न्यायपालिका में विविधता होनी चाहिए, हेट्रोसेक्सुअल जजों के भी पूर्वाग्रह होते हैं: सौरभ कृपाल

वरिष्ठ अधिवक्ता सौरभ कृपाल, जिन्हें दिल्ली हाईकोर्ट का जज बनाने की सिफ़ारिश की गई है, की यह टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम द्वारा यह खुलासा किए जाने के बाद आई है कि उनकी नियुक्ति पर सरकार की एक आपत्ति यह थी कि 'समलैंगिक अधिकारों के प्रति उनके झुकाव' के चलते पूर्वाग्रहों की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता.

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अधिवक्ता सौरभ कृपाल. (फोटो साभार: YouTube/Kolkata Literary Meet)

वरिष्ठ अधिवक्ता सौरभ कृपाल, जिन्हें दिल्ली हाईकोर्ट का जज बनाने की सिफ़ारिश की गई है, की यह टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम द्वारा यह खुलासा किए जाने के बाद आई है कि उनकी नियुक्ति पर सरकार की एक आपत्ति यह थी कि ‘समलैंगिक अधिकारों के प्रति उनके झुकाव’ के चलते पूर्वाग्रहों की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता.

अधिवक्ता सौरभ कृपाल. (फोटो साभार: YouTube/Kolkata Literary Meet)

नई दिल्ली: वरिष्ठ अधिवक्ता सौरभ कृपाल, जिनकी दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति पर सरकार ने उनके यौन झुकाव (सेक्सुअल ओरिएंटेशन) के कारण आपत्ति जताई है, ने कहा कि न्यायपालिका में आज बड़े पैमाने पर कथित उच्च जाति, विषमलैंगिक (हेट्रोसेक्सुअल) पुरुष हैं, जिनमें कुछ पूर्वाग्रह भी हैं.

रिपोर्ट के अनुसार, कोलकाता लिटरेरी मीट में शामिल कृपाल ने कहा कि पीठ को समाज को प्रतिबिंबित करना चाहिए. उन्होंने यह भी जोड़ा कि किसी केस से अलग होने की प्रथा न्यायाधीशों को उन मामलों की सुनवाई से खुद को दूर करने की अनुमति देती है जहां वे ‘भावनात्मक रूप से जुड़े’ हुए हैं और महसूस करते हैं कि वे इंसाफ नहीं कर सकते.

कृपाल की टिप्पणी 18 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम द्वारा यह खुलासा किए जाने के बाद आई है कि दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में उनकी नियुक्ति पर सरकार की एक आपत्ति यह थी कि ‘समलैंगिक अधिकारों के लिए उनके झुकाव’ के चलते पूर्वाग्रहों की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है.

हालांकि, कॉलेजियम ने सरकार द्वारा उठाई गई आपत्तियों को खारिज कर दिया था और जज के बतौर नियुक्ति के लिए उनके नाम को दोहराया था.

24 जनवरी को कोलकाता में आयोजित समारोह में कृपाल ने कहा, ‘यह मानना एक भ्रम है कि एक न्यायाधीश को उनके पालन-पोषण, सामाजिक परिवेश, उनकी धारणाओं और विचारों आदि से पूरी तरह से अलग किया जा सकता है. यह अनुभव न्यायाधीश को बनाते हैं और ‘संविधान में किसी अस्पष्ट शब्द’ की व्याख्या करते समय उस शब्द का अर्थ ‘किसी अमीर उच्च जाति के परिवार’ से आने वाले व्यक्ति के लिए किसी दलित पृष्ठभूमि से आने वाले व्यक्ति या किसी महिला की तुलना में अलग होगा.’

उन्होंने कहा, ‘जब हम कहते हैं कि संविधान जीवन और स्वतंत्रता का वादा करता है, तो यहां जीवन का क्या अर्थ है वह इस बात पर निर्भर करेगा कि आपकी अपनी जिंदगी कैसी रही है. तो कुछ के लिए, यह केवल कठिन या न्यूनतम होगा-  यानी जीवन का अर्थ बस जीवित रहने और सांस लेने की क्षमता. कुछ अन्य लोगों के लिए… जीवन का अर्थ इससे कहीं अधिक है, इसका अर्थ है गरिमा से भरा जीवन. ऐसी जिंदगी, जहां आपके पास खाने के लिए पर्याप्त नहीं है, जहां आपको हर दिन अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ता है- वो हमारे संविधान में इस्तेमाल किया जाने वाला ‘जीवन’ शब्द नहीं हो सकता.’

उन्होंने कहा कि एक व्यक्ति की विचारधारा उसकी व्याख्या को आकार देगी, लेकिन ‘यह कहना कि क्योंकि आपकी एक विशेष विचारधारा है’ और इसलिए पक्षपाती हैं, न्यायाधीशों की नियुक्ति को रोकने का एक कारण है. उन्होंने जोड़ा कि हर जज का दृष्टिकोण उनकी सामाजिक वास्तविकताओं के अनुसार होगा.

कृपाल ने आगे कहा, ‘यह न्यायाधीशों के लिए भी नुकसान की बात है क्योंकि अस्पष्टता होने पर, ऐसा नहीं है कि न्यायाधीश कानून को लेकर पूरी तरह से स्वछंद हैं और जो फैसला लेने का मन करता है, वे निर्णय लेते हैं. वे कानून से बंधे हैं. यह अस्पष्टता उन मामलों में है, जहां वो जो कुछ कह रहे हैं, वो उनके जीवन के अनुभव तय होता है, किसी बात पर खुलकर सोचने से नहीं, बल्कि जैसा मुझे लगता है कि उनकी परवरिश पर निर्भर करता है. मैं कहूंगा कि यह पूर्वाग्रह का सवाल नहीं है. पक्षपात तब होता है जब आप एक पूर्व निर्धारित मानसिकता के साथ बाहर जाते हैं कि मैं हमेशा, चाहे कुछ भी हो, इस विशेष बात के पक्ष में निर्णय करूंगा. आम तौर पर एक न्यायाधीश को ऐसा नहीं सोचना चाहिए.’

कृपाल ने कहा कि जज हर दिन कई तरह के मामलों को सुनते हैं और बहुत कम ऐसे होते हैं जहां वे ‘पक्षपाती’ हो सकते हैं. और अगर किसी जज को लगता है कि वे पक्षपाती हो सकते हैं, तो मामले से अलग होने का सुस्थापित तंत्र  है. यदि आप पाते हैं कि आप किसी विशेष मामले से इतने भावनात्मक रूप से जुड़े हुए हैं कि आप इसके साथ न्याय नहीं कर सकते हैं, तो इसका जवाब उस मामले को नहीं सुनना है.

उन्होंने यह कहकर बात खत्म की कि पीठ को पूर्वाग्रह वाले न्यायाधीशों की आवश्यकता है.

उन्होंने कहा, ‘आपको पूर्वाग्रह रखने जजों की जरूरत है. क्यों? वर्तमान में आपके पास बेंच पर उच्च जाति से ताल्लुक रखने वाले हेट्रोसेक्सुअल पुरुष हैं-  सभी जिनके पास कुछ निश्चित पूर्वाग्रह होंगे. वे वह दर्शक नहीं है जिन्हें मैं अपने सामने देख रहा हूं, वह वह देश नहीं है जहां मैं रहता हूँ! तो क्या बेंच को खुद समाज के एक हिस्से को प्रतिबिंबित नहीं करना चाहिए? आप जिसे पूर्वाग्रह कहते हैं, मैं उसे  या वैकल्पिक जीवन के अनुभव कहूंगा.’

इस साहित्यिक उत्सव में कृपाल अपनी किताब ‘फिफ्टीन जजमेंट्स: केसेज़ दैट शेप्ड इंडियाज़ फाइनेंशियल लैंडस्केप’ पर हुई एक चर्चा में भाग ले रहे थे.

ज्ञात हो कि सौरभ देश के पूर्व प्रधान न्यायाधीश बीएन कृपाल के बेटे हैं. सौरभ कृपाल ने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई की है और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से कानून में मास्टर डिग्री ली है तथा जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र में एक संक्षिप्त कार्यकाल के बाद वह भारत लौट आए थे. वे अपनी समलैंगिक पहचान खुले तौर पर स्वीकार कर चुके हैं.

कृपाल दो दशक से अधिक समय से शीर्ष अदालत में वकालत कर रहे हैं. वह उस मामले में नवतेज जौहर, रितु डालमिया और अन्य लोगों के वकील थे, जिसमें 2018 में समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया था.

बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम ने कृपाल को दिल्ली हाईकोर्ट का न्यायाधीश नियुक्त करने की 11 नवंबर, 2021 की अपनी सिफारिश को दोहराया था और कहा था कहा कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में सौरभ कृपाल की नियुक्ति का प्रस्ताव पांच साल से अधिक समय से लंबित है, जिस पर तेजी से निर्णय लेने की आवश्यकता है.

कॉलेजियम ने यह भी बताया था कि सरकार ने उनके नाम को लेकर अपनी आपत्ति में उनके यौन झुकाव और उनके पार्टनर को लेकर संदेह जताया था, जिसे कॉलेजियम ने ख़ारिज कर दिया था.

इसके बयान में कहा गया था कि सौरभ कृपाल के पास ‘क्षमता, सत्यनिष्ठा और मेधा’ है और उनकी नियुक्ति से उच्च न्यायालय की पीठ में विविधता आएगी.