बाबू जगदेव प्रसाद: ‘पहली पीढ़ी के लोग मारे जाएंगे, दूसरी के जेल जाएंगे और तीसरी पीढ़ी राज करेगी’

जन्मदिन विशेष: 'बिहार के लेनिन' कहे जाने वाले बाबू जगदेव प्रसाद कहते थे कि आज का हिंदुस्तानी समाज साफ तौर से दो भागों में बंटा हुआ है- दस प्रतिशत शोषक और नब्बे प्रतिशत शोषित. यह इज़्ज़त और रोटी की लड़ाई हिंदुस्तान में समाजवाद या कम्युनिज़्म की असली लड़ाई है. भारत का असली वर्ग संघर्ष यही है.

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बाबू जगदेव प्रसाद. (फोटो साभार: istampgallery.com)

जन्मदिन विशेष: ‘बिहार के लेनिन’ कहे जाने वाले बाबू जगदेव प्रसाद कहते थे कि आज का हिंदुस्तानी समाज साफ तौर से दो भागों में बंटा हुआ है- दस प्रतिशत शोषक और नब्बे प्रतिशत शोषित. यह इज़्ज़त और रोटी की लड़ाई हिंदुस्तान में समाजवाद या कम्युनिज़्म की असली लड़ाई है. भारत का असली वर्ग संघर्ष यही है.

बाबू जगदेव प्रसाद. (फोटो साभार: istampgallery.com)

आज मौजूदा दौर में जब भारत के सत्ता पर दक्षिणपंथियों का कब्ज़ा है (जगदेव बाबू इसे द्विजों का शासन कहते हैं.) और वह अपने विरोधियों को, विशेष तौर पर कम्युनिस्टों को- देश-विरोधी के रूप में खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं और इसमें बहुजन नेता भी पीछे नहीं हैं, तो ऐसे में हमें उन बहुजन नायकों को याद करना जरूरी हो जाता है, जिन्होंने अपने समय के कम्युनिस्ट नेताओं की आलोचना करते हुए भी मार्क्स-लेनिन के सिद्धांत को अपने व्यक्तिगत और राजनीतिक सिद्धांत में शामिल किया.

इन नायकों में सबसे महत्वपूर्ण नामों में एक है: बाबू जगदेव प्रसाद कुशवाहा. सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक असमानता के खिलाफ आजीवन संघर्ष करने वाले बाबू जगदेव प्रसाद का जन्म बिहार के अरवल जिला के कुरहारी (कुर्था) ग्राम में 2 फरवरी 1922 को एक पिछड़ा परिवार में हुआ था. बचपन से ही उनकी प्रवृति असमानता के खिलाफ एक लड़ाकू का रहा है, जिसे उनके बचपन के घटना में देखा जा सकता है.

उन दिनों बिहार में ‘पचकठिया प्रथा’ का चलन था, जिसके तहत जमींदार का हाथी प्रत्येक किसान के खेत में जबरन पांच कट्ठा धान चरता था. इसी प्रथा के तहत एक दिन स्थानीय जमींदार का हाथी जगदेव प्रसाद के खेत में धान चरने गया तो उन्होंने अपने कुछ साथियों को लेकर हाथी एवं महावत पर हमला बोल दिया. बाध्य होकर महावत को हाथी लेकर वापस लौटना पड़ा. इस तरह उन्होंने इस प्रथा के खिलाफ अपना पहला विद्रोह दर्ज कराया.

1950 में पटना विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में एमए करने के बाद जगदेव बाबू ने सचिवालय में कुछ समय नौकरी की, जिसके बाद उन्होंने गया के एक हाईस्कूल में पढ़ाना शुरू किया. उन्हीं दिनों उन्होने डोला प्रथा, जिसके तहत पिछड़ी और दलित जाति की नवविवाहिता को अपनी पहली रात इलाके के जमींदार के साथ गुजारनी पड़ रही थी, के खिलाफ लोगों को एकजुट कर लड़ने को प्रेरित किया. बाद में, वे सोशलिस्ट पार्टी पार्टी में शामिल हो गए.

डॉ. जितेंद्र वर्मा के लेख ‘खड़ा रहा जो अपने पथ पर’ के अनुसार, ‘उन्हें (जगदेव बाबू को) इस पार्टी से जोड़ने में समाजवादी नेता उपेंद्रनाथ वर्मा का भी अहम योगदान है. उन्होंने जगदेव बाबू से कहा कि आप जिसके लिए लड़ रहे हैं सोशलिस्ट पार्टी भी उसी के लिए लड़ रही है. आप अकेले इतनी बड़ी लड़ाई नहीं लड़ सकते. आप सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो जाएं. हमारी पार्टी सामाजिक उत्पीड़न, मजदूरी वृद्धि, गैर मजरुआ जमीन को गरीबों के बीच बंटाने जैसे मुद्दों को लेकर लड़ रही है.’ जगदेव बाबू को यह बात ठीक लगी और वे सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गए. 1953 में वे पार्टी के मुख पत्र ‘जनता’ के संपादक बनाए गए. इसके साथ ही, उन्होंने बाद के वर्षों में और कई पत्रिकाओं का संपादन किया, जिसमें सिटिज़न (अंग्रेजी साप्ताहिक), उदय (हिंदी साप्ताहिक) और शोषित (शोषित दल की मुख्य पत्रिका) शामिल हैं.

जगदेव बाबू चुनावी राजनीति में भी खूब सक्रिय रहे और कई बार बिहार सरकार में कैबिनेट में भी शामिल रहे. 1957 में आज़ाद भारत का जब दूसरा संसदीय चुनाव हुआ, तो जगदेव बाबू पहली बार सोशलिस्ट पार्टी के टिकट से विक्रमगंज से चुनावी मैदान में थे, हालांकि इस बार उन्हें हार का सामना करना पड़ा. इसके बाद वे 1962 के बिहार विधानसभा चुनाव में कुर्था से खड़े हुए. इस चुनाव में भी वे पराजित हुए. लेकिन 1967 के अगले बिहार विधानसभा चुनाव में इसी सीट से संयुक्त समाजवादी दल (संसोपा) के टिकट पर उन्होंने जीत दर्ज की.

इस चुनाव में संसोपा 69 सीट लगाकर सबसे बड़ी पार्टी बनी थी. सरकार भी बनाई और महामाया प्रसाद को मुख्यमंत्री बनाया गया लेकिन वे सामंतों के हित में काम करने लगे. इससे नाराज़ होकर वे संसोपा से अलग हो गए. इसी साल 25 दिसंबर1967 को पटना के अंजुमन इस्लामिया हॉल में उन्होंने अपनी एक नई पार्टी बनाई. नाम रखा- शोषित दल. उस दिन उन्होंने एक ऐतिहासिक भाषण दिया, जो आज भी बहुजन लड़कों को प्रेरित करता है.

उन्होंने कहा था, ‘जिस लड़ाई की बुनियाद आज मैं डाल रहा हूं, वह लंबी और कठिन होगी. चूंकि मैं एक क्रांतिकारी पार्टी का निर्माण कर रहा हूं, इसलिए इसमें आने और जाने वाले की कमी नहीं रहेगी परंतु इसकी धारा रुकेगी नहीं. इसमें पहली पीढ़ी के लोग मारे जाएंगे, दूसरी पीढ़ी के लोग जेल जाएंगे तथा तीसरी पीढ़ी के लोग राज करेंगे. जीत अंततोगत्वा हमारी ही होगी.’

आगे उन्होंने कहा, ‘ऊंची जाति वालों ने हमारे बाप-दादा से हलवाही करवाई है, मैं उनकी राजनीतिक हलवाही करने के लिए पैदा नहीं हुआ हूं. मैं तमाम काले-कलूटे, निरादृत-दरिद्र, फटेहाल-बेहाल, मजलूमों और महकूमों को निश्चित नीति, सिद्धांत के तहत एक मंच पर एकत्र करूंगा और ऐसे ही लोगों के बीच से नेतृत्व खड़ा करके दिल्ली की गद्दी पर बैठाऊंगा, जो धन, दौलत, नौकरी, टोपरी, व्यापार, कल-कारखाने का बंटवारा स्वयं करेगा.’

कुछ दिनों बाद जब महामाया प्रसाद की सरकार गिरी तब बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल के नेतृत्व में नई सरकार बनी और इस सरकार में उन्हें सिंचाई और बिजली विभाग मिला. यह सरकार भी बहुत लंबी नहीं चल सकी. 1969 में मध्यावधि चुनाव हुआ, जिसमें इनकी पार्टी शोषित दल को 6 सीटें मिली. किसी दल को बहुमत नहीं मिला था, इसलिए कांग्रेस-शोषित दल ने मिलकर सरकार बनाई. मुख्यमंत्री बने सरदार हरिहर सिंह. जगदेव बाबू भी मंत्रिमंडल में शामिल थे लेकिन यह सरकार भी महज़ तीन महीने में गिर गई.

फिर बिहार में गैर-कांग्रेसी सरकार बनी, जिसमें दरोगा प्रसाद राय मुख्यमंत्री बने और जगदेव बाबू को फिर से सिंचाई, बिजली और योजना मंत्री के रूप में मंत्रिमंडल में जगह मिली. इसी कार्यकाल में 2 अप्रैल 1970 को जगदेव बाबू ने बिहार विधानसभा में ऐतिहासिक भाषण दिया था, जिसमें उन्होंने शोषितों-दलितों के लिए नब्बे फ़ीसदी हिस्सेदारी की मांग की थी. उन्होंने कहा था, ‘सामाजिक न्याय, स्वतंत्र और निष्पक्ष प्रशासन के लिए सरकारी, अर्द्ध सरकारी और गैर-सरकारी नौकरियों में कम से कम 90 सैकड़ा जगह शोषितों के लिए सुरक्षित कर दी जाए.’

1972 में जब बिहार विधानसभा का आम चुनाव हुआ तो अपने उसी कुर्था विधानसभा क्षेत्र से जगदेव बाबू चुनाव लड़े और हार गए यह उनका आखिरी चुनाव था. इसी साल 7 अगस्त 1972 को जगदेव बाबू ने अपने पार्टी शोषित दल का विलय उत्तर प्रदेश के रामस्वरूप वर्मा की पार्टी ‘समाज दल’ में कर एक नई पार्टी बनाई, जिसका नाम रखा गया- ‘शोषित-समाज दल’. इसके महज़ दो वर्ष बाद ही 5 सितंबर 1974 को जहानाबाद में कांग्रेस सरकार के खिलाफ कर रहे सत्याग्रह के दौरान कथित ऊंची जाति के एक प्रशासनिक अधिकारी ने जगदेव बाबू को गोली मारकर हत्या कर दी.

बाबू जगदेव प्रसाद को ‘बिहार का लेनिन’ कहा जाता है. ऐसा क्यों, जबकि उनका सीधा संबंध किसी कम्युनिस्ट आंदोलन या राजनीतिक दल से नहीं रहा! हालांकि वे भारत के सामाजिक संरचना के संदर्भ में कम्युनिस्ट राजनीति के पैरोकार थे. इस बात का प्रमाण उनके इस तथ्य से मिलता है, जो उन्होंने 25 अगस्त 1967 को शोषित दल की स्थापना के अवसर पर लिखा था:

‘समाजवाद या कम्युनिज्म की लड़ाई, शोषक बनाम शोषित की लड़ाई.’

आज का हिंदुस्तानी समाज साफ तौर से दो भागों में बंटा हुआ है- दस प्रतिशत शोषक और नब्बे प्रतिशत शोषित. दस प्रतिशत शोषक बनाम नब्बे प्रतिशत शोषित की इज्जत और रोटी की लड़ाई हिंदुस्तान में समाजवाद या कम्युनिज्म की असली लड़ाई है. हिंदुस्तान जैसे द्विज शोषित देश में असली वर्ग संघर्ष यही है. इस नग्न सत्य को जो नहीं मानता वह द्विजवादी समाज का पोषक, शोषित विरोधी और अव्वल दर्जे का जाल फरेबी है. साथ ही वे लिखते हैं, यदि मार्क्स-लेनिन हिंदुस्तान में पैदा होते तो दस प्रतिशत ऊंची जाति (शोषक) बनाम नब्बे प्रतिशत शोषित (सर्वहारा) की मुक्ति को वर्ग संघर्ष की संज्ञा देते.

बाबू जगदेव प्रसाद मार्क्स के वर्ग संघर्ष सिद्धांत को अपनी राजनीतिक दल ‘शोषित दल’ के नीतियों में शामिल करते हुए कहते हैं कि शोषित दल का सिद्धांत है नब्बे प्रतिशत शोषितों का राज, सत्ता पर कब्जा और इस्तेमाल, सामाजिक-आर्थिक क्रांति द्वारा बराबरी का राज कायम करना इसलिए शोषित दल की नीतियां वर्ग संघर्ष में विश्वास करने वाले कट्टर वामपंथी दल की नीतियां होंगी.

सामाजिक क्रांति के बिना आर्थिक क्रांति संभव नहीं

14 जून 1969 को राष्ट्रीय शोषित संघ के सालाना जलसे का उद्घाटन करते हुए जगदेव बाबू ने आर्थिक क्रांति से पहले सामाजिक क्रांति की आवश्यकता पर जोड़ देने की बात की. इस जलसे में उन्होंने मार्क्स और लेनिन के सामाजिक विचार को चिह्नित करते हुए कहा हैं कि लेनिन ने रूस के समाज का विश्लेषण किया. वहां की आर्थिक और सामाजिक नब्ज पर उन्होंने अपना हाथ रखा, जिसे हम शोषित कहते हैं, उसको वहां सर्वहारा कहा गया. मार्क्स ने एक को उच्च वर्ग या बुर्जुआ वर्ग और दूसरे को सर्वहारा कहा. उन्होंने सर्वहारा का साथ दिया जो आर्थिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ, सामाजिक दृष्टि से सताया हुआ, सांस्कृतिक दृष्टि से गुलाम और मानसिक दृष्टि से दबाया हुआ था. लेनिन ने आर्थिक गैर-बराबरी से मुक्ति दिलाने का रास्ता बताया.

बाबू जगदेव प्रसाद पाश्चात्य और भारतीय समाज के बीच अंतर को बखूबी पहचानते थे. उनके अनुसार, यूरोप में जाति प्रथा नहीं है, ऊंच-नीच की भावना नहीं है. यूरोप में ब्राह्मण और अ-ब्राह्मण की लड़ाई नहीं है. उन लोगों ने सिर्फ आर्थिक क्रांति की और आर्थिक गैर-बराबरी को दूर किया. लेकिन हिंदुस्तान एक विशेष स्थिति में है. इसलिए जो यूरोप में था ठीक वही हिंदुस्तान में नहीं है. हिंदुस्तान में आर्थिक गैर-बराबरी के साथ सामाजिक गैर-बराबरी भी है. सामाजिक गैर-बराबरी इज्जत की लड़ाई है. हमें विश्वास है जब तक सामाजिक क्रांति नहीं होगी, तब तक आर्थिक क्रांति नहीं हो सकती. जब तक शोषित समाज के हाथ में हुकूमत की बागडोर नहीं आएगी, तब तक आर्थिक गैर-बराबरी नहीं मिटेगी.

भारत में शोषित कौन-कौन हैं, इसकी पहचान करते हुए जगदेव बाबू कहते हैं कि हिंदुस्तान का शोषित हिंदुस्तान का सर्वहारा, तमाम हरिजन, आदिवासी, पिछड़ी जाति और कथित नीची जाति के लोग हैं. इनकी आबादी नब्बे प्रतिशत है. दस प्रतिशत शोषक पूंजीपति, जमींदार, ब्राह्मण, ऊंची जाति के हैं, उन्हें गुलाम बनाकर रखा है. इस नब्बे प्रतिशत शोषित और दस प्रतिशत शोषक की लड़ाई ही वैज्ञानिक समाजवाद की लड़ाई है. मार्क्स अगर हिंदुस्तान में पैदा हुए होते तो उत्तर प्रदेश के राष्ट्रीय शोषित संघ और बिहार के शोषित दल के साथ होते. इससे जुड़े तमाम लोगों ने उन्हें अपना गुरु माना है.

जगदेव बाबू बिहार के नक्सलबाड़ी आंदोलन, जिसे भोजपुर आंदोलन भी कहा जाता है, के समर्थक थे. उन्होंने नक्सलबाड़ी आंदोलन के केंद्र ‘सहार’ को आदर्श मानते हुए कहा था कि पूरे बिहार को ‘सहार’ बना दो. डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह अपने लेख ‘वे जो जनता की याददाश्त में जीवित हैं’ में लिखते हैं, बिहार के भोजपुर इलाके में अमीरगा जोतदार दलित-पिछड़ी लड़कियों के साथ शोषण और उत्पीड़न किया करते थे. सत्तर के दशक में एकवारी के मास्टर साहब (जगदीश महतो) ने इसका विरोध किया था.

वे बिहार में नक्सल आंदोलन के संस्थापक थे. यह इतिहास की विडंबना कहिए कि मास्टर जगदीश प्रसाद की मृत्यु जगदेव प्रसाद की शहादत से दो साल पहले हो चुकी थी वरना जगदेव प्रसाद का वह सपना पूरा हो गया होता जो 28 जुलाई, 1974 को सहार प्रखंड मुख्यालय पर उन्होंने घोषित किया था कि सारे बिहार को ‘सहार’ बना दो. मास्टर जगदीश प्रसाद इसी सहार क्षेत्र के थे. बिहार का वह सहार क्षेत्र उस वक्त अत्याचारी सामंतों के खिलाफ प्रतिरोधी गोलियों की तड़तड़ाहट के कारण ख्यात था.

जाहिर है वे खुद को कम्युनिस्ट विचार के करीब खड़ा करते थे. अपने राजनीतिक दल ‘शोषित दल’ की नीतियों को कट्टर कम्युनिस्ट की नीतियों के समान माना. इसके बावजूद उन्होंने अपने समय के भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियों और उसके नेतृत्व की खासी आलोचना की. उनका मानना था कि भारतीय कम्युनिस्ट न तो सही माने में मार्क्सवादी हैं न वर्ग-संघर्ष या वैज्ञानिक समाजवाद के हिमायती. वास्तव में कम्युनिस्ट पार्टी हिंदुस्तानी साम्राज्यवादियों की जमात है. जब तक कम्युनिस्ट नेतृत्व दलित, पिछड़ी जाति, आदिवासी और मुसलमानों (जो नब्बे प्रतिशत हैं और जिन्हें हम शोषित कहते हैं) के हाथ में नहीं आ जाता, तब तक कम्युनिस्ट पार्टी को सर्वहारा का दोस्त समझना अव्वल दर्जे की बेवकूफी होगी.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं.)