कैंपस की कहानियां: इस विशेष सीरीज़ में दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्र शिशिर अग्रवाल अपना अनुभव साझा कर रहे हैं.
अभी-अभी मेरी 12वीं की बोर्ड परीक्षा ख़त्म हुई थी. यूं तो बहुतों के लिए ये खुशी का मौका था मगर मेरे लिए ऐसा नहीं था. अंतिम परीक्षा के ठीक 8 दिन बाद JEE की यानी IIT की परीक्षा थी. चूंकि मैं विज्ञान का विद्यार्थी था इसलिए परिवार वालों के दवाब में मुझे इसका फॉर्म भरना पड़ा था. मेरा इसे देने का बिल्कुल मन नहीं था क्योंकि मैं इंजीनियर नहीं बल्कि एक पत्रकार के रूप में अपना भविष्य देखता था.
मगर हर विज्ञान के छात्र की तरह मुझे भी समझाया जाने लगा कि ‘क्या ये सब फ़ालतू के शौक पाल रखे हैं तुमने. पत्रकारिता करोगे तो कमाओगे कितना और खाओगे क्या? आजकल जमाना भी खराब है आए दिन किसी न किसी पत्रकार की हत्या की खबर सुनने में आती है. थ्री इडियट्स देखकर आए हो न इसलिए इतना जोश है. चुपचाप इंजीनियरिंग करो ताकि कुछ कमाने लायक हो जाओ.’ और ऐसी ही तमाम बातें सुनकर आख़िरकार मैंने वो परीक्षा भी दी और बाद में उसे पास भी किया.
मगर मैं अपनी ज़िद पर अडिग रहा. दरअसल ये थ्री इडियट्स वाला जोश नहीं बल्कि मेरा जुनून था. घरवालों की सोच से इतर मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण परीक्षा तो एक महीने बाद दिल्ली में थी. दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया में प्रवेश परीक्षा थी. मगर सवाल यह था कि मैं दिल्ली जाऊं किसके साथ, क्योंकि मेरे घर से कभी कोई दिल्ली नही गया था. इतना बड़ा शहर वह भी बिना जानकारी के जाना मेरे जैसे छोटे-से क़स्बे के लड़के के लिए इतना आसान न था.
आखिरकार मुझे वहां ले जाने का बीड़ा मेरे बड़े भैया ने उठाया. ठीक परीक्षा के दिन हम दिल्ली पहुंचे और अगले दिन ही पेपर देकर हम लौट आए. इधर JEE का परिणाम भी आ चुका था मगर मैंने साफ कर दिया कि मुझे इंजीनियरिंग नहीं करनी है. संघर्ष और तमाम वाद-विवाद के बाद आख़िरकार मैने जीत हासिल की और घरवालों को मेरी बात माननी पड़ी.
अब मैं बेसब्री से जामिया मिलिया इस्लामिया के प्रवेश परीक्षा के परिणाम का इंतज़ार कर रहा था. परिणाम आया और उसे देखकर मैं खुशी से झूम उठा.मे रा चयन जामिया में जो हुआ था. ऐसी यूनिवर्सिटी जिसका मैं ख्वाब देखता था अब मैं उसमे पढ़ने जो वाला था.
मगर चयन हो जाने पर भी वहां पढ़ने भेजना मेरे परिवार के लिए इतना सहज न था.जामिया का नाम सुनते ही मेरे परिवार वाले चिंता में आ जाते. देश की इतनी बड़ी यूनिवर्सिटी होने के बावजूद घरवालों के लिए वो एक ‘मुस्लिम यूनिवर्सिटी’ ही थी. देश में दिनों-दिन बिगड़ते माहौल ने चिंता और बढ़ा दी थी.
इन सब के साथ जब वो मेरे विद्यालय के बारे में सोचते तो जामिया न भेजना ही सबसे सही निर्णय लगता क्योंकि मेरी प्राथमिक शिक्षा सरस्वती शिशु मंदिर से हुई थी. एक ऐसा विद्यालय, जो संघ समर्थित था और जिसके कारण लोगों ने मन में बहुत सारे पूर्वाग्रह विद्यालय और वहां के छात्रों के बारे में बना लिए थे.
पूर्वाग्रह दोनों के लिए थे यानी जामिया के लिए भी और शिशु मंदिर के लिए भी. फिर ऐसी तमाम अफवाहों को हवा हमारे आस-पड़ोस के उन लोगों से भी मिल जाती थी जो दो-चार बार दिल्ली हो आए थे. वे बताया करते थे कि ‘वो यूनिवर्सिटी तो मुसलमानों के लिए बनी है हमारे लिए नहीं. अगर किसी को पता चला कि तुम संघ के स्कूल में पढ़े हो तो पता नहीं वो क्या करेंगे. कितना भी कर लो रहोगे तो तुम संघी ही.’
जिसके आप प्रबल विरोधी हो जब आपको वही सिद्ध किया जाने लगे तो आप क्या करेंगे? कुछ ऐसा ही हाल मेरा भी था मगर मैंने खुद को बिना आधार के संघी कहे जाने के इन दावों को कभी तवज़्ज़ो नही दी. असल में न तो मैं जामिया के नाम को लेकर फ़िक्रमंद था न ही इस बात को लेकर की किसी को अगर मेरे स्कूल के बारे में पता चला तो क्या होगा?
मेरे लिए तो अभी चिंता का पहला विषय दिल्ली था. पराया शहर, पराया प्रदेश और मैं ठहरा एक छोटे क़स्बे का लड़का. महानगरों के तौर-तरीकों से अनजान उस शहर में कैसे रहूंगा… इसी तरह के कई ख्याल मेरे मन में उमड़ रहे थे.
खैर मैंने अपनी हिम्मत बांधी और सामान बांधकर निकल पड़ा दिल्ली की ओर. प्रवेश प्रक्रिया पूरी करने के बाद मैंने रहने का ठिकाना खोजने लगा लेकिन बिना किसी परिचय और इलाकों की जानकारी के ये काम घास में सुई ढूंढने जैसा हो गया था. बड़ी मुश्किल से एक कमरा मिला और मैं वहीं रहने लगा. तीन दिनों में दिल्ली के माहौल ने मुझे बुरी तरह डरा दिया था. सड़क पर बस तो दौड़ रहीं थीं मगर कौन-सी बस कहां जाएगी कुछ पता नहीं था.
ऊपर से घरवालों की बातें भी रह-रहकर डरा रही थीं कि ‘वो बड़ा शहर है, लोग वहां अंग्रेजी में बात करते हैं.’ मगर मैं तो अंग्रेजी बोलना जानता ही नहीं था. थी बेसिर-पैर की लेकिन चिंता हुई कि अगर कहीं खो गया तो लोगों से पता कैसे पूछूंगा, भूख लगी तो खाना कैसे मांगूंगा और प्यास लगी तो पानी मांगने के लिए क्या कहना होगा.
खैर अगले दिन सुबह उठकर मैं तैयार होकर जामिया की ओर भागा. समय और डीटीसी बस की जानकारी के अभाव में ऑटो रिक्शा को ज्यादा पैसे देकर जैसे-तैसे समय से आधे घंटे पहले जामिया पहुंचा और वहीं क्लास के बाहर बैठ गया. यूं तो मैं उस यूनिवर्सिटी में था जहां आना मेरा सपना था मगर फिर भी अजीब-सी टेंशन हो रही थी.
टेंशन हो रही थी अपने स्कूली जीवन को लेकर. घरवाले भी इसी बात को लेकर चिंता में थे कि संघ के स्कूल से सीधा जामिया जाना मेरे लिए कैसा रहेगा. साफ कहूं तो जो मिथक लोगों ने सरस्वती शिशु मंदिर के बारे में पाल रखे थे उन्हें याद कर मैं डरा हुआ था. यहां के शिक्षक और विद्यार्थी मेरे स्कूल के बारे में जानकर कैसी प्रतिक्रिया देंगे इन सबका मुझे कोई अंदाजा न था.
हालांकि घरवालों ने मुझे कहा था कि ‘जब तक बहुत ज़रूरी न हो तुम अपने स्कूल का ज़िक्र न करना.’ इसके साथ ही घर में हुई वो सारी बातें जो मैंने उस वक़्त नज़रअंदाज़ कर दी थी मेरे मन मे अनायास ही आने लगीं, जिससे न चाहकर भी मेरा डर बढ़ने लगा.
थोड़ी ही देर में क्लास शुरू हो गई. शिक्षक आए और उन्होंने पहली पंक्ति से परिचय लेना शुरू किया और पहले विद्यार्थी ने अपना परिचय देना शुरु किया अंग्रेजी में. मेरी घबराहट और बढ़ गई क्योंकि मुझसे उतनी अंग्रेजी नहीं आती थी कि मैं अपना परिचय अंग्रेजी में दे सकूं. थोड़ी ही देर में मेरी बारी आई. मैंने अपना नाम और प्रदेश बताया साथ ही कुछ सेकेंड रुककर मैंने अपना परिचय पूरा करते हुए बताया कि मेरी प्राथमिक शिक्षा सरस्वती शिशु मंदिर में हुई है.
सर ने मेरे चुप होने के बाद पूछा, ‘ये शिशु मंदिर संघ का विद्यालय हैं न?’ और मैंने हां कहा.
मुझे असहज होते देख सर ने बात संभाली और सबकी संबोधित करते हुए कहा, ‘मैंने आप सभी का परिचय इसलिए लिया है ताकि आपलोग एक-दूसरे को जान सकें. याद रखें कि किसी के संबंध में पूर्वाग्रह न बनाए जैसे शिशु मंदिर का नाम सुनकर आप यह बिल्कुल न माने की वो व्यक्ति किसी खास वर्ग के प्रति नफ़रत के भाव रखता होगा. अब आप सभी एक परिवार हैं.’ सर की इन बातों ने मुझे काफी हद तक सहज कर दिया, साथ ही मेरा डर भी कम कुछ कम हुआ.
क्लास खत्म हुई और मैं बाहर निकलकर साथियों से परिचय करने लगा. डिपार्टमेंट के बाहर निकलने पर मेरे साथी ने मेरा परिचय हमारे एक सीनियर से करवाया. उन्हें भी मैंने वहीं परिचय दिया जो छ देर पहले क्लास में दिया था. परिचय सुनते ही उन्होंने मेरे स्कूल के बारे में और जानना चाहा मसलन शिशु मंदिर में क्या होता था, क्या पढ़ाते थे और भी बहुत कुछ जो शायद हर वो व्यक्ति जानना चाहता था जो संघ और शिशु मंदिर के बारे में जानता था. मगर इन सब में उनका इरादा कभी भी मुझे संघी सिद्ध करना नहीं था.
जामिया में मेरा अनुभव बहुत ही सकारात्मक रहा. मैं जिन बातों को लेकर चिंता में था वैसा कुछ भी नहीं हुआ. कैंपस के ‘मिनी पाकिस्तान’ जैसी तमाम बातें पूरी तरह से गलत सिद्ध हो गईं. जहां शिशु मंदिर ने हमे संस्कार और प्यार करना सिखाया था नफ़रत करना नहीं, वहीं जामिया ने मुझे सामाजिक समरसता सिखाई है.
एक रात मेरी तबियत बहुत ज़्यादा बिगड़ गई, वैसा पहले कभी नहीं हुआ था. उस रात मैंने संकोच करते हुए अपने कैंपस के मित्रों को फोन किया और उतनी रात बीतने पर भी वो मेरे लिए हाज़िर हो गए. प्रेमचंद पर एक साथी के साथ लंबी चली बातचीत ने अंग्रेजी वाला डर भी मेरे ज़हन से निकाल दिया.
अपने अनुभव से कहता हूं कि जामिया को संवैधानिक रूप से चाहे जो दर्ज़ा मिला हो मगर मेरे लिए ये वो जगह है जहां मैं पूरे इत्मीनान से किसी भी विषय पर चर्चा कर सकता हूं. आज पूरे 3 महीने के बाद मैं जामिया के रंग में रंग चुका हूं, या ऐसे कहूं कि जामिया ने मुझे पूरी तरह अपनाया है. जगह के अलावा कुछ भी नही बदला है.
(आपके पास कैंपस से जुड़ा कोई अनुभव है और आप हमसे साझा करना चाहते हैं तो [email protected] पर मेल करें.)