संघ प्रमुख ने ठीक कहा कि हिंदू युद्धरत हैं. लेकिन यह एकतरफ़ा हमला है. पिछले कुछ वर्षों में सारे हिंदू नहीं, लेकिन उनके नाम पर हिंदुत्ववादी गिरोहों ने मुसलमानों, ईसाइयों के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ दिया है. और दूसरा पक्ष, यानी मुसलमान और कुछ जगह ईसाई, इसका कोई उत्तर नहीं दे सकते. फिर इसे युद्ध क्यों कहें?
हिंदुओं में दिखलाई पड़ रही कट्टरता, घृणा, आक्रामकता और हिंसा को स्वाभाविक और प्रकारांतर से जायज़ ठहराते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख के वक्तव्य से वे लोग हतप्रभ रह गए हैं जो पिछले दिनों संघ को सभ्य समाज में मान्यता दिलाने की वकालत करते रहे हैं. कारण जो हो, संघ ने आख़िरकार स्वीकार किया कि हिंदुओं के भीतर कट्टरता और आक्रामकता है.
आज के पहले यही बात जो लोग दुख के साथ बोलते थे, उन्हें भारत छोड़कर जाने की सलाह दी जाती थी. हिंदू स्वभावतः सहिष्णु, उदार और अहिंसक होता है, उसमें घृणा और कट्टरता की बात करना अपराध है: आज तक हम संघ के नेताओं और समर्थकों से ही नहीं बहुत से समझदार हिंदुओं से भी यही सुनते आए हैं: घृणा और कट्टरता दूसरे धर्मों के दुर्गुण हैं, हिंदुओं पर इनका इल्ज़ाम नहीं लगाया जा सकता. लेकिन अब ख़ुद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने स्वीकार कर लिया है कि हिंदुओं में कट्टरता आ गई है.
हिंदू लेकिन अपने आप कट्टर या आक्रामक नहीं हुए हैं, इसकी वाजिब वजह है: हिंदू बेचारे युद्ध कर रहे हैं. और युद्ध भी छोटा-मोटा नहीं, एक हज़ार साल लंबा है और अभी चल ही रहा है. युद्ध में आप विनम्रता और अहिंसा या सहिष्णुता की अपेक्षा नहीं कर सकते. इसलिए स्वाभाविक रूप से सहनशील हिंदू भी अगर इस समय कट्टर और कर्कश दिख रहे हों, तो दोष उनका नहीं उस युद्ध का है जो वे लड़ रहे हैं.
संघ प्रमुख का मानना है कि कट्टरता और आक्रामकता अच्छी बात नहीं लेकिन हिंदू एक असाधारण स्थिति में हैं. उनकी स्थिति को समझा जाना चाहिए.
संघ प्रमुख ने ढेर सारी दूसरी बातों के बीच यह कहा. वह भी पाञ्चजन्य और ऑर्गनाइज़र के संपादकों को, जो परिवार के सदस्य ही हैं. इसलिए इसे इंटरव्यू कहना ग़लत है. इंटरव्यू की शक्ल में संघ प्रमुख को एक लंबा भाषण देने का मौक़ा दिया गया. इतिहास, राजनीति, अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य, एलजीबीटीक्यू+ समुदाय, आदि विविध विषयों पर संघ प्रमुख को अपने विचार व्यक्त करने अवसर मिला. और अब हम और आप उसका विश्लेषण करने को बाध्य हैं.
ऐसे पत्रकार हैं जो इस वक्तव्य में सकारात्मक चीज़ें खोज रहे हैं. मसलन एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के प्रति उदार रवैया. क्या ऐसे संघ को, जो इतना प्रगतिशील हो चला है, आप मात्र इस कारण स्वीकार नहीं करेंगे कि वह मुसलमानों और ईसाइयों के ख़िलाफ़ है?
इस भाषण में यह भी कहा गया है कि मुसलमान भारत में रह सकते हैं, शर्त एक है कि उन्हें कट्टरता और संकीर्णता और श्रेष्ठतावाद छोड़ देना होगा. क्या इस बात से कोई असहमत हो सकता है? संघ प्रमुख विकल्प भी दे रहे हैं: मुसलमान चाहें तो अपने पूर्वजों के धर्म यानी अपने असली घर लौट जाएं. न चाहें तो कोई बात नहीं, वे घबराएं नहीं. उनके लिए जो हदें तय की गई हैं, उनके भीतर वे चैन से रह सकते हैं.
यह सब कुछ हम बचपन से सुनते आए हैं, संघ प्रमुख कोई नई बात नहीं कह रहे. मुसलमानों को मुहम्मदी हिंदू कहकर अपनाने की बात मेरे पड़ोसी स्वयंसेवक कहते रहे थे. 2014 में दिल्ली के बवाना इलाक़े में मुसलमानों को चौक पर ताज़िया लाने से रोका गया. उस वक्त लोकसभा टीवी चैनल पर चर्चा के दौरान संघ के एक बौद्धिक ने कहा कि मुसलमान यहां निश्चिंत रह सकते हैं, सिर्फ़ उन्हें कुछ नियंत्रण मानने होंगे. यही बात संघ प्रमुख ने दूसरे शब्दों में कही है.
फिर इस इंटरव्यू का प्रसंग और अर्थ क्या है? पिछले 7-8 वर्षों में हिंदुत्ववादियों के द्वारा घृणा और हिंसा के प्रचार सार्वजनिक चिंता का विषय बन गया है. जगह-जगह मुसलमानों को काट डालने, मुसलमान औरतों के साथ बलात्कार करने, हिंदुओं को हथियार रखने और दुश्मनों का गला काट लेने को तैयार रखने के नारे आम हो गए हैं. उन्हें विधर्मियों से अपनी लड़कियों को बचाने का आह्वान भी किया जाता रहा है.
उन्हें डराया जा रहा है कि भारत में उनकी आबादी कम हो जाएगी. उन्हें मुसलमानों और ईसाइयों से सावधान किया जा रहा है. यह सब खुलेआम सड़क, चौराहे, सभागार में कहा जा रहा है, सोशल मीडिया में यह ज़हर रात-दिन बहाया जा रहा है. हिंदुओं के नाम पर उनकी तरफ़ से इतनी ग़लाज़त देखकर लोग हैरान हैं.
तो क्या संघ प्रमुख इन्हीं सबको स्वाभाविक और जायज़ ठहरा रहे हैं? क्या यह गाली-गलौज, धमकी, नफ़रत इसलिए उचित है कि हिंदू एक जंग लड़ रहे हैं और उन्हें दुश्मनों के ख़िलाफ़ घृणा पैदा करनी है ताकि वे उनका संहार कर सकें? कुवचन के बिना हिंसा कैसे की जा सकती है? इस घृणा अभियान में निचले स्तर के लोगों और गृहमंत्री या प्रधानमंत्री में अद्भुत समानता है.
संघ प्रमुख एक जगह ठीक बोल रहे हैं. हिंदू युद्धरत हैं. लेकिन यह एकतरफ़ा हमला है. हिंदुओं से कोई लड़ नहीं रहा. एक हज़ार साल की बात कोई नहीं जानता, पिछले कुछ वर्षों से भले ही सारे हिंदू नहीं, उनके नाम पर हिंदुत्ववादी गिरोहों ने मुसलमानों, ईसाइयों के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ दिया है.
गाय, गोमांस के नाम पर, राष्ट्रगान के नाम पर, भारत माता की जय या जय श्रीराम के नाम पर मुसलमानों पर अकेले घेरकर या सामूहिक आक्रमण की घटनाओं की बाढ़ आ गई है. मुसलमान मोहल्लों पर हमले सामान्य बात है. मुसलमान कश्मीरियों पर कहीं भी हमला किया जा सकता है. गुंडों के इन गिरोहों के साथ युद्ध राज्य की पुलिस और प्रशासन भी शामिल है, अपने बुलडोज़र के साथ.
मस्जिदों पर क़ब्ज़ा, हिजाब पर हमला, युद्ध के रूप अनेक हैं. भारत में अख़बारों और टीवी चैनलों ने मुसलमानों के ख़िलाफ़ जंग छेड़ दी है. नागरिकता के नए क़ानून, तीन तलाक़ विरोधी क़ानून, धर्मांतरण विरोधी क़ानून इस युद्ध के हथियार हैं.
मज़ा यह है कि दूसरा पक्ष, यानी मुसलमान और कुछ जगह ईसाई, इस युद्ध में कोई उत्तर नहीं दे सकते. क़ानून, पुलिस, प्रशासन सबने मिलकर उनके हाथ बांध दिए हैं. फिर इसे युद्ध क्यों कहें? यह हिंदुत्ववादी गिरोहों का हमला है.
संघ प्रमुख इस हमले को जायज़ ठहरा रहे हैं. कुछ लोग कह रहे हैं कि ऐसा करना अब उनकी मजबूरी है. उनका मुक़ाबला एक ऐसे स्वयंसेवक से है जो कट्टरता, घृणा और हिंसक भाषा का मूर्तिमान रूप है. अनुयायियों में हैसियत बनाए रखने के लिए बेचारे संघ प्रमुख को ऐसी बात करनी पड़ रही है, वरना वे बेचारे ऐसे हैं नहीं.
क्या आपको उनके पिछले वक्तव्य याद नहीं जिनमें उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों का डीएनए एक होने की बात कही थी? संघ प्रमुख अधिक महत्त्वपूर्ण हैं या उनका वह स्वयंसेवक जो प्रधानमंत्री है, इससे मुसलमानों और ईसाइयों को फ़र्क नहीं पड़ता. उन पर हिंसा दोनों ही स्थितियों में एक जैसी ही होनी है.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)