कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: 1948 में सैयद हैदर रज़ा का पूरा परिवार पाकिस्तान चला गया था, वे यह कहकर नहीं गए कि भारत उनका वतन है और वे उसे नहीं छोड़ सकते. अब विडंबना यह है कि उनके कला-जीवन की सबसे बड़ी प्रदर्शनी पेरिस के कला संग्रहालय में हो रही है, भारत के किसी कला संस्थान में नहीं.
पेरिस में रज़ा प्रसंग में विश्व-प्रसिद्ध आलोचक डॉ. होमी भाभा की उपस्थिति और मुखरता रोमांचक है. इसी जॉर्ज पाम्पिदू केंद्र में 1980 के दशक में एक प्रदर्शनी आयोजित हुई थी जिसका शीर्षक था ‘धरती के जादूगर’ और उसके कैटलॉग पर उस समय भारत भवन में सक्रिय गोंड प्रधान युवा चित्रकार जनगढ़ सिंह श्याम की एक कलाकृति आवरण चित्र के रूप में प्रकाशित थी.
यह सुखद संयोग है कि जनगढ़ पाठनगढ़ के थे जहां एक ज़माने में प्रसिद्ध नृतत्वशास्त्री वेरियर एल्विन रहे थे और जो उस समय मंडला ज़िले में ही आता था जहां रज़ा ने अपना आरंभिक जीवन बिताया और मंडला शहर में ही अब उनकी कब्र है. होमी इस प्रदर्शनी के उत्तरराग पर बोले.
जैसे जीवन में वैसे ही साहित्य और कलाओं में कहीं लौटना, जहां से आप दूर चले गए होंगे, सारी आकांक्षा और कोशिश के बावजूद, हो नहीं पाता. हम जो जगह और ठिकाने छोड़ते हैं वहां फिर कभी लौटकर आ नहीं पाते. जगह भी इतनी बदल गई होती है इस बीच कि वही नहीं बची रहती जैसी हम छोड़ कर गए थे.
आधुनिक जीवन की लगभग अटल विडंबनाओं में से एक यह है कि हम लौटते तो हैं पर लौट नहीं पाते. जीवन और सर्जनात्मकता दोनों ही हमसे बहुत बड़ी क़ीमत वसूलते हैं. रज़ा ने जो नर्मदा नदी छोड़ी, जो मंडला-दमोह-नागपुर छोड़े, जो बंबई छोड़ा, वहां वे बाद में कई बार आते-जाते रहे पर वे सब काफ़ी बदल गए: उनके दिन जैसे इन शहरों के पंचांग में बचे नहीं, धुल-पुंछ गए.
रज़ा को इस ट्रैजेडी का गहरा एहसास था और उनके कई चित्रों, उन पर अंकित कविता-पंक्तियों में, प्रकारांतर से, यह व्यथा दर्ज़ है. वे फ्रांस में अजनबी की तरह रहे और भारत भी अजनबी की तरह आते रहे. उन्होंने अपना अंतिम समय भारत में ही बिताया पर वे रहे अजनबी की तरह जिसने अपनी अजनबियत की अनिवार्यता स्वीकार कर ली थी. उनके चित्रों में व्याप्त भारतीय अभिप्रायों को यह लौट न पाने को कला द्वारा अतिक्रमित करने की चेष्टा के रूप में देखा जा सकता है.
कबीर का एक पद, जो लोकपरंपरा से ही आया था, कुमार गंधर्व गाते थे: ‘हम परदेसी पंछी बाबा, अनी देसरा नाहीं’. जो जीवन्मुक्ति खोजते हैं उनके लिए तो यह सारा संसार ‘अनीदेसरा नाही’ है. पर कला और कविता शायद या अकसर ऐसी मुक्ति नहीं चाहते. वे संसार में ही मुक्ति चाहते हैं- संसार से मुक्ति नहीं.
भाभा कहते हैं कि जो संभव है वह है सांस्कृतिक अनुवाद. वही जैसे ‘रक्त की एक नई सिद्धि’ का आधार या साक्ष्य हो सकता है. यह एक जटिल स्थिति है, अनेक विडंबनाओं, अंतर्विरोधों और निराशाओं में गुंथी हुई और इसी से कलात्मक संभावना निकलती है. इस संभावना को रज़ा साध पाए. उनके स्वदेश में इस समय अंदरूनी सरहदें लगातार खींची और कई बार खून से सींची जा रही हैं. उनके बरअक्स उनकी कला विभिन्नता को खारिज नहीं, आत्मसात करती है.
रज़ा भौतिक अर्थ में लगभग साढ़े पांच साल अपने अंतिम चरण में लौटे. उससे पहले 1948 में जब उनका पूरा परिवार पाकिस्तान चला गया था, वे यह कहकर नहीं गए कि भारत उनका वतन है और वे उसे नहीं छोड़ सकते. अब विडंबना यह है कि उनके चित्रों की उनके कला-जीवन की सबसे बड़ी प्रदर्शनी पेरिस के एक विश्वविख्यात कला संग्रहालय में हो रही है, भारत के किसी राष्ट्रीय कला संस्थान में नहीं.
राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय और भारत भवन में, जहां उनका भारत में सबसे बड़ा सार्वजनिक संग्रह मौजूद है, ऐसी कोई प्रदर्शनी नहीं हो रही है जबकि राष्ट्रीय संग्रहालय को तभी 2017 में हमने प्रस्ताव दिया था और भारत भवन को एकाधिक बार. इसका एक दुराशय यह है कि रज़ा को भारतीय राज्य लौटने नहीं दे रहा है. वे कला जगत, अपने असंख्य प्रेमियों के पास तो लौटे हैं पर लोकतांत्रिक भारत की राज्य-संस्थाओं में नहीं. इस नतीजे से बचना मुश्किल है कि ऐसा इसलिए भी हो रहा है कि वे मुसलमान थे.
पिकासो की कविता
रज़ा की ही तरह पेरिस में दशकों रहने और चित्र बनाने वाले स्पेनिश मूल के कलाकार पाब्लो पिकासो अब भी पेरिस में आकर्षण का केंद्र हैं. उनका अपना एक संग्रहालय भी है और संयोगवश इस समय सेंटर द पाम्पिदू के वर्तमान अध्यक्ष इस पद पर आने के पहले पिकासो संग्रहालय के निदेशक थे.
पिकासो ने कविताएं भी लिखी थीं यह तो मालूम था पर यह नहीं, कम से कम मुझे, कि 54 वर्ष की उमर में 1935 में उन्होंने चित्र बनाना बंद कर दिया था और कुछ समय तक अपने को कविता लिखने पर एकाग्र किया था. उन्होंने जब फिर से चित्र बनाना शुरू किया तब भी वे कविता लिखते रहे, 1959 तक, जिन्हें फ्रेंच कवि और अतियथार्थवाद के संस्थापक आन्द्रे ब्रेतां ने ‘ऐसा आत्मीय जर्नल’ बताया ‘भावनाओं और इंद्रिय बोध का जैसा पहले कभी नहीं रखा गया’.
अपनी कविता को पिकासो स्वयं इतना महत्व देते थे कि उन्होंने अपने अंतिम दिनों में एक मित्र से कहा था कि ‘उनकी मृत्यु के बरसों बाद उनके लेखन को मान्यता मिलेगी और विश्वकोष कहेगा ‘पाब्लो पिकासो, स्पेनिश कवि जो चित्र, रेखांकन और शिल्प बनाने में भी दिलचस्पी लेते थे.’
पिकासो की कविताओं का अंग्रेज़ी अनुवाद में एक संग्रह ‘द बरियल ऑफ द काउंट ऑफ ओरगाज़ एंड अदर पोएम्स’ शीर्षक से शेक्सपीयर एंड कंपनी से मिल गया. अनुवाद और संपादन किया है जेरोम रोथनबर्ग ने, प्रकाशक हैं एग्ज़ेक्ट चेंज कैम्ब्रिज. कुछ कविताएं या कविताओं के अंश हिन्दी अनुवाद में देखिए:
प्यारी अंदालूसियन सड़क तुम क्यों
उन्हें नहीं देखने देतीं कि तुम मुझे पछियाती हो
और तुम कैसे नन्हीं कुटकियों के पीछे छुप जाती हो
….
मैं एक और तीर चित्रित नहीं करूंगा
पानी की बूंद में हम देखते हैं
सुबह कांपते हुए
जैसे नियत प्रहर सिसकारता है
हवा में जो लय से साफ़ कर दी जाती है
हंसती हुई
….
बूंद
दर बूंद
सख़्त
पियराया नीला
हरे बादाम के पंजों के बीच
गुलाबी जाफ़री
….
बिजली अलसाकर सो जाती है बड़ी घंटियों के नीचे
जो अपनी पूरी शक्ति से बज रही हैं
….
लहसुन हंसता है मरी हुई पत्ती की तरह के अपने रंग पर
हंसता है गुलाब पर वह खंजर जो अपना रंग घोंपता है
मरी हुई पत्ती की तरह लहसुन के अंदर
हंसता है दुष्टता से गुलाबों के खंजर पर एक गिरती हुई
मरी पत्ती की गंध
लहसुन पंखों पर
जैसे कि सारा संसार
जब भी पेरिस आता हूं इस एहसास से भर जाता हूं कि यह वह शहर है जहां साहित्य, कला, रंगमंच, संगीत, विचार, दर्शन, राजनीति आदि अनेक मानवीय सृजन के क्षेत्रों में इतना महान लगातार संभव हुआ. इस शहर की सड़कों और गलियों में से कई के नाम, मेट्रो स्टेशनों और चौराहों के नाम महान कलाकारों-चिंतकों पर हैं.
रज़ा स्वयं जहां रहते थे, कई दशक, वह मकान बूलेवार वाल्तेयर के नजदीक था. पिकासो, मातीस, पाल गोगां, वानगॉग, निकोला स्ताल, ब्रॉक, ज़्यां मीरो, सेज़ान-अकेले महान कलाकारों की सूची बहुत लंबी है. विक्टर ह्यूगो, स्टेंथाल, एमिल ज़ोला, आंद्रे ज़ीद, रिम्वो, बादेलेयर, प्रूस्त, माग्रेट द्यूरास, ईव बोनफुआ, सेमुएल बेकेट, जेम्स ज्वायस, अर्नेस्ट हेमिंग्वे, सैं जां पर्स, चेश्वाव मिवोष, आयनेस्को, पीटर बुक, ज़्यां पाल सार्त्र, आलबेयर कामू, जॉक देरिदा, मिशेल फूको, पॉल एलुआर, लुई अरागॉ, लेनिन, ट्राटस्की, आक्तावियो पाज़, जान बर्जर, मिलान कुंदेरा, आदोनिस आदि. अभी पचास नाम और ज़हन में मंडरा रहे हैं. ब्रेसां, गोदार. क्या संसार में कोई और शहर ऐसा है जिसमें इतनी विपुल महानता संभव हुई?
कई बार लगता है कि जैसे पेरिस में सारा संसार ही है अपने बहुल रंगों, अपनी चमकती छवियों, अपनी सारी विडंबनाओं में उजला, उदग्र और अदम्य. महानता को इतने पास से देख-छू-महसूस कर पाना शायद ही कहीं और संभव है.
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)