दो पत्रकारों ने जून 2020 में आरोप लगाया था कि झारखंड के गोसेवा आयोग के अध्यक्ष के रूप में नियुक्ति के लिए अम्रतेश सिंह चौहान द्वारा 2016 में उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के रिश्तेदारों को रिश्वत के रूप में 25 लाख रुपये की राशि का भुगतान किया गया था. हाईकोर्ट ने आरोप की सीबीआई जांच के आदेश दे दिए थे.
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) से जांच कराने संबंधी हाईकोर्ट का आदेश बुधवार को निरस्त कर दिया.
हाईकोर्ट ने 27 अक्टूबर, 2020 को पत्रकार उमेश शर्मा और शिव प्रसाद सेमवाल के खिलाफ दर्ज एफआईआर को रद्द करते हुए भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेता के खिलाफ लगाए गए आरोपों की सीबीआई जांच का आदेश दिया था.
शीर्ष अदालत ने कहा कि दोनों पत्रकारों ने अपने खिलाफ एफआईआर रद्द करने का अनुरोध करते हुए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था और उन्होंने सोशल मीडिया में रावत के खिलाफ उनके द्वारा लगाए गए भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच की मांग नहीं की थी.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि रावत के खिलाफ जांच या आपराधिक कार्यवाही शुरू करने का कोई अनुरोध नहीं किया गया था.
जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस सीटी रविकुमार की पीठ ने कहा कि हाईकोर्ट द्वारा पारित आदेश बरकरार नहीं रखा जा सकता और नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ है.
पीठ ने कहा, ‘अपीलकर्ता के खिलाफ आपराधिक जांच के निर्देश और इस दौरान (हाईकोर्ट द्वारा) की गई टिप्पणियों को निरस्त किया जाता है. यह विशेष रूप से उल्लेखित किया जाता है कि उपरोक्त आधारों पर ही आदेश रद्द किए जाते हैं.’
त्रिवेंद्र सिंह रावत 2017 से 2021 के बीच उत्तराखंड के मुख्यमंत्री थे.
बार एंड बेंच के मुताबिक, जून 2020 में जारी एक वीडियो में यह आरोप लगाया गया था कि झारखंड के गोसेवा आयोग के अध्यक्ष के रूप में नियुक्ति के लिए अम्रतेश सिंह चौहान द्वारा 2016 में रावत के रिश्तेदारों को रिश्वत के रूप में 25 लाख रुपये की राशि का भुगतान किया गया था.
रावत उस समय झारखंड में भाजपा के राज्य प्रभारी थे. रिश्वत की राशि कथित रूप से डॉ. हरेंद्र सिंह रावत (रावत के साले) और पत्नी सविता रावत (रावत की बहन) सहित विभिन्न बैंक खातों में जमा की गई थी.
हरेंद्र सिंह रावत और सविता रावत के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही को बाद में रद्द कर दिया गया था, क्योंकि हाईकोर्ट ने पाया था कि धोखाधड़ी, जालसाजी, साजिश के कथित अपराध नहीं बनते हैं.
एकल न्यायाधीश जस्टिस रवींद्र मैथानी द्वारा मूल शिकायतकर्ताओं के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के लिए तीन रिट याचिकाओं की अनुमति देने के बाद रावत ने शीर्ष अदालत का रुख किया था, जिसमें कहा गया था कि इस मुद्दे में कुछ और मुद्दे हैं.
हाईकोर्ट ने तब यह विचार किया था कि रावत के खिलाफ लगाए गए भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच की जानी चाहिए.
हाईकोर्ट ने कहा था, ‘लोगों को इस धारणा में नहीं रहना चाहिए कि उनके प्रतिनिधि शुद्ध नहीं हैं. यदि कोई झूठे आरोप लगाता है जो कानून में कार्रवाई योग्य है, तो कानून को अपना काम करना चाहिए. अगर उच्च पदों पर आसीन लोगों के खिलाफ लगाए गए भ्रष्टाचार के आरोप बिना उनकी जांच और सफाई के समाज में बने रहते हैं, तो इससे न तो समाज को बढ़ने में मदद मिलेगी और न ही राज्य को कुशलता से काम करने में मदद मिलेगी.’
इसलिए जस्टिस मैथानी ने पुलिस अधीक्षक, सीबीआई देहरादून को लगाए गए आरोपों की जांच के लिए मामला दर्ज करने का निर्देश दिया था.
इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने अक्टूबर 2020 में त्रिवेंद्र सिंह रावत के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की सीबीआई जांच का आदेश देने संबंधी हाईकोर्ट के आदेश पर रोक लगा दी थी.
उत्तराखंड हाईकोर्ट ने बीते 27 अक्टूबर 2020 को पत्रकार उमेश शर्मा के खिलाफ मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की छवि बिगाड़ने के मामले में दर्ज की गई एफआईआर को रद्द करते हुए मामले की सीबीआई जांच के आदेश दिए थे.
उमेश शर्मा ने इस साल 24 जून 2020 को सोशल मीडिया पर एक पोस्ट डाली थी, जिसमें दावा किया गया था कि झारखंड के अम्रतेश चौहान ने नोटबंदी के बाद मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के निजी लाभ के लिए एक सेवानिवृत्त प्रोफेसर हरेंद्र सिंह रावत और उनकी पत्नी डॉ. सविता रावत के विभिन्न खातों में पैसे जमा कराए थे.
इस पोस्ट में दावे के समर्थन में बैंक खाते में हुए लेन-देन का विवरण भी डाला गया था. इस पर हरेंद्र रावत ने 31 जुलाई 2020 को देहरादून में इन आरोपों को झूठा और आधारहीन बताते हुए शर्मा पर ब्लैकमेल करने का आरोप लगाते हुए एफआईआर दर्ज कराई थी.
इस एफआईआर में सेमवाल के न्यूज पोर्टल ‘पर्वतजन’ और दूसरे पत्रकार राजेश शर्मा के मीडिया आउटलेट ‘क्राइम स्टोरी’ का भी नाम था.
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)