भाजपा सरकार और हिंसक समूह अब अलग नहीं हैं. मोनू मानेसर ही सरकार है. यह ज़रूर है कि आरएसएस इस हिंसा को हर जगह संचालित नहीं करता, न ही भाजपा करती है. नरसिंहानंद हो या प्रमोद मुतालिक, उनके नियंत्रण से बाहर हैं. लेकिन उनकी हिंसा हमेशा आरएसएस और भाजपा को फ़ायदा पहुंचाती है.
मानेसर की पंचायत ने राजस्थान पुलिस को धमकी दी है कि अगर उसने मोनू मानेसर को गिरफ़्तार करने की कोशिश की तो उसके लोगों की टांगें तोड़ दी जाएंगी. हिंसा का इरादा हिंसा नहीं है, उसमें भी जब वह किसी शर्त के साथ हो, यानी ऐसा किया गया तो हम ऐसा करेंगे, शायद इस तर्क के सहारे इस धमकी पर हरियाणा की पुलिस ने कोई मुक़दमा दर्ज नहीं किया है.
वैसे भी धमकी राजस्थान पुलिस को दी गई है. हरियाणा पुलिस को उससे क्यों चिंतित होना चाहिए?
इसी पंचायत में यह भी कहा गया कि गाय की रक्षा करते हुए अपनी जान देनी पड़े या सामने वाले की जान लेनी पड़े, हम पीछे नहीं हटेंगे. यह हत्या के इरादे का साफ़ ऐलान है. लेकिन अगर वह गाय की रक्षा जैसे पवित्र कर्तव्य के निर्वाह के सिलसिले में हो तो उसे अपराध कैसे कहा जा सकता है? ‘गोरक्षकों’ को सुरक्षा मिलनी चाहिए, यह मांग की गई.
सभा के साथ-साथ जगह जगह सड़क जाम की गई. शाहीन बाग़ या जाफ़राबाद की औरतों का सड़क जाम भले ही राष्ट्रविरोधी और दहशतगर्द कार्रवाई हो, हरियाणा में मुसलमानों के क़त्ल के मुलज़िमों के पक्ष में सड़क जाम लोगों की भावनाओं की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है! इसलिए इसका आह्वान करने वालों और इसमें भाग लेने वालों पर कोई मुक़दमा दर्ज करने की बात ही कैसे की जा सकती है?
राजस्थान के मुख्यमंत्री आख़िरकार नासिर और जुनैद के गांव वालों से मिले और उन्हें यक़ीन दिलाया कि उनके क़ातिलों को जल्द ही पकड़ा जाएगा. इसके पहले भी उन्होंने बयान जारी किया था कि उनकी हरियाणा के मुख्यमंत्री से बात हुई है और दोनों राज्य मिलकर अपराधियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करेंगे. मारे जाने वाले राजस्थान के हैं और हत्या के अभियुक्त हरियाणा के. लेकिन घटना के कई दिन बाद हरियाणा के मुख्यमंत्री का तकनीकी बयान आया कि किसी को कानून अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए. यदि यह उनका संकल्प होता तो अब तक गिरफ़्तारी हो चुकी होती क्योंकि एक तरह से अभियुक्त पुलिस के मित्र और सहयोगी हैं.
इस बीच न ही हरियाणा पुलिस का कोई बयान राजस्थान के मुख्यमंत्री के संकल्प के साथ आया है. हां! अभियुक्तों की तलाश करने गई राजस्थान पुलिस की टुकड़ी पर हरियाणा पुलिस ने मामला ज़रूर दर्ज कर दिया है.
हमें याद है कि उत्तर प्रदेश में इन्हीं ‘गोरक्षकों’ को क़ाबू करने की हिमाक़त कारण पुलिस अधिकारी सुबोध कुमार सिंह की हत्या कर दी गई थी. इस हत्या से पुलिस को भी चेतावनी मिल गई है और वह अपने काम को पहचान गई है.
हत्या के अभियुक्तों के पक्ष में सभा या जुलूस का यह पहला मामला नहीं है. जब हिंसा के शिकार मुसलमान हों और अभियुक्त हिंदू या आप कह लें, हिंदुत्ववादी, तो देखा गया है कि अभियुक्तों के पक्ष में जनभावनाओं को उत्तेजित किया जाता है, उनकी गोलबंदी की जाती है. सभा, जुलूस, धरना… यह सब कुछ आयोजित तो किया ही जाता है, अभियुक्तों का अभिनंदन भी किया जाता है.
कहने की ज़रूरत नहीं कि हिंसा के पक्ष में इस गोलबंदी में बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद, भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता और नेता शामिल रहते हैं.
मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा के तथ्य को छिपाना तो मुश्किल है. लेकिन किसने वह हिंसा की, यह पता करना कठिन और कई बार असंभव बना दिया जाता है. अगर हिंसा किसी ने की नहीं तो फिर वह रही कहां?
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद सड़क पर सरेआम मुसलमानों के ख़िलाफ़ संगठित हिंसा और उनकी हत्या की शुरुआत पुणे में मोहसिन शेख़ के क़त्ल से हुई थी. उनकी हत्या के अभियुक्त अब आरोपों से बरी कर दिए गए हैं. उनका विजय जुलूस निकाला गया.फिर वह हत्या थी या नहीं? मोहसिन की हत्या किसने की? राज्य की पुलिस, शासन को यह जानने में कोई दिलचस्पी नहीं है.
मोहसिन की हत्या के अभियुक्तों का जुलूस सबने देखा. जैसे झारखंड में कलीमुद्दीन अंसारी की हत्या के अभियुक्तों को माला पहनाते हुए भारतीय जनता पार्टी के नेता और तब संघीय सरकार के मंत्री जयंत सिन्हा की तस्वीरें सबने देखीं. कठुआ में 8 साल की मुसलमान बच्ची के बलात्कार और हत्या के बाद पुलिस कार्रवाई के ख़िलाफ़ प्रदर्शनों की याद सबको है. ऐसी मिसालें अब इतनी अधिक हैं कि उन सबके ब्योरे देने में ख़ुद शर्म आती है.
नासिर और जुनैद के क़त्ल के बाद मेरे एक नौजवान मुसलमान मित्र ने पूछा कि हिंसा का यह तंत्र तो अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के क़ाबू में नहीं रह गया है. मोनू मानेसर जैसे अपराधियों के गिरोह अब पूरे देश में सक्रिय हैं. इन हिंसक गिरोहों से संघ और संघ की सरकार का टकराव होगा अगर इन्हें नियंत्रित करने की कोशिश की गई. फिर?
इस सवाल के पीछे यह समझ है कि मुसलमान विरोधी हिंसा को रोकने या उसके अभियुक्तों को शास्ति देने में इस सरकार की या संघ की कोई रुचि है. यह भी कहा जाता रहा था कि शासन से बाहर रहने पर संघ और उसके दल मुसलमान या ईसाई विरोधी हिंसा भले ही भड़काएं, एक बार सरकार में आने पर उनमें ज़िम्मेदारी आ जाएगी और हिंसा में कमी आएगी. यह बात ग़लत निकली.
गुजरात हो या कर्नाटक, हरियाणा हो या महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश हो या असम, देखा गया कि शासन में आने के बाद भाजपा के नेताओं ने मुसलमान विरोधी घृणा को और भड़काया. हिंसा के रूप बदल गए और वह अब एक घटना न होकर रोज़ाना की धारावाहिक हिंसा में तब्दील हो गई. बल्कि हिंसा का विकेंद्रीकरण हो गया और छोटे, बड़े गिरोह जगह-जगह पैदा हुए जिन्हें हिंसा का अधिकार मिल गया.
लेकिन इस सवाल पर हम बात करें, उसके पहले समझना आवश्यक है कि मुसलमान विरोधी हिंसा के तथ्य को तथ्य ही न रहने देने के तरीक़े विकसित किए गए हैं. गुजरात में 2002 में जब पूरी दुनिया मुसलमान विरोधी हिंसा की व्यापकता को समझने की कोशिश कर रही थी, तत्कालीन मुख्यमंत्री गुजरात गौरव यात्रा करके अपनी जनता को कह रहे थे कि मुसलमानों की हत्या, मुसलमान औरतों के बलात्कार आदि की बात करके गुजरात के दुश्मन राज्य को बदनाम कर रहे हैं.
उन्होंने इस प्रकार हिंसा के तथ्य से ही इनकार किया. बाद में इसे और विकसित किया गया. अब हिंसा ‘गो तस्करों’ के ख़िलाफ़ होती है, ‘अपराधियों’, अतिक्रमणकारियों’, ‘घुसपैठियों’, ‘लव जिहादियों’ के ख़िलाफ़ होती है. उसे क्या मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा कहना उचित होगा? यह क़तई इत्तेफ़ाक़ है कि इन सबके नाम पर की गई हिंसा के शिकार मुसलमान होते हैं.
असम में मुसलमानों को हज़ारों की तादाद में उजाड़ा जा रहा है, लेकिन सरकार उन्हें अतिक्रमणकारी कह रही है. अभी हज़ारों की तादाद में मुसलमान गिरफ़्तार किए जा रहे हैं लेकिन वह तो बाल विवाह रोकने का अभियान है. संयोग ही है कि कम उम्र शादी करने वालों में मुसलमानों की संख्या ज़्यादा है, तो बेचारी सरकार क्या करे? क्या इसे मुसलमान विरोधी हिंसा कहना उचित होगा?
मुसलमान विरोधी हिंसा की कोई अलग श्रेणी बनाना असंभव है क्योंकि अब उसे अलग-अलग क़ानूनों के ज़रिये अदृश्य कर दिया गया है. गाय की रक्षा, गोमांस खाने की वर्जना, हिंदू औरत से शादी करने की मनाही, नागरिकता के प्रमाण पत्र की अनिवार्यता, संवेदनशील इलाक़े में मकान, ज़मीन की ख़रीद बिक्री पर नियंत्रण, बाल विवाह पर पाबंदी, तीन तलाक़, इनसे जुड़े क़ानूनों में कहीं तो यह नहीं कहा गया कि ये मुसलमानों के ख़िलाफ़ हैं! यह अलग बात है कि इन क़ानूनों के कारण मुसलमानों के जीवन का ही अपराधीकरण होता है.
इन क़ानूनों को लागू करने में सरकार जनता का सहयोग ले सकती है. हरियाणा में ‘गो रक्षक’ पुलिस के मुखबिर हैं, उसके सहयोगी हैं. हरियाणा के अलावा कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात और झारखंड में गाय की रक्षा के नाम पर बने क़ानूनों में यह प्रावधान है कि अगर कोई नागरिक अच्छी नीयत से इस क़ानून को लागू करने में कुछ करे तो उसके ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं की जाएगी.
मोनू मानेसर या उसके गिरोह के गुंडों की मंशा तो भली ही थी: वे गो तस्करी रोकना चाहते थे. इस क्रम में अगर कुछ हो गया तो उसे अपराध कैसे कहा जा सकता है? आख़िर उनका रिकॉर्ड गोरक्षा क़ानून के पालन में पुलिस की मदद का रहा है.
इस तरह मुसलमानों के ख़िलाफ़ अपराध अब क़ानून के कारण ही अपराध नहीं रह जाता. हिंसा भी हिंसा नहीं रह जाती. हिंसा के शिकार के लिए लेकिन वह हिंसा है. हिंसा को क़ानूनी तरीक़े से सम्मान देने के साथ उसे राजनीतिक रूप से आवश्यक भी बना दिया गया है.
यह अब अदालतें भी कह रही हैं कि अपने लोगों को गोलबंद करने, उनमें जोश भरने के लिए अगर नेता कुछ कहते हैं, जैसे ग़द्दारों को गोली मारने की बात, या राष्ट्र विरोधियों को कपड़ों से पहचानने की बात, या टीपू के मानने वालों की सफ़ाई की बात, तो उसे भी अपराध नहीं माना जाएगा. ख़ासकर अगर आप यह सब कुछ मुस्कुरा कर कह रहे हों.
हम यह देखते आए हैं कि चुनाव के समय प्रधानमंत्री या गृह मंत्री या अन्य नेता जब हिंसक बयान देते हैं तो मीडिया भी उसे एक तरह से वाजिब ही मानता है. अगर उनके मतदाता इसी तरह उनकी तरफ़ आते हैं तो उनके इन बयानों को अपराध नहीं माना जा सकता.
इस तरह समाज में घृणा और हिंसा की स्वीकार्यता बढ़ती जाती है. हिंसक समूहों की संख्या भी उसी अनुपात में बढ़ती है. शिष्ट समाज शिष्टता के मारे घृणा और हिंसा का विरोध नहीं करता. गुंडे से डरना एक बात है, उसका लिहाज़ करना, उसकी भावना का आदर करना दूसरी बात. हम अब दूसरी श्रेणी में है जहां हम गुंडों का लिहाज़ करते हैं, उनकी भावनाओं का ख़याल रखते हैं.
अपने मित्र की उस चिंता पर लौटूं जिन्होंने कहा कि हिंसा पर राज्य या आरएसएस का नियंत्रण न रहना क्या उनके लिए भी चिंता की बात होनी चाहिए! राज्य और हिंसक समूह अब अलग नहीं हैं. मोनू मानेसर ही राज्य है. यह ज़रूर है कि संघ इस हिंसा को हर जगह संचालित नहीं करता. न ही भाजपा यह करती है. नरसिंहानंद हो या प्रमोद मुतालिक़, उनके नियंत्रण से बाहर हैं. लेकिन उनकी हिंसा हमेशा संघ और भाजपा को फ़ायदा पहुंचाती है.
हिंसक गिरोह इसके लिए बाध्य हैं कि भाजपा को सत्ता में रखने के लिए काम करें. उसी के राज में उन्हें संरक्षण का आश्वासन है. संघ को और भाजपा को दोहरा फ़ायदा है. उनके हाथ में खून नहीं लगता और उनका आधार बढ़ता जाता है. उस आधार पर सभ्य, सुसंस्कृत समाज और मोनू मानेसर, नरसिंहानंद साथ-साथ रहते हैं. दोनों ही संघ की शाखा भाजपा के मतदाता हैं.
क्या सामान्य हिंदू जनता यह कह सकती है कि वह इस हिंसा में शरीक नहीं या उसे शह नहीं दे रही? लगभग सारे हिंदू त्योहारों में अब मुसलमान विरोधी गाने बजते हैं. राम नवमी हो या दशहरा, जुलूस में तलवार, बंदूक़ लेकर गाली-गलौज करते हुए मुसलमान मोहल्लों में घुसने की जिद अब हिंदू त्योहारों में आम है.
अगर मोनू मानेसर अपनी हिंसा के कारनामों को फ़ेसबुक पर सीधा प्रसारित करता है या यूृट्यूब पर उन्हें लाखों लोग देखते हैं और उससे उसकी कमाई भी होती है तो हिंसा के ग्राहक कौन हैं? हम और आप? हम इस हिंसा को आर्थिक सहारा देते हैं.
मुसलमान विरोधी घृणा और हिंसा के उपभोक्ता और ग्राहकों की संख्या बढ़ती जा रही है. इससे एक प्रकार का पोर्नोग्राफ़िक मज़ा लेने वाले उसके लिए पैसा देने को तैयार हैं. जब राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक और आर्थिक रूप से मुसलमान विरोधी घृणा और हिंसा लाभदायक सिद्ध ही रही है तो उसे कैसे रोका जा सकता है? कौन उसे रोकेगा?
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)