सुनने में बात बहुत अच्छी लगती है कि होली है तो जो हो गया बिराना उसको फिर अपना कर लो, लेकिन क्या ऐसा करना तब तक संभव है जब तक उन कारणों की पड़ताल न की जाए, जिनके चलते वह बिराना हुआ या कि रह गया.
बुराई आज न ऐसे रहे न वैसे रहे/सफाई दिल में रहे आज चाहे जैसे रहे/ गुबार दिल में किसी के रहे तो कैसे रहे/ अबीर उड़ती है बनकर गुबार होली में/ मिलो गले से गले बार-बार होली में… समझ गए होंगे आप, अपनी आखिरी सांस तक मोहब्बत, भाईचारे और देशप्रेम के प्रति समर्पित रहे शायर मरहूम नजीर बनारसी (25 नवंबर, 1909-23 मार्च, 1996) की पंक्तियां हैं ये.
राष्ट्र की अमानत राष्ट्र के हवाले (दरअसल, यह उनकी एक कृति का नाम है. वैसे ही जैसे: ‘गंगोजमन’, ‘जवाहर से लाल तक’ और ‘गुलामी से आजादी तक’) करते हुए होली की बाबत उन्होंने और भी बहुत कुछ लिखा है.
मसलन: अगर आज भी बोली-ठोली न होगी/तो होली ठिकाने की होली न होगी/बड़ी गालियां देगा फागुन का मौसम/अगर आज ठट्ठा-ठिठोली न होगी/ वो खोलेंगे आवारा मौसम के झोंके/जो खिड़की शराफत ने खोली न होगी/नजीर आज आएंगे मिलने यकीनन/न आए तो आज उनकी होली न होगी.
बताने की जरूरत नहीं कि मणिकर्णिका की जलती चिताओं की भस्म से भी होली खेलने के लिए मशहूर बाबा विश्वनाथ के बनारस में जन्म लेकर उसी धरती पर जीने और उसी में दफ्न हो गए नजीर हमें अपने वक्त की राजनीतिक, सामाजिक व सांस्कृतिक उथल-पुथल के सृजनात्मक दस्तावेजों की जो थाती दे गए हैं, वह अनमोल है.
लेकिन यहां उनकी इन पंक्तियों के बहाने मुझे जो बात कहनी है, उसे कहने से पहले जरूरी है कि आपको इस नजीर के पूर्ववर्ती व नामराशि और ‘नज्म के पिता’ व ‘होली की बहारों के शायर’ कहलाने वाले नजीर अकबराबादी (1735-1830) की कुछ पंक्तियां भी याद दिला दूं: जब फागुन रंग झमकते हों, तब देख बहारें होली की/ और दफ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की/परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की/खूम शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की/महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की!
अब बताने की बात यह है कि जब बचपन से ही होली से जुडे़ तमाम किस्से-कहानियां, पौराणिक कथाएं व किंवदंतियां सुनते-सुनते साठ पार आ पहुंचा हूं और कई भाइयों को इस उम्र तक पहुंचते-पहुंचते ‘अब न रहे वे पीने वाले, अब न रही वह मधुशाला’ में मगन देखता हूं, तो भी मेरी यादें इन दोनों नजीर नामधारी बेनजीर शायरों के बगैर होली नहीं मना पातीं. मना भी भला कैसे पाएं, जब लगातार तंग होता जा रहा जिंदगी का काफिया उसे बारंबार ‘अपनी-अपनी किस्मत है ये कोई हंसे कोई रोए, कोई तो रंग से अंग भिगोए कोई अंसुअन से अंग भिगोए’ जैसी त्रासदी के हवाले करने में कुछ उठा नहीं रख रहा!
एक मित्र से यह बात साझा की तो उन्होंने पलटकर फटकारते हुए से कहा, ‘निराशा कितनी भी घनी क्यों न हों, इतना अतीतजीवी होना कतई ठीक नहीं. फिर यादों की यानी अतीत की होली की ही बात क्यों करते हो, इस काट खाने को दौड़ते वर्तमान की होली में भी हुड़दंग और बहारों के रंग तो ये शायर ही भरते हैं.
यह नजीर बनारसी ही हैं जो बताते हैं कि होली में शिकार भी शिकारी हो गए हैं: हया में डूबने वाले भी आज उभरते हैं/हसीन शोखियां करते हुए गुजरते हैं/जो चोट से कभी बचते थे चोट करते हैं/हिरन भी खेल रहे हैं शिकार होली में! अन्यथा इन हालात में हुड़दंग की उमंग ही पैदा नहीं होती!
बकौल अर्श मलसियानी: इक तरफ राहत का और फरहत का काल/इक तरफ होली में उड़ता है गुलाल/इक तरफ यारों की इशरत-कोशियां/इक तरफ हम और हाल-ए-पुर-मलाल/इक तरफ दौर-ए-शराब-आतिशीं/इक तरफ तलछट का मिलना भी मुहाल/देखते हैं तुझ को जब उठती है हूक/आह ऐ हिन्दोस्तां ऐ खस्ता-हाल/रहम के काबिल ये बर्बादी तिरी/दीद के काबिल ये तेरा है जवाल/किस कदर खूं-रेज है कितना कबीह/तेरी मस्जिद और मंदिर का सवाल/उफ तिरे बेटों की रज्म-आराइयां/आह उनके बाहमी जंग-ओ-जिदाल/अपने फरजंदों के ये अतवार देख/देख ये ला’नत के काबिल चाल-ढाल/किस कदर जिल्लत के दिल-दादा हैं ये/बे-कमाली में हैं कितने बा-कमाल/सीना-ए-तहजीब पर है पंजा-जन/दीन के झगड़ों में इन का इश्तिआ’ल/दामन-ए-अख्लाक पर धब्बा है एक/इनकी वहशत-खेजियों का इत्तिसाल!
क्या पता, अर्श मलसियानी ने ये पंक्तियां कब और किन परिस्थितियों में रचीं, लेकिन इस बात पर अफसोस छोड़ कुछ नहीं किया जा सकता कि इन्हें पढ़ते हुए एक पल को भी नहीं लगता कि अपने प्यारे देश में जहालत, गैरबराबरी और शोषण का यह दृश्य किंचित भी कम भयावह हुआ है. ऐसे में क्या होली और कैसी होली!
इक्कीसवीं सदी के तेईसवें साल में भी दलित चेतना के प्रसारक समाजसुधारक व साहित्यकार स्वामी अछूतानंद ‘हरिहर’ (1879-1933) की निम्नलिखित पंक्तियां याद आते ही वह अकारथ ही लगने लग जाती है:
होरी खेलौ अछूतौ भाई, छुतैरों से छोर छोड़ाई.
इनके लोभ फंसे जो भाई, उन्नति कबहूं न पाई.
धोवत धीमर नाई धोती, जूंठनि रहे उठाई.
कहौ क्या पदवी पाई, भरम भ्रम-भूत भगाइ..
जिनको नीच म्लेच्छ द्विज कहते, नफरत बहुत कराई.
उनको ऊंचे ओहदे पदवी, देत हृदय में डराई.
सुविद्या बुद्धि बड़ाई, लखौ मुसलिम ईसाई..
अंग्रेजन कहं भंगी बतावत, बकत बहुत बौराई.
बनत आप उनके चपरासी, झाड़त बूटन धाई.
कहां तब गई ठकुराई, अछूतन करत सफाई..
मुलकी हक सब अलग बंटावौ, करहु संगठन भाई.
देखहु मुसलिम भाइन ‘हरिहर’ युनिवर्सिटी खुलवाई.
कालिजहु करत पढ़ाई, अछूतन देहु चेताई..
सोचिए जरा, अगर हम आजादी के 75 साल बाद भी इन पंक्तियों में उल्लिखित बुराइयों और विडंबनाओं से लुका-छिपी खेलते हुए उनका रूप भर बदल पाए हैं और उन्मूलन की सोच तक नहीं पा रहे तो यह सवाल कितना मौजूं हो जाता है कि क्या अभी भी हमारा मुंह इस काबिल बन पाया है कि हम होली को बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व कहें?
निस्संदेह इसका जवाब नहीं में ही दिया जा सकता है. भले ही हरिवंशराय बच्चन तक अनेक कवि ‘धार के इधर-उधर’ चहलकदमी करते हुए कहतें रहें: आजादी है जिसको चाहो आज उसे वर लो. होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर को! निकट हुए तो बनो निकटतर और निकटतम हो जाओ, रुढ़ि-रीति के और नीति के शासन से मत घबराओ… होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो! …जो हो गया बिराना उसको फिर अपना कर लो… होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!
सुनने में बात बहुत अच्छी लगती है कि होली है तो जो हो गया बिराना उसको फिर अपना कर लो, लेकिन क्या ऐसा करना तब तक संभव है जब तक उन कारणों की पड़ताल न की जाए, जिनके चलते वह बिराना हुआ या कि रह गया.
खासकर जब मीराबाई साफ कह गई हैं कि फागुन के दिन कुल मिलाकर चार ही हैं और उन्हें सार्थक करने के लिए ‘बिन करताल पखावज बाजै, बिन सुर राग छतीसूं गावै’ की स्थिति पैदाकर सील संतोख की केसर घोलनी पड़ती है, घट के सब पट खोलने पड़ते हैं, लोकलाज को परके रखना पड़ता है और प्रेम-प्रीत की पिचकारियों से अपार रंग बरसाने पड़ते हैं. क्या यह काम इतना आसान है कि होली सिर पर आ खड़ी हो तो उसके हुड़दंग में हा हा हू हू करते हुए झटपट पूरा कर लिया जाए? नहीं, कतई नहीं.
इसीलिए नजीर बनारसी चुहल करते हुए चेताते हैं कि ‘कहीं पड़े न मोहब्बत की मार होली में’ तो मन होता है कि काश, किसी दिन सचमुच यह मार पड़ती और हम नफरत की मार से सुरक्षित रहकर होली में हर किसी को दिल से प्यार करते हुए उसके गले में बांहों का हार डालकर पूरे बरस का खुमार उतार पाते-हवा सचमुच हर एक को चल फिर के गुदगुदाती, फिर भी जो न हंसते, उन्हें छेड़कर हंसाती और हां, सबसे बड़ी बात यह कि ‘हया गुलों को तो कलियों को शर्म आती!’
अंत में, जब तक हम यह ‘काश’ खत्म नहीं कर पाते, आइए, अली जव्वाद जैदी की ये पंक्तियां ही साझा करें: पहले जमाना और था मय और थी दौर और था, वो बोलियां ही और थीं वो टोलियां ही और थीं, वो होलियां ही और थीं!
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)