कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: ध्रुपद के उत्कर्ष के समय इतने तरह के संगीत नहीं थे जितने आज ख़याल की व्याप्ति के वक़्त हैं. ख़याल के ख़ुद को बचाने के संघर्ष की अनदेखी नहीं होनी चाहिए. जैसे आधुनिकता एक स्थायी क्रांति है और बाद के सभी परिवर्तन उसी में होते रहे हैं, वैसे ही ख़याल भी स्थायी क्रांति है.
पिछले सप्ताह ख़याल ट्रस्ट ने मुंबई में ‘ग्वालियर दर्शन’ नाम से एक तीन दिनों का समारोह आयोजित किया जिसका एक चर्चा-सत्र इस घराने की गायकी पर केंद्रित था जिसमें मैं भाग ले पाया. लगभग तीन घंटे चले इस विचार-विनिमय में साठ-सत्तर लोग मनोयोग से सुनते हुए बैठे रहे. महाराष्ट्र उन बिरले राज्यों में से एक है जहां व्यापक और धैर्यवान रसिकता है और मराठी में शास्त्रीय संगीत पर गंभीर और उत्तरदायी आलोचना की परंपरा रही है.
हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के अधिकतर घराने उत्तर भारत में जन्मे और अब वहां से लगभग लोप हो गए हैं: वे ज़्यादातर महाराष्ट्र, धारवाड़ और बंगाल में ही बचे-पले-पनपे हैं. मेरी अपनी शास्त्रीय संगीत में रुचि सागर में ग्वालियर घराने के शलाका-पुरुष पंडित कृष्णराव शंकर पंडित की एक गायन-सभा को सुनकर जागी थी और लगभग 70 वर्ष बाद भी सोई नहीं है.
इस घराने की गायकी में धैर्य का व्याकरण और लालित्य की स्फूर्ति एक साथ रहे हैं. यह लालित्य रूमानी क़िस्म का नहीं बल्कि ख़ासा जटिल-कठिन लालित्य है. उसमें ख़याल की संपूर्णता का आग्रह रहा है, उसकी सर्वांगता और पल्लवन या विस्तार भी सुगठित होता है- उसमें संरचना का सौष्ठव महसूस होता है.
शायद उसमें फूलों की सुषमा उतनी नहीं जितनी जड़ों की स्थिरता है, एक तरह का अंंधेरा सौंदर्य. दूसरी ओर, वह ऊर्जस्वित संगीत है जिसमें दम-ख़म, आत्मविश्वास और स्फूर्ति सब एक साथ हैं.
ग्वालियर को आदि घराना माना जाता है: शायद इसलिए उसमें आरंभ में होने का आत्मविश्वास भी है. वह अनेक घरानों में अंतर्गुम्फित है और कई बार अन्यत्र उसकी उपस्थिति अंतःसलिल है. कहीं न कहीं वह सुशिल्पित संगठित आत्म का संगीत है. कम से कम मुझे यह लगता है कि यह गायकी अपने दार्शनिक अभिप्रायों में नश्वरता की अनिवार्यता, स्वयं स्वर की भंगुरता के बरक़्स अनश्वरता की संभावना को संबोधित है.
एक दूसरे स्तर पर वह नैसर्गिक मौन को मानवीय आवाज़ की जटिलता-विपुलता से स्वर-दलित करने की चेष्टा है. संगीत का भव्य स्थापत्य मनुष्य की अंततः संभव गरिमा, औदात्य और सौंदर्य की त्रयी रचता है.
अक्सर ग्वालियर के ख़याल को ध्रुपद से जोड़कर देखा जाता रहा है. शायद ग्वालियर में ध्रुपद के प्राचीन वैभव और ख़याल की आधुनिक विकलता में कोई न कोई संवाद होता है. शायद ध्रुपद अनंत की साधना है और ख़याल समय से संसक्ति है.
परंपरा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर एक दिलचस्प विनिमय चर्चा में हुआ. एक विद्वान ने एक ही राग में एक ही बंदिश कई मूर्धन्यों द्वारा गाये गाने के टुकड़े पेश कर स्थापना की ग्वालियर की परंपरा में ऐसी स्वतंत्रता रही है और रहिमत खां, कृष्णराव शंकर पंडित, गजानन बुआ जोशी, कुमार गंधर्व आदि में उसका साक्ष्य सहज उपलब्ध है.
मैंने प्रसंगवश इस ओर इशारा किया कि ध्रुपद के उत्कर्ष के समय इतने तरह के संगीत दृश्य पर उपस्थित नहीं थे जितने आज ख़याल की व्याप्ति के समय हैं. ख़याल अपने को, इस आक्रामक और लुभावनी उपस्थिति के बीच बचाने और सशक्त रहने का जो संघर्ष किया है उसकी हमें अनदेखी नहीं करनी चाहिए. जैसे आधुनिकता एक स्थायी क्रांति है और बाद के सारे परिवर्तन उसी में होते रहे हैं जैसे उत्तर-आधुनिकता आदि, वैसे ही ख़याल भी स्थायी क्रांति है और सारे परिवर्तन उसी में हो रहे हैं.
हालांकि ऐसी महफ़िलों में ऐसे अप्रिय मुद्दे नहीं उठाए जाते, मैंने अध्यक्षता का कुछ दुरुपयोग करते हुए यह सवाल उठाया कि जब देश में झूठ-घृणा-हिंसा-हत्यारी और बलात्कारी मानसिकता, भेदभाव और अन्याय तेज़ी से रात-दिन फैल और फैलाए जा रहे हैं तो शास्त्रीय कलाकारों में उन्हें लेकर ऐसी चुप्पी क्यों है?
जिन शास्त्रीय कलाओं ने औपनिवेशिक सत्ता के आगे कभी घुटने नहीं टेके और उनका लगभग कोई भी प्रभाव ग्रहण नहीं किया उन्हीं कलाओं में आज ऐसी चतुर कायरता क्यों? लेखक-कलाकार-रंगकर्मी प्रतिरोध कर रहे हैं पर शास्त्रीय कलाकार इस बिरादरी में क्यों शामिल नहीं हैं? राजों-रजवाड़ों के ज़माने में उनकी सत्ता से निकटता थी पर लोकतांत्रिक सत्ता में वे सत्ता-भक्त क्यों? ज़ाहिर है कि यह मुद्दा विचार-विनिमय में नहीं आया.
अमेरिकी और अरबी
मुझे याद नहीं आता कि आधुनिक समय में कोई कवि प्रकृति के इतना लगातार निकट रहा हो, जितनी कि अमेरिकी कवयित्री मेरी ऑलिवर. पेंगुइन से उनकी चुनी हुई कविताओं का एक संचयन ‘डिवोशंस’ नाम से आया है. उसमें एक लंबी कविता का एक अंश हिन्दी में:
इस सुबह हमेशा की तरह मैं जल्दी उठ गई और अपनी मेज़ पर चली गई
लेकिन यह वसंत है
और बास्कार पक्षी जंगल में है
उलझी शाखाओं में कहीं और वह गा रहा है.
और इसलिए, अब, मैं खुले दरवाज़े पर खड़ी हूं
और अब मैं नीचे घास पर क़दम रख रही हूं
मैं कुछ पत्तियां छू रही हूं
मैं देख रही हूं कि पीली तितलियां कैसे
साथ-साथ आगे बढ़ रही हैं, एक जगमगाते बादल में, खेत के ऊपर.
और मैं सोच रही हूं: शायद, सिर्फ़ देखना और सुनना
असली नाम है
शायद, दुनिया, हमारे बिना
असली कविता है.
मूलतः मिस्र से पर इन दिनों कनाडा में बसी अरबी कवयित्री ईमान मरसल की एक गद्य-कविता इस तरह समाप्त होती है:
‘हर बार जब तुम अपने घर जाती हो दुनिया के मैल को अपने नाखूनों के नीचे लिए हुए,
तुम हर चीज़ से, जो ले जा सकती हो, भर देती हो अलमारियों को.
पर तुम इनकार करती हो घर को कूड़ा-करकट का ठिकाना मानने से,
एक ऐसी जगह जहां निष्प्राण चीज़ें पहले कभी उम्मीद होने का भ्रम पैदा करती थीं.
घर को ऐसी जगह रहने दो जहां तुम ख़राब रोशनी कभी नोटिस नहीं करतीं,
उसे एक दीवार रहने दो जिसकी दरारें बढ़ती रहती हैं जब तक कि एक दिन तुम उन्हें दरवाज़ा समझने लगो.’
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)