गांधी: हिंसा बहादुरी नहीं कायरता का लक्षण है और तलवारें कमज़ोरों का हथियार

पुण्यतिथि विशेष: गांधी की रामराज्य की अवधारणा कोई धार्मिक अवधारणा नहीं, बल्कि महान नैतिक मूल्यों पर आधारित और प्राचीनता व आधुनिकता दोनों की रूढ़ियों से मुक्त वैकल्पिक सभ्यता का पर्याय थी. उनके निकट धर्म भी इन्हीं महान नैतिक मूल्यों को बरतने का दूसरा नाम था.

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गुजरात के दांडी में महात्मा गांधी की प्रतिमा. (फोटो साभार: ट्विटर/नरेंद्र मोदी)

पुण्यतिथि विशेष: गांधी की रामराज्य की अवधारणा कोई धार्मिक अवधारणा नहीं, बल्कि महान नैतिक मूल्यों पर आधारित और प्राचीनता व आधुनिकता दोनों की रूढ़ियों से मुक्त वैकल्पिक सभ्यता का पर्याय थी. उनके निकट धर्म भी इन्हीं महान नैतिक मूल्यों को बरतने का दूसरा नाम था.

गुजरात के दांडी में महात्मा गांधी की प्रतिमा. (फोटो साभार: ट्विटर/नरेंद्र मोदी)

महात्मा गांधी को आम तौर पर सत्य व अहिंसा के ऐसे दृढ़ व्रती के रूप में देखा जाता है, जिसकी असाधारण साधारणता से अभिभूत महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था कि भविष्य की पीढ़ियों को इस बात पर विश्वास करने में बहुत मुश्किल पेश आएगी कि हाड़-मांस से बना उसके जैसा कोई व्यक्ति भी कभी धरती पर आया था. समय के साथ यह कथन महात्मा के महामानवत्व पर कुछ इस तरह चस्पां हो चुका है कि उनके बारे में ज्यादातर चर्चाएं इसके जिक्र के बगैर पूरी नहीं होतीं.

ठीक इसी तरह इस सवाल के जवाब में कि वे कैसे भारत के निर्माण का सपना देखते थे, सबसे पहले उनकी दो कृतियों की याद आती है: पहली ‘मेरे सपनों का भारत’ और दूसरी ‘हिंद स्वराज्य’.

‘मेरे सपनों का भारत’ में उन्होंने लिखा है कि भारत अपने मूल रूप में कर्मभूमि है, भोगभूमि नहीं और मुझे पूरा विश्वास है कि उसके पास सारी दुनिया के लिए एक संदेश है. निस्संदेह, अपनी इस कर्मभूमि को लेकर उनका सबसे बड़ा स्वप्न था- रामराज्य की स्थापना, जिसके बारे में उनका मानना था कि आत्मानुशासन व आत्मसंयम से अनुप्राणित स्वराज्य के बगैर वह कतई संभव नहीं है.

भारत के गांवों का देश होने के नाते उनके स्वराज्य की परिधि ग्राम स्वावलंबन और ग्राम स्वराज्य तक फैली हुई थी और वह अंग्रेजी के इंडिपेंडेंस शब्द का शब्दशः अनुवाद नहीं था. इंडिपेंडेंस शब्द उन्हें सब प्रकार की मर्यादाओं से मुक्त यानी निरंकुश आजादी अर्थात स्वछंदता का अर्थ देता लगता था, जबकि स्वराज्य खुद पर किसी और के बजाय अपने शासन का पर्याय था. इस स्वराज्य में उन्हें सत्याग्रह के साथ अहिंसा की न सिर्फ सिद्धांत के तौर पर बल्कि उसकी प्रथाओं और परंपराओं में भी प्रतिष्ठा अभीष्ट थी.

गौरतलब यह कि उन्होंने कभी अपनी ओर से सत्य व अहिंसा का कोई नया सिद्धांत या संदेश देने का दावा नहीं किया और अपने जीवन को ही अपना संदेश बताते रहे. यह भी कि सत्याग्रह की प्रेरणा उन्होंने मीराबाई से ली, जिन्हें वे प्रथम सत्याग्रही मानते थे, तो रामराज्य की कल्पना तुलसीदास से, चरखा कबीर से और पराई पीर को अपनी पीर समझने की भावना नरसी मेहता से.

अपनी सबसे प्रिय प्रार्थना ‘रघुपति राघव राजाराम पतित पावन सीताराम….’ में उन्हें इन सबका अक्स नजर आता था और उनके सपनों के रामराज्य में जन्म, धर्म, संप्रदाय, नस्ल, रंग, भाषा या क्षेत्र आदि किसी के भी आधार पर किसी कुमति या ऊंच-नीच पर आधारित भेदभाव की कोई जगह नहीं थी और हाशिये के समूहों व उत्पीड़ित समुदायों के सारे शोषणों व वंचनाओं का अंत हो जाना था. वे उसमें किसी भी तरह की गुलामी, गंदगी और परावलंबन की कोई जगह नहीं रखते थे, ताकि गरीब से गरीब लोग भी यह महसूस कर सकें कि यह देश उनका है और इसके निर्माण में उनकी आवाज का महत्व है.

उनके निकट अहिंसा का अर्थ खुद हिंसा न करने तक सीमित नहीं, बल्कि उसे न होने देने के कर्तव्य तक विस्तारित था. उनका मानना था कि हिंसा हमारे देश के किसी भी दुख का इलाज नहीं है और उसकी संस्कृति का अनुसरण करते हुए आत्मरक्षा के लिए अहिंसा व सत्याग्रह का प्रयोग ही उचित है. अपनी इस मान्यता को उन्होंने उन दिनों की दुनिया की सबसे क्रूर और सबसे बड़ी साम्राज्यवादी शक्ति के प्रतिरोध के सफल प्रयोग से पुष्ट भी किया था.

उनकी रामराज्य की अवधारणा कोई धार्मिक अवधारणा नहीं, बल्कि महान नैतिक मूल्यों पर आधारित और प्राचीनता व आधुनिकता दोनों की रूढ़ियों से मुक्त वैकल्पिक सभ्यता का पर्याय थी. उनके निकट धर्म भी इन्हीं महान नैतिक मूल्यों को बरतने यानी अपने आचरण में उतारने का दूसरा नाम था. वैसे ही जैसे राजनीति का एकमात्र अर्थ था राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन. वे मानते थे कि इसी वैकल्पिक सभ्यता के रास्ते भारत पश्चिम की आक्रामक आधुनिकता के बरक्स खुद को फिर से खोज और दुनिया को युद्ध व आर्थिक लूट दोनों से त्राण दिला सकता है.

उनका समूचा जीवन गवाह है कि अपनी इस अवधारणा को साकार करने के लिए उन्होंने अपनी आखिरी सांस तक कुछ भी उठा नहीं रखा. 10 फरवरी, 1921 को पहली बार भगवान राम की राजधानी अयोध्या आए तो भी अपने आंदोलन में हिंसक हो रहे किसानों और नंगी तलवारों के साथ जुलूस निकाल रहे खिलाफत कार्यकर्ताओं को ऐसा संदेश दिया, जो उनके सपनों के भारत के बारे में बहुत कुछ साफ करता है. उन्होंने कहा: हिंसा बहादुरी का नहीं कायरता का लक्षण है और तलवारें कमजोरों का हथियार हैं.

उनकी मान्यता थी कि भारत तलवार की नीति अपना ले तो वह क्षणिक विजय तो पा सकता है, लेकिन तब वह मेरे गर्व का विषय नहीं रहेगा. चौरीचौरा कांड के बाद उन्होंने समूचा असहयोग आंदोलन ही स्थगित कर दिया था क्योंकि उन्हें लगने लगा था कि अभी देश अहिंसक संघर्षों के लिए तैयार नहीं हो पाया है.

वे भारत को स्वतंत्र ही नहीं, बलवान होता हुआ भी देखना चाहते थे, लेकिन मानते थे कि पश्चिम के रक्तरंजित मार्ग पर चलते रहने में उसका कोई भविष्य नहीं है, ‘जिस पर चलते−चलते पश्चिम स्वयं थक गया है.’ उन्होंने यह चेतावनी भी दी थी कि भारत ने पश्चिमी सभ्यता की विचारहीन व विवेकहीन नकल की कोशिश की, तो उसके लिए उसका अर्थ अपने हाथों अपना सर्वनाश कर लेना होगा. इसलिए उसे उस सुनहरे मायामृग के पीछे नहीं ही दौड़ना चाहिए. लेकिन इससे यह समझना गलत होगा कि वे पश्चिमी सभ्यता के अंधविरोधी थे.

उनका मानना था कि आधुनिक विज्ञान की चमत्कृत करके रख देने वाली जानकारियों व उपलब्धियों के साथ पश्चिम के पास बहुत कुछ ऐसा है, जिसे उससे लेकर पचाया और लाभान्वित हुआ जा सकता है. लेकिन उसकी भोगवृत्ति भारत को कतई रास नहीं आने वाली. इसीलिए अंधांधुध उपभोग की सर्वथा मनाही करते हुए वे कहते थे कि यह धरती जरूरतें तो सबकी पूरी कर सकती है पर किसी एक की भी हवस के लिए कम है और नहीं चाहते थे कि उनकी कर्मभूमि किसी के भोग की हवस के लिए कम पड़े.

अपने सपनों के भारत में वे उसके विविध धर्मों व संप्रदायों में परस्पर लेन-देन वाले ऐसे मेल-जोल की कामना करते थे, जो अस्पृश्यता व नशाखोरी जैसे अभिशापों से सर्वथा मुक्त हो, उसमें न सिर्फ पूर्ण शराबबंदी बल्कि पूर्ण नशाबंदी हो. उनके निकट दारू का दैत्य देश के लिए अंग्रेजों से भी ज्यादा खतरनाक था क्योंकि वह इंसान को हैवान बना देता था.

चूंकि वे ग्राम स्वराज्य के बगैर स्वराज्य से रामराज्य तक की यात्रा सर्वथा नामुमकिन मानते थे. इसलिए हिंद स्वराज में उन्होंने ग्राम इकाइयों को पंचायतराज की मार्फत सुशिक्षित, सशक्त, आत्मनिर्भर और नियामक बनाने पर जोर दिया था. इस पर भी कि शिक्षा का सर्वोच्च उद्देश्य चरित्र निर्माण व आत्म-मूल्यांकन हो और उसकी प्रक्रिया बचपन से ही शुरू की जाए.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)