(यह लेख मूल रूप से 13 फरवरी 2023 को प्रकशित हुआ था.)
प्रोफेसर तुलसीराम ने वर्ष 2015 में 13 फरवरी को फरीदाबाद स्थित एशियन इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस में अंतिम सांस ली थी. उसके कुछ ही दिनों पहले अपनी ‘मुर्दहिया’ व ‘मणिकर्णिका’ शीर्षक आत्मकथा पर एक चर्चा में उन्होंने कहा था कि उन्हें लगता है कि सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक समानता लाए बिना यह पूरा देश ही मुर्दहिया है. आत्मकथा लिखने से पहले उन्होंने ‘आइडियॉलॉजी इन सोवियत-ईरान रिलेशंस-लेनिन टू स्टालिन’ समेत अंतरराष्ट्रीय संबंधों व राजनीति पर कई पुस्तकें भी लिखी थीं.
आज की तारीख में हम कल्पना ही कर सकते हैं कि ये वर्ष उनके विछोह के न होते तो इस दौरान समानता जैसे पवित्र संवैधानिक मूल्य का जो हाल हुआ है और विकराल असमानता जिस तरह समानता को उसकी बची-खुची जगहों से भी बेदखल कर अपने पंजों में दबोचने को आमादा है, उसे वे कैसी बेचैनी के साथ देखते.
निस्संदेह, सदाबहार हो गई मनुवादियों की कुलांचें भी उन्हें बेचैन ही करतीं क्योंकि उनकी प्रतिगामिताओं के प्रतिरोध में कदम-दर-कदम निजी हमले झेलकर भी उन्होंने यावतजीवन कुछ उठा नहीं रखा. गौतम बुद्ध, कार्ल मार्क्स और बाबासाहब आंबेडकर की विचारधाराओं के समन्वय के अपने सपने को टूटते देखकर भी उनकी बेचैनी बढ़ती ही बढ़ती.
जहां तक निजी हमलों की बात है, एक बार वे एक व्याख्यान में मनुवाद की स्थापनाओं की पोल खोल रहे थे, तो एक हमलावर ‘प्रश्नकर्ता’ ने उनसे यह तक पूछ लिया था कि वे मनुवाद का विरोध कैसे कर सकते हैं, उनका तो नाम ही मनुवादी है? तब कहते हैं कि उन्होंने हंसते हुए लेकिन बहुत चुटीले अंदाज में जवाब दिया था, ‘हां, मेरे माता-पिता ने यह गलती तो की. मेरे जन्म लेने पर मेरा नाम रखने से पहले उन्हें इस बाबत आपसे पूछ लेना था.’
उनका आशय साफ था कि उनका नाम उनका चुनाव नहीं है और उन्हें उनके चुनावों से जज किया जाना चाहिए. इससे भी बड़ी बात यह कि निजी हमलों से वे घबराते नहीं थे, न ही कुंठित होते थे. एक बार तो उन्होंने यह स्थापना देकर कि जो कोई भी वर्ण-व्यवस्था का विरोधी है, वह गैरदलित होकर भी दलित साहित्य रच सकता है, उन दलित साहित्यकारों व आलोचकों की भारी नाराजगी मोल ले ली थी, जो मानते आ रहे थे कि जन्मना दलित ही दलित साहित्य रच सकते हैं.
दलित साहित्य को अपरिपक्व ठहराने या उस पर ‘तोड़फोड़’ के आरोप लगाने पर भी दूसरे कई दलित साहित्यकारों की तरह वे चिढ़ते नहीं थे. उनका उत्तर होता था: ‘अपरिपक्वता समय के साथ दूर होने वाली चीज है. लेकिन दलित साहित्य पर उसका आरोप लगाने वालों को सबसे पहले यह समझना चाहिए कि दलितों के जीवन में तमाम ऐसी पीड़ाएं हैं, जिन्हें केवल वही व्यक्त कर सकते हैं क्योंकि किसी भी सवर्ण के पास उनके जैसे पीड़ाजनक अनुभव नहीं हैं.’
उनका मानना था कि दलित आत्मकथाएं निश्चित रूप से दलित ही लिख सकते हैं क्योंकि मात्र वही उस पीड़ा से गुजरे हैं. देवदासी प्रथा तक में, जिसे धार्मिक मान्यता प्राप्त थी, दलित महिलाओं को ही झोंका गया था.
उनका जन्म एक जुलाई, 1949 को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में चिरैयाकोट के पास स्थित धरमपुर गांव में हुआ था और कहा जाता है कि गरीबी, अभाव, रूढ़ियों व कुरीतियों के बंधनों के साथ नाना सामाजिक-आर्थिक कठिनाइयों से जूझते हुए उन्हें बचपन से ही पुस्तकें पढ़ने का व्यसन हो गया था. इसलिए उच्च शिक्षा के सिलसिले में वे आजमगढ़ से काशी हिंदू विश्वविद्यालय पहुंचे तो सबसे ज्यादा खुश उसका पुस्तकालय देखकर हुए थे. यह सोचकर कि अब उनके मनचाही पुस्तकों के समुद्र में डूबने-उतराने में कोई बाधा नहीं होगी.
उन्होंने लिखा है कि वे इस अंधविश्वास के साथ काशी हिंदू विश्वविद्यालय पहुंचे थे कि बनारस में कोई भूखा नहीं रहता, लेकिन उसी बनारस में उन्हें कई-कई दिन भूखा रहना पड़ा. अलबत्ता, वहीं वे मार्क्सवादियों के संपर्क में आए और मार्क्सवाद को अपना संबल बनाते हुए कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़कर काम करने लगे. इससे उन्हें जो शक्ति व साहस मिला, उससे बकौल उनके: ‘एक दिन ऐसा भी आया जब बुद्ध और मार्क्स ने मिलकर मेरे मस्तिष्क में बसे ईश्वर को भी ध्वस्त कर दिया. मार्क्सवाद ने मुझे विश्वदृष्टि प्रदान की, जिसके चलते मेरा व्यक्तिगत दुख दुनिया के दुख में मिलकर अपना अस्तित्व खो बैठा.’
विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन व रूसी मामलों के तो वे अपनी तरह के अनूठे विशेषज्ञ थे ही, अंतरराष्ट्रीय बौद्ध आंदोलन के साथ भारत के दलित आंदोलन में गहरी पैठ रखने वाले मनीषी भी थे. हां, राजनीतिविज्ञानी भी, समाजविज्ञानी भी और चिंतक भी. गौतम बुद्ध, कार्ल मार्क्स और डॉ. भीमराव आंबेडकर की विचारधाराओं में समन्वय की चाह से भरे रहने के कारण कई जानकार उन्हें ‘तीन बौद्धिक परंपराओं का वाहक’ भी कहते हैं.
वे मानते थे कि भारत में दलित साहित्य बौद्ध साहित्य से विकसित हुआ और इसकी शुरुआत अयोध्या में अश्वघोष ने कोई दो हजार साल पहले की थी. अश्वघोष के ग्रंथों को वे दलित साहित्य के आरंभिक नमूने के तौर पर देखते थे, जबकि वैदिक साहित्य के विरोधी मौदगल्यायन की हत्या को उसकी प्रस्तावना के तौर पर. असहमतियों को कतई नहीं छिपाना और हर मसले पर दो टूक नजरिया अपनाना भी उनकी एक बड़ी विशेषता थी.
उन्हें मार्क्सवादियों से शिकायत थी कि वे बौद्ध साहित्य से इतना परहेज बरतते हैं कि उसके संदर्भ तक नहीं देते. वे साहित्य में विचारधारा को अत्यंत आवश्यक मानते और कहते थे कि विचारधारा बौद्धिक स्वरूप अपनाकर साहित्य में और व्यावहारिक स्वरूप अपनाकर राजनीति में परिवर्तित हो जाती है. उन्हें शिकायत थी कि इसके एक स्वाभाविक प्रक्रिया होने के बावजूद दलित साहित्य राजनीति से जुड़ता है तो उस पर सवाल उठाए जाते हैं.
उनका मत था कि मार्क्सवाद और आंबेडकर-विचारधारा के अंतर्विरोधों को केवल उनके ऐतिहासिक संदर्भों में देखा जाना चाहिए. साथ ही समझा जाना चाहिए कि बाबासाहब डाॅ. भीमराव आंबेडकर मार्क्सवादी नीतियों से नहीं, उनसे जुड़ी कुछ घटनाओं व संदर्भों से असहमत थे. उन्हीं के शब्दों में कहें तो, ‘अच्छा होता कि भारत के मार्क्सवादी थोड़े दलित आंदोलनोन्मुख हो जाते और केवल मजदूरों के पक्ष या सत्ताविरोध के क्षेत्र में ही सक्रिय न रहते. तब शायद दलित आंदोलन के साथ उनके समन्वय व सामंजस्य की कोई राह निकलती.’
ऐसी राह निकालने के प्रयत्नों को वे सारे मुक्तिकामियों की जिम्मेदारी से जोड़ते थे, क्योंकि उनकी समझ थी कि मार्क्सवाद व दलित आंदोलन के बीच दूरियों का सबसे ज्यादा लाभ उन शक्तियों को ही मिल रहा है जो किसी भी तरह दलितों व वंचितों की मुक्तिकामना को सफल होती नहीं देखना चाहतीं.
कई बार खरी-खरी सुनाने में वे अपने समय के कबीर बन जाते थे. एक बार एक दलित संगठन ने प्रेमचंद का उपन्यास ‘रंगभूमि’ जलाने की घोषणा की तो उन्होंने कहा था, ‘मात्र चमार शब्द के इस्तेमाल के कारण जो लोग आज रंगभूमि जला रहे हैं, ऐसे ही अतिवाद के शिकार रहे तो उन्हें एक दिन पूरा बौद्ध साहित्य जलाना पड़ सकता है क्योंकि उसमें भी चमार व चांडाल जैसे शब्द प्रयुक्त हुए हैं. क्या वे इसके लिए तैयार हैं?’
जाति व्यवस्था को वे परमाणु बम से भी कहीं ज्यादा घातक मानते और कहते थे, ‘जाति व्यवस्था के नाश के बिना इस देश में कोई सामाजिक परिवर्तन संभव नहीं है. आप किसी शहर पर परमाणु बम गिरा दीजिए तो वह उसकी एक दो पीढ़ियों को ही नष्ट कर पाएगा. लेकिन हमारे समाज पर थोपी गई जाति व्यवस्था पीढ़ी दर पीढ़ी संभावनाओं का संहार करती आ रही है.’
अंत में कहना होगा: दिल्ली और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर सोशल स्टडीज़ तक की संघर्ष व सृजन से भरपूर यात्रा में उन्होंने समता व समन्वय पर आधारित समाज निर्माण के अपने सपने से कभी समझौता नहीं किया. अब जब वे हमसे बहुत दूर जा चुके हैं, हम उनके बारे में खुद से एक ही वादा कर सकते हैं कि वे हमारे सामने न सही, हमारी स्मृतियों व संघर्षों में बने रहेंगे.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)