स्मृति शेष: बीते 22 फरवरी को प्रसिद्ध कवि, अनुवादक और संपादक सुरेश सलिल का निधन हो गया. विश्व साहित्य के हिंदी अनुवाद के साथ-साथ उन्होंने गणेश शंकर विद्यार्थी की रचनावली के संपादन का महत्वपूर्ण काम किया था.
प्रसिद्ध कवि, अनुवादक और संपादक सुरेश सलिल का 22 फरवरी 2023 को निधन हो गया. ‘युवकधारा’ जैसी पत्रिका के संपादक रहे सुरेश सलिल ने गणेश शंकर विद्यार्थी की रचनावली के संपादन और विश्व साहित्य के हिंदी अनुवाद का काम प्रमुखता से किया.
हिंदी की साठोत्तरी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर रहे सुरेश सलिल ने ग़ज़लें भी लिखीं. ‘खुले में खड़े होकर’ उनका पहला कविता संग्रह और ‘मेरा ठिकाना क्या पूछो हो’ उनकी ग़ज़लों का संग्रह है.
साहित्य में रमा जीवन
वर्ष 1942 में उन्नाव में जन्मे सुरेश सलिल को साहित्यिक अभिरुचि घर में अपने पिता से मिली. उनका परिवार चिकित्सकों का परिवार था. उनके दादा, परदादा और पिता आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में दक्ष चिकित्सक थे. बचपन में घर पर ही सुरेश सलिल ने ‘भारतीय समाचार’ और ‘प्रताप’ सरीखे पत्र पढ़े. ‘प्रताप’ पढ़ने के दौरान वे गणेश शंकर विद्यार्थी के नाम से परिचित हुए, जिनकी रचनावली संपादित करने का भगीरथ काम उन्होंने आगे चलकर किया.
गांव में रहते हुए ही उन्होंने गया प्रसाद शुक्ल ‘सनेही’, जगदंबा प्रसाद ‘हितैषी’, मैथिलीशरण गुप्त, हरिवंशराय बच्चन और बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ जैसे कवियों को पढ़ा. इस तरह बचपन में ही साहित्य और विशेष रूप से कविता के प्रति उनके मन में गहरा लगाव पैदा हुआ. उनकी पहली कविता 1956 में बालगंगाधर त्रिपाठी द्वारा संपादित पत्रिका ‘जागृति’ में छपी.
‘जागृति’ के बाद उनकी एक कविता ‘प्रताप’ में भी छपी. उन्नाव में पढ़ाई करते हुए वे उन्नाव कांग्रेस के नेता विश्वम्भर दयाल त्रिपाठी के संपर्क में रहे, जो बालगंगाधर त्रिपाठी के अग्रज थे.
पचास के दशक के अंत में जब सुरेश सलिल उन्नाव से कानपुर आए, तो उनकी साहित्यिक समझ का दायरा और विस्तृत हुआ. जहां एक ओर वे नारायण प्रसाद अरोड़ा और क्रांतिकारी सुरेश चंद्र भट्टाचार्य, रामदुलारे त्रिवेदी, राजकुमार सिन्हा जैसे लोगों के निकट संपर्क में आए. वहीं वे गणेश शंकर विद्यार्थी के छोटे बेटे ओंकार शंकर विद्यार्थी के भी आत्मीय बने, जो तब डीएवी कॉलेज में प्राध्यापक थे. कानपुर में ही वे असित रंजन चक्रवर्ती से जुड़े, जिन्होंने उन्हें गणेश शंकर विद्यार्थी पर काम करने की प्रेरणा दी.
साठ के दशक के आख़िर में शुरू हुए नक्सलबाड़ी आंदोलन से भी वे गहरे प्रभावित हुए. इसी दौरान मंगलेश डबराल, त्रिनेत्र जोशी आदि के साथ उन्होंने हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ (एचएसआरए) के दस्तावेज़ों का संपादन किया, जो पुस्तक रूप में ‘मुक्ति’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ.
कानपुर में यूनिवर्सल बुक स्टॉल पर काम करते हुए सुरेश सलिल का गहरा परिचय दुनिया भर के साहित्यकारों से हुआ. आगे चलकर जहां आनंद स्वरूप वर्मा से अपनी प्रगाढ़ मित्रता की वजह से वे अफ्रीकी साहित्यकारों से रूबरू हुए. वहीं असित रंजन चक्रवर्ती ने उनका परिचय बांग्ला कवियों से कराया.
गणेश शंकर विद्यार्थी रचनावली का संपादन
कुछ किताबें बरसों के इंतज़ार और मेहनत के बाद प्रकाशित होती हैं, पाठकों के हाथ में पहुंचती हैं. मगर ‘गणेश शंकर विद्यार्थी रचनावली’ के लिए तो सुरेश सलिल ने अपने जीवन का लगभग तीन दशक खपाया था. सत्तर के दशक में सुरेश सलिल ने बच्चों के लिए गणेश शंकर विद्यार्थी के जीवन पर आधारित एक पुस्तक लिखी, जो राजपाल प्रकाशन से छपी.
इसके लिए उन्हें शिवव्रत नारायण के लेख ‘हुतात्मा गणेश शंकर विद्यार्थी’ से प्रेरणा मिली थी. उल्लेखनीय है कि सुरेश सलिल की इस पुस्तक की भूमिका स्वयं गणेश शंकर विद्यार्थी के बेटे ओंकार शंकर विद्यार्थी ने लिखी थी.
सुरेश सलिल की उक्त पुस्तक पढ़कर ‘विशाल भारत’ के यशस्वी संपादक बनारसी दास चतुर्वेदी ने उनकी सराहना करते हुए उन्हें पत्र लिखा. प्रासंगिक है कि बनारसी दास चतुर्वेदी ने स्वयं राम प्रसाद बिस्मिल जैसे क्रांतिकारियों की आत्मकथाओं का संपादन किया था और क्रांतिकारियों के दस्तावेज़ों को सहेजने में उनकी बड़ी भूमिका रही थी.
ओंकार शंकर विद्यार्थी के निधन के बाद विद्यार्थी जी की रचनाओं को हासिल करना सुरेश सलिल के लिए टेढ़ी खीर होता चला गया. मगर आर्थिक संसाधन के अभाव और उपेक्षा की मार के बावजूद, अनगिनत ठोकरें खाकर भी जिस लगन और प्रतिबद्धता के साथ सुरेश सलिल ने विद्यार्थी जी की रचनाओं को बरसों की मेहनत से इकट्ठा किया, उन्हें संपादित किया, वह एक मिसाल है. नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय (नई दिल्ली), हिंदी साहित्य सम्मेलन (इलाहाबाद) और ख़ुदा बख़्श ओरिएंटल लाइब्रेरी (पटना) से उन्होंने ‘प्रताप’ की फ़ाइलों से सामग्री जुटाई.
चूंकि तब लाइब्रेरियों में फोटोकॉपी जैसी सुविधाएं थीं नहीं, इसलिए ‘प्रताप’ की फ़ाइलों के हज़ारों पन्ने उन्होंने अपने हाथों से नक़ल किए. इस क्रम में उनके जो अनुभव हुए, वे ख़ुद एक मुकम्मल किताब का विषय हो सकते हैं. ‘किताबी दुनिया’ को दिए गए एक साक्षात्कार में अपने इन अनुभवों को उन्होंने साझा भी किया है. जिसमें वे बताते हैं कि कैसे विद्यार्थी जी की बेटी विमला विद्यार्थी के साथ जाकर उन्होंने कानपुर के एक कबाड़ी वाले से विद्यार्थी जी की जेल डायरी हासिल की.
आख़िरकार तीन दशकों की मेहनत के बाद गणेश शंकर विद्यार्थी रचनावली अनामिका प्रकाशन से छपी. इतना सब कुछ करने के बावजूद सुरेश सलिल को इस बात का मलाल था कि वे विक्टर ह्यूगो की कृति ‘ला मिज़रेबल’ के विद्यार्थी जी द्वारा किए गए हिंदी अनुवाद और उनकी कुछ अन्य कृतियां जैसे ‘जर्मन जासूस की रामकहानी’ और ‘शेख़ चिल्ली की कहानियां’ को नहीं ढूंढ सके. इसके साथ ही सुरेश सलिल ने क्रांतिकारी शिव कुमार मिश्र की आत्मकथा ‘काकोरी से नक्सलबाड़ी’ का भी संपादन किया.
ग़ज़ल का कारवां और कविता की सदी
सुरेश सलिल एक बेहतरीन कवि और अनुवादक थे. उन्होंने ग़ज़लें और नज़्में लिखीं. उन्होंने विश्व साहित्य से कविता-कहानियों के हिंदी अनुवाद किए. जिसमें बर्टोल्त ब्रेख़्त, पाब्लो नेरूदा, नाज़िम हिकमत, मिरोस्लाव होलुब, माग्नुस एंत्सेंबर्गर जैसे कवियों की रचनाएं भी शामिल थीं.
विश्व कविताओं के उनके हिंदी अनुवाद पहले-पहल ‘जनयुग’ और ‘मुक्तिधारा’ जैसे पत्रों में छपे. उन्होंने हाइकू का पुनर्संस्कार करने वाले जापान के महाकवि मात्सुओ बाशो के यात्रावृत्त का भी अनुवाद किया, जो ‘उत्तर की यात्राएं’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ.
पिछले आठ सौ बरसों में लिखी गई ग़ज़लों का एक प्रतिनिधि संग्रह उन्होंने ‘कारवाने ग़ज़ल’ शीर्षक से तैयार किया. इस संग्रह में अमीर खुसरो से लेकर परवीन शाकिर तक 173 चुनिंदा शायरों की ग़ज़लें शामिल हैं. साथ ही, उन्होंने ‘कविता सदी’ शीर्षक से आधुनिक हिंदी कविता का संचयन तैयार किया, जिसमें भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर समकालीन हिंदी कवियों की रचनाएं शामिल हैं. उन्होंने मीराजी की शायरी और गोपाल सिंह ‘नेपाली’ व बलवीर सिंह ‘रंग’ की कविताओं का प्रतिनिधि संकलन भी तैयार किया.
आख़िर में सुरेश जी की ये पंक्तियां उन्हीं की स्मृति में:
उभर-उभरकर आ रहे हैं
मन में अनगिन चित्र
बतलाना मुश्किल बहुत
कैसे हैं वे, मित्र!
हुए स्वप्नवत् आजकल
वे सब के सब चित्र
नदी भूमिगत हो गई
स्मृति बची है, मित्र!
(लेखक बलिया के सतीश चंद्र कॉलेज में शिक्षक हैं.)