम पीड़ितों को अपने जीवन जीने के तरीके को बदलने के लिए मजबूर किया है, वह सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है जो हमारे काम से उभरकर सामने आया है.’

(इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)