बिहार के शिक्षा मंत्री द्वारा रामचरितमानस की आलोचना को लेकर अगर कुछ नया है तो वह है इस पर हुआ हंगामा. श्रमण संस्कृति के पैरोकार विद्वान व सामाजिक कार्यकर्ता, तुलसीदास व रामचरितमानस की आलोचना में न सिर्फ इससे कहीं ज़्यादा कडे़ शब्द इस्तेमाल कर चुके हैं. एक दौर में तुलसीदास को ‘हिंदू समाज का पथभ्रष्टक’ तक क़रार दिया जा चुका है.
क्या हम ‘भारत के लोग’ तेजी से उस दौर में लौटे जा रहे हैं, जिसमें किसी का ‘पृथ्वी गोल है’ जैसा असंदिग्ध रूप से प्रमाणित तथ्य दोहराना भी काबिल-ए-एतराज माना जाने लगेगा, कुछ लोग अपनी भावनाएं आहत होने का दावा करते हुए हड़बोंग मचाने लगेंगे और तथ्य दोहराने वालों को उनसे बचाने की जिम्मेदारी संभाल रहे सत्ताधीश ‘बुद्धिमत्तापूर्वक’ बीच का रास्ता निकालते-निकालते हड़बाोंग मचाने वालों के ही रास्ते पर चलने लग जाएंगे?
ऐसा नहीं होता तो गत अक्टूबर में दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार के मंत्री राजेंद्र पाल गौतम द्वारा एक कार्यक्रम में कुछ लोगों को बाबासाहब डाॅ. भीमराव आंबेडकर की बहुचर्चित 22 प्रतिज्ञाएं कराना ‘अपराध’ क्यों कर करार दिया जाता? देश की सत्ता संचालित कर रही भारतीय जनता पार्टी उसे हिंदू देवी-देवताओं के प्रति ‘अभद्र’ बताकर हंगामा क्यों खड़ा करती और आमतौर पर उसके खिलाफ बेहद आक्रामक रहने वाले मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल इस मामले में बेहद रक्षात्मक होकर गौतम की बलि क्यों चढ़ा देते?
इन दिनों हम बिहार की नीतीश सरकार में मंत्री चंद्रशेखर के गोस्वामी तुलसीदास व रामचरितमानस संबंधी बयान को लेकर भाजपा के खड़े किए जिस विवाद से रूबरू हैं (और जो उनकी जीभ काट लेने या उन्हें जेल भिजवाने की धमकियों तक जा पहुंचा है), वह भी गौतम प्रकरण जैसी परिणति की ओर ही अग्रसर होता लगता है, क्योंकि चंद्रशेखर के राष्ट्रीय जनता दल के साथ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड ने भी यह ‘साफ’ करने में देर नहीं की है कि उसके लिए सभी धर्म समान हैं और वह चंद्रशेखर के उक्त बयान से इत्तेफाक नहीं रखता.
नीतीश ने चंद्रशेखर को ऐसे बयानों से बचने की जो सलाह दी है, वह भी संभवतः इसी समझ के तहत है कि संबंधित बयान सभी धर्मों की समानता के सिद्धांत का उल्लंघन करता है. अखबारों में छप रहा है कि अब चंद्रशेखर की कुर्सी खतरे में है और राजेंद्र पाल गौतम की तरह उन्हें भी इस्तीफा देना पड़ सकता है.
इस मामले में चंद्रशेखर का ‘कसूर’ यह बात दोहराना है कि तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना ब्राह्मणों की ‘श्रेष्ठता’ स्थापित करने और बहुजनों व महिलाओं को नीचा दिखाने या कि नफरत फैलाने के लिए की. उनके इस दोहराव में कतई कोई नई बात नहीं है.
ब्राह्मण संस्कृति के बरक्स श्रमण संस्कृति के पैरोकार विद्वान व सामाजिक कार्यकर्ता, तुलसीदास व उनके रामचरितमानस की आलोचना में न सिर्फ इससे बल्कि मंडल-कमंडल के दौर के आगाज से भी पहले कहीं ज्यादा कडे़ शब्दों का इस्तेमाल कर चुके हैं. एक दौर में तुलसीदास को ‘हिंदू समाज का पथभ्रष्टक’ तक करार दिया जा चुका है.
कोई तिरेपन साल पहले विक्रमी संवत 2031 (ईसवी सन 1970) में श्रीमती इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व वाली तत्कलीन केंद्र सरकार ने तुलसी चतुष्शती समारोह के लिए एक करोड़ रुपये दिए, तत्कालीन राष्ट्रपति वराहवेंकट गिरि उसके संरक्षक बने और प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने अध्यक्षता करने की स्वीकृति दी तो उत्तर प्रदेश के अर्जक संघ के संस्थापक और शोषित समाज दल के मानवतावादी नेता रामस्वरूप वर्मा रामचरितमानस में ब्राह्मणों व वर्णव्यवस्था के महिमामंडन और स्त्रियों व शूद्रों की हेठी के विरुद्ध खासे मुखर थे क्योंकि उनकी निगाह में रामचरितमानस प्रतिष्ठा या सम्मान देने के कतई योग्य नहीं था.
यहां जानना जरूरी है कि रामस्वरूप वर्मा को तत्कालीन राजनीति का कबीर कहा जाता था और उन्होंने जनप्रतिबद्ध लेखक, समाज सुधारक व चिंतक के रूप में अपनी पचास साल की सक्रियता से उत्तर भारत में एक के बाद एक कई सामाजिक सांस्कृतिक आलोड़न पैदा किए थे. 1967 में उत्तर प्रदेश में बनी चौधरी चरण सिंह की संविद सरकार में वे वित्तमंत्री रहे थे और भोगनीपुर विधानसभा सीट से छह बार विधायक चुने गए थे.
उन्होंने 18 जून, 1970 को राष्ट्रपति गिरि को लिखे पत्र में उनसे पूछा था कि जब भारत का संविधान मानव मानव की बराबरी के सिद्धांत को स्वीकार करता है और स्त्री-पुरुष, शूद्र-ब्राह्मण व म्लेच्छ-हिंदू जैसे अमानवीय अंतरों की कल्पना भी नहीं करता, तब उन्होंने उपर्युक्त अमानवीय अंतरों के प्रतिष्ठापक पं. तुलसीदास की चौथी शताब्दी के आयोजन को संरक्षण क्यों दिया? क्या उनका यह कार्य संविधान की मर्यादा का उल्लंघन नहीं है और क्या इससे देश के विशाल बहुमत को भारी ठेस नहीं लगती?
उन्होंने मांग की थी कि गिरि उक्त समारोह के संरक्षक बनने से इनकार की घोषणा करें, प्रधानमंत्री को उसमें जाने से मना करें और उसके लिए राजकोष से एक पैसा भी न दें.
इस कयास के साथ कि हो सकता है कि राष्ट्रपति को ब्राह्मण होने के कारण तुलसी चतुष्शती समारोह का संरक्षक बनाया गया हो ताकि वे तुलसी के ब्राह्मण गौरव स्थापना के भगीरथ प्रयत्नों के प्रति आभार प्रकट कर सकें, उन्होंने लिखा था कि यह संरक्षण राष्ट्रपति के महिमामय पद की प्रतिष्ठा के सर्वथा विपरीत होगा और जिन्होंने राष्ट्रपति चुनाव में उनको वर्गविहीन समाज-निर्माण का प्रयास करने वाला समझकर मत दिया था, उनको ‘महान क्लेश एवं क्षोभ’ होगा.
उन्होंने गिरि को यह भी याद दिलाया था कि राष्ट्रपति चुनाव के दौरान वे ‘उत्तर प्रदेश गिरि जिताओ समिति’ के संयोजक थे. तब गिरि ने लखनऊ में उनके सभापतित्व में दारुल शफा ए ब्लॉक के कॉमन रूम में हुई विधायकों की बैठक में वादा किया था कि जीतने पर वे भारत के संविधान की मर्यादा रखेंगे. इसलिए अब जब वे राष्ट्रपति पद की शपथ ले चुके हैं, उन्हें अपना उक्त वादा निभाना चाहिए. उनका दावा था कि वे यह पत्र भारत के करोड़ों अर्जकों की ओर से लिख रहे हैं.
नौ दिन बाद 27 जून, 1970 को उन्होंने इस बाबत प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को भी पत्र लिखा और दुख जताया था कि उन्होंने संविधान की शपथ लेने के बावजूद तुलसीदास जैसे सांप्रदायिक व्यक्ति के चतुष्शती समारोह की अध्यक्षता स्वीकार कर ली. राष्ट्रपति की ही तरह उन्होंने उनको भी उलाहना दिया था कि कहीं इसके पीछे यह तो नहीं है कि उन्होंने भी एक ब्राह्मण परिवार में जन्म लिया और तुलसीदास भी ब्राह्मण थे? क्या उन्होंने तुलसी चतुष्शती को भी एक बिरादरी का जलसा मान लिया है?
उन्होंने लिखा था:
‘आप… धर्मनिरपेक्ष भारतीय गणतंत्र की प्रधानमंत्री… ब्राह्मणवाद के प्रबल पोषक तुलसीदास की चतुष्शती में सम्मिलित नहीं हो सकतीं क्योंकि उन्होंने अपने रामचरितमानस में शूद्रों, अन्त्यजों व यवनों को अत्यंत पापी और नीच बताकर भारत की बहुसंख्यक जनता का दारुण अपमान किया है…उनके चतुष्शती समारोह में शामिल होने को आप उचित कैसे सिद्ध कर सकती हैं?… आप नारी हैं. स्वभावतः आपके दिल में उनके दुख-सुख को समझने की अधिक क्षमता है. पंडित तुलसीदास ने अपने ग्रंथों में नारी निंदा की झड़ी लगा दी है…. शूद्र के साथ स्त्री को भी नीच और अधम कहा है…’
राष्ट्रपति ने उनके 18 जून, 1970 के पत्र का उत्तर नहीं दिया तो उन्होंने छह अगस्त, 1970 को उन्हें एक और लंबा पत्र भेजा. उसमें रामचरितमानस में परंपरा का रूप देकर, लोभ-लालच दिखाकर, भगवान या महापुरुषों के मुंह से कहलाकर या धमकी के जरिये ब्राह्मणों को सर्वश्रेष्ठ, परम आदरणीय और पूज्य बताने की कोशिशों की कई बानगियां देकर दोहराया कि वह वर्णव्यवस्था का हिमायती और भारत के संविधान का विरोधी है.
साथ ही यह भी लिखा कि तुलसीदास ने उसकी रचना राष्ट्रनिर्माण या मानवता का संदेश देने के लिए नहीं, इसलिए की कि उन्हें यानी उनकी जाति को सुख मिले.
दूसरी ओर प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी ने भी उनके पत्र का उत्तर नहीं ही दिया. तब उन्होंने चौदह अगस्त, 1970 को फिर पत्र लिखा कि रामचरितमानस न तो राष्ट्रीय ग्रंथ है, न राष्ट्रहितकारी. वह जातीयता का प्रबल पोषक, सांप्रदायिकता को उभारने वाला तथा स्त्री व शूद्र निंदा का विशाल भंडार है.
इससे पहले श्रीमती गांधी उनके सारे एतराज दरकिनारकर एक अगस्त, 1970 को चतुष्शती समारोह समिति के तत्वावधान में तुलसीदास को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करके कह चुकी थीं कि रामचरितमानस हिंदू या भारतीय ग्रंथ नहीं बल्कि विश्वग्रंथ है.
इसे लेकर उन्होंने (वर्मा ने) उनको लिखा कि उन्होंने ‘परहित सरिस धरम नहिं भाई’ जैसी एक अर्धाली की आड़ में रामचरितमानस को परस्पर सहयोग, सामाजिक न्याय और सद्भावना का संदेश देने वाला ग्रंथ बताकर उसकी महत्ता भी स्वीकार कर ली! …ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होने के कारण उसमें व्याप्त शूद्रों के प्रति घृणा की ओर ध्यान नहीं दिया.
गौरतलब है कि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों को लिखे सभी पत्रों में वर्मा ने तुलसीदास और रामचरितमानस संबंधी अपने मतों व निष्कर्षों का रामचरितमानस के अनेक उद्धरणों से पुष्ट किया था. बाद में उन्होंने इन पत्रों को अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘ब्राह्मण महिमा क्यों और कैसे’ में छापा तो लिखा था श्री गिरि और श्रीमती गांधी सच्चाई की ओर से मुंह मोड़े हुए हैं और वे मानववाद पर आधारित समतामूलक सच्ची सभ्यता का विकासकर भारत के करोड़ों अर्जकों को अपमान, तिरस्कार व अभाव से मुक्ति दिलाने में निश्चय ही असमर्थ रहेंगे.
पुस्तक की प्रस्तावना में उन्होंने लिखा था कि ऐसे में अर्जकों के सामने एक ही रास्ता रह गया है कि वे ब्राह्मणवादी ग्रंथों का बहिष्कार करके ब्राह्मणवादी संस्कृति से पिंड छुड़ाएं और जो शासन ब्राह्मणवादी विचारधारा का पोषक या रक्षक बने, उसे हटाने में प्राणपण से जुट जाएं.
लगे हाथ हिंदी व मैथिली के अनूठे कवि/लेखक बाबा नागार्जुन द्वारा तुलसी चतुष्शती के अवसर पर व्यक्त किए गए रामचरितमानस संबंधी ये विचार भी, जिन्हें हम नागार्जुन रचनावली के खंड छह से उद्धृत कर रहे हैं, जान लीजिए:
‘रामचरितमानस हमारी जनता के लिए क्या नहीं है! सभी कुछ है. दकियानूसी का दस्तावेज है… नियतिवाद की नैया है… जातिवाद की जुगाली है. सामंतशाही की शहनाई है! ब्राह्मणवाद के लिए वातानुकूलित विश्रामागार… पौराणिकता का पूजामंडप… वह क्या नहीं है! सब कुछ है, बहुत कुछ है.
रामचरितमानस की बदौलत ही उत्तर भारत की लोकचेतना सही तौर पर स्पंदित नहीं होती. रामचरितमानस की महिमा ही जनसंघ के लिए सबसे बड़ा भरोसा होती है हिंदी प्रदेशों में.
जहालत, गरीबी, रुचिशून्यता, रूढ़ि मोह आदि घातक बीमारियां उत्तर भारत में रहने वाले बहुसंख्यक समाज को निस्तेज और निर्बल बना चुकी हैं. सत्तर प्रतिशत लोग जैसे-तैसे गुजारा कर रहे हैं. वर्गों-उपवर्गो, जातियों-उपजातियों के बीच विषमता की इन विकराल खाइयों को क्या रामचरितमानस का वह पौधा पाट देगा? काश, वैसा होता. फिर तो हम बहुतेरे झमेलों से आनन फानन छुटकारा पा लेते.’
इसी क्रम में वे यह भी कहने से नहीं चूके थे कि तुलसी का जन्म तो आखिर ब्राह्मण वंश में ही हुआ था न! नानक या कबीर वाली प्रखरता कहां से लाते? इतना ही नहीं, उन्होंने सुझाया था कि विशाल हिंदी प्रदेशों की सभी राज्य सरकारें शूद्र की निंदा और ज्ञानगुणहीन ब्राह्मण की प्रशंसा वाले अंशों को हटाकर रामचरितमानस का संक्षिप्त एवं सर्वजनोपयोगी अभिनव संस्करण तैयार व प्रकाशित कराएं.
सोचिए जरा, इसके बावजूद मंत्री चंद्रशेखर के बयान पर बिहार में, और उसके बाहर भी, जो वातावरण बनाया जा रहा है, क्या वह इसी का संकेतक नहीं है कि ऐसा ही रहा तो एक दिन ‘पृथ्वी गोल है’ कहने पर भी एतराज उठाए जाएंगे? अफसोस की बात यह कि कांग्रेस की सरकारें हों, भाजपा की या खुद को समाजवादी अथवा ‘आप’की कहने वाली पार्टियों की, ऐसे मामलों में उनका रवैया लगभग एक जैसा ही रहता आया है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)