95 प्रतिशत से अधिक भारतीय महिलाएं गर्भपात के नए नियमों से अनजान: अध्ययन

फाउंडेशन फॉर रिप्रोडक्टिव हेल्थ सर्विसेज, इंडिया के अध्ययन में पाया गया कि देश की केवल 68 प्रतिशत महिलाएं गर्भपात को एक महिला के स्वास्थ्य अधिकार के रूप में देखती हैं, वहीं 95.5% महिलाओं को मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट में हुए संशोधन के बारे में जानकारी नहीं है.

/
(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

फाउंडेशन फॉर रिप्रोडक्टिव हेल्थ सर्विसेज, इंडिया के अध्ययन में पाया गया कि देश की केवल 68 प्रतिशत महिलाएं गर्भपात को एक महिला के स्वास्थ्य अधिकार के रूप में देखती हैं, वहीं 95.5% महिलाओं को मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट में हुए संशोधन के बारे में जानकारी नहीं है.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

नई दिल्ली: एक नए अध्ययन के अनुसार, केवल 68 प्रतिशत महिलाएं गर्भपात को एक महिला के स्वास्थ्य अधिकार के रूप में मानती हैं, जिसमें यह भी पाया गया कि 95.5 प्रतिशत महिलाएं मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट में संशोधन से अनजान हैं, जो भ्रूण की पर्याप्त असामान्यताओं के मामलों में गर्भपात की सीमा को 20 सप्ताह से बढ़ाकर 24 कर दिया है.

द हिंदू के मुताबिक, यह अध्ययन फाउंडेशन फॉर रिप्रोडक्टिव हेल्थ सर्विसेज, इंडिया (एफआरएचएस) द्वारा चार राज्यों – दिल्ली, महाराष्ट्र, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में किया गया.

एफआरएचएस, एक गैर सरकारी संगठन जो नैदानिक परिवार नियोजन सेवाएं प्रदान करता है, ने पाया कि अध्ययन के लिए साक्षात्कार लेने वाली हर तीसरी महिला या तो निश्चित नहीं थी या गर्भपात को अपने स्वास्थ्य अधिकारों में से एक नहीं मानती थी.

रिपोर्ट के अनुसार, केवल 40 प्रतिशत को पता था कि भारत में मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी वैध है, जबकि 24 प्रतिशत महिलाओं का मानना है कि एमटीपी ‘कुछ शर्तों के साथ कानूनी’ है.

एक आश्चर्यजनक निष्कर्ष यह रहा कि केवल 4 प्रतिशत महिलाओं को पता था कि एमटीपी अधिनियम, 1971 को डेढ़ साल पहले संशोधित किया गया है, जिसमें पर्याप्त भ्रूण असामान्यताओं के मामले में 24 सप्ताह तक के गर्भपात को वैध बनाया गया है.

एफआरएचएस इंडिया के प्राथमिक शोधकर्ता और निदेशक-कार्यक्रम और भागीदारी, देबंजना चौधरी ने कहा, ‘मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट को डेढ़ साल पहले संशोधित किया गया था, लेकिन गर्भपात चाहने वाले अब भी अधिनियम में लाए गए बदलावों से अनजान हैं. हमने पाया कि राजस्थान में सेवा प्रदाता (डॉक्टर) भी गर्भकालीन आयु में 20 से 24 सप्ताह के बदलाव के बारे में स्पष्ट नहीं थे.’

अध्ययन में यह भी पाया गया कि एमटीपी अधिनियम, 1971 संशोधन से 95 प्रतिशत फ्रंटलाइन हेल्थकेयर प्रदाताओं (एफएलडब्ल्यू) या आशा कार्यकर्ताओं के लिए अनजान हैं जो महिलाओं के लिए संपर्क के शुरुआती बिंदु हैं. यह महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि दो-तिहाई से अधिक विवाहित महिलाएं गर्भावस्था और गर्भपात के लिए सूचना के मुख्य स्रोत के रूप में आशा/आंगनवाड़ी कार्यकर्ता/एएनएम जैसे फ्रंटलाइन स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं (एफएलडब्ल्यू) की तलाश करती हैं.

रिपोर्ट के अनुसार, अविवाहित महिलाओं में 50 प्रतिशत ज्यादातर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर भरोसा करती हैं और लगभग 33 प्रतिशत सूचना के प्रमुख स्रोत के रूप में शिक्षकों पर भरोसा करती हैं.

एफआरएचएस इंडिया के मुख्य कार्यकारी अधिकारी आशुतोष कौशिक ने कहा कि हालांकि एमटीपी अधिनियम संशोधन महिलाओं को अधिक स्वायत्तता की अनुमति देता है, गर्भपात चाहने वालों और स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के बीच जागरूकता की कमी आवश्यक बदलाव लाने में बाधा उत्पन्न कर रही है.

उन्होंने कहा, ‘इसके सफल होने के लिए सरकार को शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में जन जागरूकता गतिविधियों को बढ़ावा देने की आवश्यकता है.’