अमेरिका में भेदभाव विरोधी क़ानून में जाति को जोड़ने पर सिर्फ़ हिंदू ख़फ़ा क्यों हैं?

भले ही शास्त्रीय मान्यता न हो, व्यवहार में जातिगत भेद भारत के हर धार्मिक समुदाय की सच्चाई है. अमेरिका जाने वाले सिर्फ़ हिंदू नहीं, अन्य धर्मों के लोग भी हैं. अमेरिका के सिएटल में लागू जातिगत भेदभाव संबंधी क़ानून सब पर लागू होगा, सिर्फ़ हिंदुओं पर नहीं. फिर हिंदू ही क्यों क्षुब्ध हैं?

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

भले ही शास्त्रीय मान्यता न हो, व्यवहार में जातिगत भेद भारत के हर धार्मिक समुदाय की सच्चाई है. अमेरिका जाने वाले सिर्फ़ हिंदू नहीं, अन्य धर्मों के लोग भी हैं. अमेरिका के सिएटल में लागू जातिगत भेदभाव संबंधी क़ानून सब पर लागू होगा, सिर्फ़ हिंदुओं पर नहीं. फिर हिंदू ही क्यों क्षुब्ध हैं?

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

भारत से दूर अमेरिका के सिएटल में भेदभाव विरोधी क़ानून में जातिगत भेदभाव को जोड़ा गया है. अमेरिका के कई हिंदू संगठन इसका विरोध कर रहे हैं. उनका कहना है कि भेदभाव के आधार के तौर पर जाति को चिह्नित के पीछे हिंदुओं के ख़िलाफ़ पूर्वाग्रह है और यह हिंदू विरोधी कदम है. जिस क़ानून का वे विरोध कर रहे हैं, उसमें कहीं नहीं लिखा है कि यह सिर्फ़ हिंदू धर्मावलंबियों पर लागू होता है.

अमेरिका में जाति को एक दक्षिण एशियायी आयात के रूप में देखा और वर्णित किया जाता रहा है. फिर दक्षिण एशिया के सारे समूहों को इसका विरोध करना चाहिए था. सिर्फ़ हिंदू संगठन ही इसके ख़िलाफ़ क्यों हैं, यह सवाल अमेरिकियों के मन में ज़रूर उठता होगा.

जाति भारत के तक़रीबन हर धर्म में है. लेकिन हिंदू मत या धर्म को छोड़कर किसी दूसरे धर्म में इसकी मान्यता शास्त्रीय व्यवस्था के रूप में नहीं है. किसी दूसरे धर्म में मनुस्मृति जैसा कोई ग्रंथ नहीं. और किसी धर्म को मानने वाले ‘रामचरितमानस’ जैसा ग्रंथ पूज्य नहीं मानते जो विप्रों और शूद्रों के लिए नितांत भिन्न बल्कि विपरीत विधान करता है.

शूद्र कुछ भी कर ले आदरणीय नहीं हो सकता और नितांत गुणविहीन होने पर भी ब्राह्मण पूज्य रहेगा, यह स्पष्ट भेदभाव किसी और धार्मिक व्यवस्था में नहीं है. इसके बावजूद यह भी सच है कि प्रायः हर धर्म में जाति पाई जाती है. सबसे नए सिख धर्म में भी. गांवों में आपको दलित सिखों के गुरुद्वारे भी अलग-अलग मिलेंगे.

भले ही शास्त्रीय मान्यता न हो, व्यवहार में जातिगत भेद भारत के हर धार्मिक समुदाय की सच्चाई है. अमेरिका जाने वाले सिर्फ़ हिंदू नहीं, अन्य धर्मों के लोग भी हैं. जातिगत भेदभाव संबंधी क़ानून सब पर ही लागू होगा, सिर्फ़ हिंदुओं पर नहीं. फिर हिंदू ही क्यों क्षुब्ध हैं?

हिंदू इस क़ानून के विरोध में हैं, ऐसा कहने से बेहतर यह कहना होगा कि इसके विरोध में हिंदुत्ववादी विचारधारा को मानने वाले कह रहे हैं कि इस क़ानून के पीछे हिंदू विरोधी विद्वेष है और यह उस विद्वेष को और बढ़ावा देगा.

पिछले कुछ समय से हिंदुत्ववादी हिंदुओं को समझाना चाहते हैं कि पूरी दुनिया में हिंदू विरोधी विद्वेष बढ़ रहा है, अमेरिका में ख़ासकर. यहूदी विरोधी द्वेष और इस्लाम विरोधी द्वेष की तर्ज़ पर उन्होंने हिंदू विरोधी द्वेष की कल्पना की है ताकि हिंदुओं में यह कुंठा भरी जा सके कि हर जगह दूसरे धर्मों के लोग उनके पीछे पड़े हैं और उन्हें उनके ख़िलाफ़ ख़ुद को संगठित करना चाहिए.

प्रत्येक समुदाय में, वह धार्मिक हो या भाषिक या कोई और, दूसरे समुदायों के प्रति कुछ न कुछ पूर्वाग्रह होता है. वह विद्वेष का रूप ले सकता है और वह हिंसा को जन्म दे सकता है. इसी वजह से यह ज़रूरी माना जाता है कि पीढ़ी दर पीढ़ी जो पूर्वाग्रह दूसरों के बारे में हमारे मन में बने हुए हैं, उनका मुक़ाबला किया जाए.

लेकिन अगर अमेरिका की बात करें तो हिंदू विरोधी विद्वेष के कारण उनके ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा के बारे में सच्ची स्थिति क्या है?

अमेरिका की सर्वोच्च जांच एजेंसी- फेडरल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन (एफबीआई) ने 2021 के अपराधों, हिंसा के जो आंकड़े जारी किए हैं, उनके मुताबिक़, अमेरिका में अभी भी रंग, नस्ल के आधार पर होने वाली हिंसा के निशाने पर सबसे ऊपर (63.2% वारदातें) काले और अमेरिकी अफ़्रीकी हैं.

एशियाई लोगों के ख़िलाफ़ 4.3% वारदातें नोट की गईं. लेकिन धार्मिक पूर्वाग्रह के कारण होने वाली हिंसा के शिकार सबसे अधिक यहूदी हैं(31.9%),जबकि मुसलमान विरोधी हिंसा की घटनाओं का हिस्सा 9.5% है. सिख विरोधी हिंसा 21.3% और कैथोलिक मत मानने वालों  ख़िलाफ़ हिंसा 6.1% है. इनके मुक़ाबले हिंदू विरोधी हिंसा 1% है.

इन आंकड़ों से भी साफ़ होता है कि अमेरिका में हिंदू विरोधी विद्वेष का हव्वा बस एक हव्वा है. इस विद्वेष के कारण अमेरिका में किसी जगह कोई क़ानून हिंदुओं के ख़िलाफ़ बनाया जा रहा हो, यह सोचना हास्यास्पद है. उतना ही हास्यास्पद जितना यह दावा कि अमेरिका में और हिंदुओं में भी जातिगत भेदभाव अब कोई ऐसी समस्या नहीं है कि उसे आधार बनाकर उसके ख़िलाफ़ क़ानून बनाया जाए. क्या यह बात सच है?

आज भी अमेरिका के हिंदू ख़ुद को भारतीय कहलाने  में गर्व का अनुभव करते हैं. भारतीय जीवन पद्धति ही उनकी असली जीवन पद्धति है जिसे वे अमेरिका में जीवित रखना चाहते हैं, ऐसा वे हिंदू संगठन कहते रहे हैं जो सिएटल शहर के इस क़ानून का  विरोध कर रहे हैं. उनके मुताबिक़ भारतीय जीवन पद्धति वास्तव में हिंदू जीवन पद्धति है. भारत में वे मुसलमानों और ईसाइयों पर हमले करते रहते हैं कि वे इस जीवन पद्धति को क्यों नहीं अपनाते.

जिस भारतीय (हिंदू)जीवन पद्धति पर इतना गर्व किया जाता है उसकी बुनियादी सच्चाई आज भी जाति है. उसे बोलने की ज़रूरत भी नहीं पड़ती. सामाजिक आचार-व्यवहार और विचार को जानने के लिए किए गए सर्वेक्षण में प्यू रिसर्च सेंटर ने पाया कि भारतीय लोगों का बहुमत अपने जीवन के महत्त्वपूर्ण निर्णय, कार्यकलाप अपनी जातियों के दायरे में करता है.

कोई चाहे तो कह सकता है कि हर जाति अपने दायरे में रहे, इससे कोई टकराव ही नहीं होगा. लेकिन हम जानते हैं कि मसला प्राकृतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संसाधनों की हिस्सेदारी से जुड़ा हुआ है. और वहां टकराव होता है. जो जातियां पारंपरिक रूप से इन संसाधनों पर क़ाबिज़ हैं, वे इन पर दूसरी जातियों के दावे पर क्रुद्ध हो उठती हैं. अलगाव से और अपनी श्रेष्ठता के विश्वास से अन्यों को दूषण युक्त और हीन मानने की शुरुआत होती है.

भेदभाव की नींव इस सामाजिक विश्वास में है. जैसा हमने पहले ज़िक्र किया, यह भेदभाव प्रायः शास्त्रीय और इसलिए प्रश्नातीत माना जाता है. डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने इसे नए स्वाधीन भारत में ख़त्म करने के लिए बंधुत्व या मैत्री का प्रस्ताव किया. लेकिन हम जानते हैं कि डॉक्टर आंबेडकर और उनके प्रस्ताव को आज भी तथाकथित उच्च जातियों में हिक़ारत से ही देखा जाता है.

क्या अमेरिकी भारतीय या हिंदू अमेरिका जाकर जातिमुक्त ही जाते हैं? एक तर्क यह है कि दो तीन पीढ़ियों तक वहां रह जाने पर संभवतः यह भावना घिस-घिसकर ख़त्म हो जाए. लेकिन यह भी सच है कि अमेरिका में हमेशा एक संख्या पहली पीढ़ी के हिंदुओं की होगी क्योंकि प्रवासी भारतीयों का जाना तो जारी है. वे पढ़ाई, नौकरी , व्यापार आदि के लिए भारत से पहले से कहीं अधिक तादाद में अमेरिका जा रहे हैं. वे अपने साथ अपने सामाजिक आग्रह या संस्कार भी ले ही जाते हैं. इनमें जातिगत संस्कार या आग्रह शामिल है.

जाति अपने आप में कुछ नहीं. वह हमेशा सापेक्ष, तुलनात्मक ही है. अकेले ब्राह्मण के होने का कोई अर्थ नहीं अगर क्षत्रिय या वैश्य या शूद्र न हो. जाति की धारणा में ही अलगाव, शुद्धता, दूषण और भेदभाव है. वह एक ऐसी मर्यादा है जिसका पालन सभी जातियां करती हैं.

हाल में संकर्षण ठाकुर ने मिथिला के अपने गांव का क़िस्सा लिखा. कोरोना संक्रमण के बाद वे अपने गांव पहली बार गए. अपने चाचा की आख़िरी इच्छा पूरी करने के इरादे से. उन्होंने अपनी वसीयत में लिखा कि वे चाहते हैं कि गांव  के हरिजन टोला, खतबे टोला (अति पिछड़ा जाति), कबाड़ी टोला (प्रायः मुसलमान) और ब्राह्मण टोला के परिवार साथ भोजन करें, भले ही अलग-अलग पांत में बैठकर. लेकिन जब संकर्षण ने अपने ग्रामीणों को यह प्रस्ताव दिया तो सबसे उसे वीटो कर दिया. पारंपरिक मर्यादा के भंग होने का सवाल ही न था.

संकर्षण ठाकुर ने लिखा कि उनका गांव अब गांव नहीं रह गया है, नगर पंचायत बन गया है. लेकिन गांव की यह रीति तोड़ी नहीं जा सकती. फर्ज कीजिए ऐसे एक भोज में ब्राह्मण के साथ कोई ख़तबे टोला  बैठ जाए! उसका क्या होगा? शांति तब तक रहती है जब तक यह मर्यादा सब बना कर रखते हैं. इसे परस्परता कहते हैं जो भेदभाव को सहज स्वीकार्य मानती है.

नगरीकरण के कारण कई बार जाति अदृश्य हो जाती है. लेकिन वह छिप नहीं पाती. और तब उसे धारण करने वाले को लाभ या हानि उसकी जाति के हिसाब से होना ही नियम है. क्या यह जाति हम भारतीय अपने साथ ढोकर अमेरिका नहीं ले के गए हैं? इसके बारे में सच वही बोल सकते हैं जिन्होंने इसके कारण भेदभाव झेला है, वे नहीं जो बिना बोले इसका लाभ उठाते रहे हैं.

अमेरिका की ‘इक्वॉलिटी लैब’ नामक संस्था ने अपने सर्वेक्षण में काम की जगह, शिक्षा, रोज़ाना जीवन  में जातिगत भेदभाव के आंकड़े पेश किए हैं. हर 3 में एक दलित छात्र ने इस भेदभाव को शिकायत की. वैसे ही जैसे हर 3 में 2 दलित ने अपने काम की जगह पर भेदभाव महसूस किया. इसका अर्थ है कि जातिगत भेदभाव एक वास्तविक समस्या है जो समानता पर आधारित समाज एक रास्ते में बाधा है. उसे दूर करने में सबका भला है.

दलितों के लिए यह न्याय का मामला है ,वहीं तथाकथित उच्च जातियों के समुदायों के लिए यह उनकी इंसानियत हासिल करने का मामला है यानी अपने भीतर की अमानुषिकता से मुक्त होने का. अगर इसकी पहचान के लिए कोई क़ानूनी व्यवस्था की जाती है तो यह हिंदुओं का भला ही करेगी यानी एक विभेद रहित सौहार्दपूर्ण हिंदू समुदाय के निर्माण का रास्ता हमवार करेगी. इसे हिंदू विरोधी साज़िश क्यों मानना चाहिए?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)