महिला दिवस विशेष: साहित्य में स्त्री दृष्टि निजी मुक्ति का नहीं बल्कि सामूहिक मुक्ति का आख्यान रचती है, इसीलिए ज़्यादा समावेशी है और अपने वृत्त में पूरी मानवता को समेट लेती है.
‘रजनीगंधा की महक धीरे-धीरे मेरे तन-मन पर छा जाती है. तभी मैं अपने भाल पर संजय के अधरों का स्पर्श महसूस करती हूँ, और मुझे लगता है, यह स्पर्श, यह सुख, यह क्षण ही सत्य है, वह सब झूठ था, मिथ्या था, भ्रम था.’
फिल्म के पर्दे पर जब अभिनेत्री विद्या सिन्हा इन भावों का अभिनय करती हैं तो यह 1974 के भारतीय सिनेमा के संदर्भ में वाकई नई बात थी, जहां स्त्री की एक मात्र पहचान बस उसका स्त्री होना है. यह एक नई स्त्री-छवि थी. यहां उससे नैतिक बने रहने की कोई अपेक्षा नहीं है. वह एक समय में दो पुरुषों से प्रेम कर सकती है और अंत-अंत तक अपने आकर्षण और प्रेम को लेकर दुविधाग्रस्त रह सकती है.
यह विश्वास कहानी के तौर पर 1966 में ही हिंदी की जनप्रसिद्ध लेखक मन्नू भंडारी ने साहित्य में दे दिया था, जब उनकी कहानी यही सच है आई थी, जिस पर बासु चटर्जी ने अपनी फिल्म रजनीगंधा बनाई. यह स्त्री को देखने की दृष्टि में नयेपन का असर था जिसे सामाजिक स्वीकृति, साहित्य ने दिलवाई थी.
बहरहाल, इस बात पर अब सालों से बहस होती आ रही है कि किसी भी वस्तु को, स्थिति को, प्रक्रियाओं को देखने के लिए हम किस दृष्टि का उपयोग करते हैं? और इसलिए ‘स्त्री दृष्टि‘ या ‘स्त्री की निगाह’ से देखे जाने की अवधारणा नारीवाद के रूप में विकसित हुई, जो उन्नीसवीं सदी के वैचारिक आंदोलनों में सबसे महत्वपूर्ण आंदोलन बना. नारीवाद मानता है कि महिलाएं, पुरुषों से अलग तरीके से दुनिया का अनुभव करती हैं और इसलिए एक अलग दृष्टिकोण से लिखती हैं.
पेट्रीशिया मेयर स्पेक्स ने भी द फ़ीमेल इमेजिनेशन (1976) में इस संदर्भ में कहा था कि ‘ऐसा कुछ तो है, जिसे हम एक महिला का दृष्टिकोण कह सकते हैं, एक ऐसा दृष्टिकोण जो सदियों से एक अलग,एक ठोस रूप में पहचाना जा सकता है.’ और यह सच भी है, क्योंकि स्त्री और पुरुष, प्राकृतिक और सामाजिक कारणों से ही किसी एक स्थिति पर या चीजों पर एक तरीके से विचार नहीं कर सकते विशेषकर तब जब कि स्त्रियों के साथ सदियों से, लगभग सभ्यता के विकास से ही एक ऐसा इतिहास जुड़ा हुआ हो, जहां वह विशेषाधिकार की स्थिति में नहीं, बल्कि दोयम दर्जे की पहचान से संबद्ध हों.
यह हमारे, विशेषकर, विकासशील और अविकसित देशों के समाज में ही होता आया है (हालांकि पश्चिम के आधुनिक देश भी कम से कम इस बात में समान ही थे) कि जहां समाज ने ‘पुरुषों’ को तो वर्चस्व के साथ जोड़कर परिभाषित किया, वहीं स्त्रियों को सिर्फ और सिर्फ ‘नैतिकता’ के पर्याय के रूप में.
बहरहाल, स्त्री और पुरुष के बीच किस-किस स्तर पर और किस-किस तरीके से समाजों ने भेदभाव को संस्थागत रूप में ढालने का काम किया है, इतिहास इसका गवाह है. इसलिए, यहां न तो उस भेदभाव की तहक़ीकात करने की जरूरत है न ही उस पर नए सिरे से प्रश्न करने की आवश्यकता.
बहरहाल, साहित्य में नारीवादी दृष्टि अचानक ही भारतीय परिदृश्य में सब ओर दिखलाई देने लगी हो, ऐसा नहीं था, बल्कि, यह धीरे-धीरे और लगातार विकसित हुई, जिसकी थोड़ी बहुत झलक पहले के लेखकों जैसे बंकिमचंद्र चटर्जी, रवींद्रनाथ टैगोर, हिंदी में प्रेमचंद और जैनेंद्र में दिखती थी.
लेखिकाओं की जहां तक बात है, आधुनिक हिंदी साहित्य में आरंभिक लेखन जिन स्त्रियों ने किया वह अपनी सामाजिक परिस्थितियों में ढका-छुपा लेखन करने के लिए अभिशप्त थीं. बंग महिला के नाम से जिस स्त्री ने ‘दुलाईवाली’ कहानी लिखी थी, उसके विषय में कुछ भी दर्ज नहीं किया गया. ऐसे में साहित्य के आरंभिक दौर में, स्त्री तो चित्रित होती रही, पर वह प्रायः पुरुषों द्वारा चित्रित की गई थी.
यह एक ऐसी स्त्री थी, जो अपनी दया, भीरुता, संयम और सहनशीलता से घर का सुख बरक़रार रखती हुई पारिवारिक रिश्तों को ममतामयी सूत्रों से बांधे रखती थी. और यह अंततः एक पितृसत्तात्मक दृष्टि ही थी. लेखक, पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्था के हाथों होते आए महिलाओं के शोषण को दिखलाते तो थे, पर अगर प्रेमचंद उसे मालती (गोदान में), आनंदी (बड़े घर की बेटी) में आदर्शवादी रूप दे देते थे तो शरतचंद उसमें रोमांटिक भावबोध भरकर उसकी धार को कुंद कर देते थे.
यह प्रवृत्ति हमें धर्मवीर भारती तक बिना किसी बाधा के दिखलाई पड़ती है, जहां वह गुनाहों का देवता में सुधा को स्त्री रहने ही नहीं देते, त्याग और सहनशीलता की देवी बनाकर छोड़ देते हैं जिसकी चंदर जैसे अति-आदर्शवादी युवक पूजा करते हैं और उनका प्रेम भी व्यक्ति सुधा के लिए नहीं रहता बल्कि अपने आप को गुनाहों से बचाने के लिए जीवन में एक केंद्र की आवश्यकता के तौर पर रहता है.
हिंदी में जैनेंद्र स्त्रियों के अपने चित्रण में पहली बार परंपरा से हटने का साहस दिखलाते हैं. त्यागपत्र, सुनीता और कल्याणी जैसे उपन्यासों में उन्होंने पहली बार उन महिलाओं को उभारा था जो नारी के आदर्श रूप से कहीं दूर थीं. ये सभी किसी-न-किसी रूप में से त्रुटियों से, दोषों से भरी स्त्रियां थी, जो स्त्रियों का वास्तव में एक प्राकृतिक चित्रण था.
यशपाल ने भी दिव्या और अपने अन्य उपन्यासों में स्त्री को एक इंसान के रूप में दिखलाने का प्रयास किया. अज्ञेय ने नदी के द्वीप में रेखा के रूप में एक सशक्त किरदार लिखा पर वह स्वयं लेखक के स्वतंत्र आदर्शों का मानवीय रूप भर था या नहीं, इस पर विवाद होता रहा. पर इस पूरे दौर में स्त्रियों पर डाली गई इन दृष्टियों में भी कहीं-न-कहीं पुरुष लेखक द्वारा जाने-अनजाने ही किया गया ‘पेट्रनाइजेशन” था, जो स्त्रियों को उसकी त्रुटियों के बावजूद भी उसे स्वीकारने का ‘महान कार्य’ करने के लिए तैयार था.
ऐसा नहीं था कि पुरुष लेखकों ने स्त्री जीवन की कठिन वास्तविकताओं को उद्घाटित करने की कोशिश नहीं की थी, पर अंततः वह सच भी एक पुरुष की दृष्टि से जांचा हुआ सच था, इसलिए प्रामाणिकता वहां भी खतरे में थी.
1950-55 के बाद नई कहानी में जब मध्य वर्ग कथा के केंद्र में आता है तो लेखकों ने, शहरी जीवन में आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होती स्त्रियों से परिवार की पारंपरिक छवि पर हमला होते हुए दिखलाया. आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी मानते हैं कि कैसे पहले की कहानियों में स्त्रियां (पत्नी या प्रेमिका) ज़्यादा व्याकुल होती थीं, प्रेमी या पति उपेक्षा दिखाता था, पर नई कहानी आते-आते अब पुरुष उद्विग्न थे.
मोहन राकेश की कहानी एक और ज़िंदगी में प्रकाश बेचैन है, क्योंकि पत्नी उसकी उपेक्षा करती है, वह नौकरीपेशा है, आर्थिक रूप से स्वतंत्र है. यही भाव हमें थोड़े अलग-अलग रूपों में कमलेश्वर की राजा निरबंसिया और रवीद्र कालिया की नौ साल छोटी पत्नी में दिखाई पड़ता है. पर इस दौर में जहां लेखकों ने पुरुष पात्रों को पाठकीय सहानुभूति के लिए गढ़ा तो वहीं स्त्री के चित्रण में वास्तविकता का हवाला देते हुए उसकी कुंठा और हताशा को ही एक तरह से ज़्यादा उभारा.
राजेंद्र यादव की जहां लक्ष्मी क़ैद है कहानी की लक्ष्मी हो या मोहन राकेश के प्रसिद्ध नाटक आधे अधूरे की सावित्री, सब अपने जीवन में पूर्णता की तलाश में, मुक्ति की तलाश में अपनी कुंठाओं से जूझती नज़र आती हैं. पर बाद के दशकों में हम देखते हैं कि कैसे कुछ बहुत प्रभावशाली पात्र हिंदी साहित्य को पुरुष लेखकों से भी मिले.
चाहे वह सुरेंद्र वर्मा की मुझे चांद चाहिए की वर्षा वशिष्ठ हो, निर्मल वर्मा के परिंदे की लतिका हो, विष्णु प्रभाकर के अर्धनारीश्वर की सुमिता हो, भीष्म साहनी के नाटक माधवी की मुख्य पात्र माधवी हो, इन सब ने स्त्री की छवि को साहित्य में सर्वांगीण बनाने की दृष्टि से उल्लेखनीय काम किया.
इस परिप्रेक्ष्य में साहित्य में स्त्री दृष्टि को वस्तुतः जब लेखिकाओं ने लाया तो, वह अपने आप में अभूतपूर्व था. शुरुआत कविता से हुई, वह भी प्रमुख रूप से छायावाद के समय, महादेवी वर्मा का लेखन असल माने में साहित्य में स्त्री दृष्टि का एक सशक्त उदाहरण बना.
हालांकि महादेवी की कविताओं को प्रायः आलोचकों ने रहस्यवादी आत्मगीत मान कर सीमित करने का यत्न तो किया, पर अपने निबंधों विशेषकर शृंखला की कड़ियां में जिस स्त्री दृष्टि से अनायास ही महादेवी समाज को देख रही थीं, वह हिंदी साहित्य के लिए निःसंदेह नई बात थी, क्योंकि 1930 के दशक में ही रशीद जहां ने ‘अंगारे’ के माध्यम से उर्दू साहित्य में विशेषकर मुस्लिम महिलाओं की समस्याओं को गैर परंपरागत साहसिकता के साथ दिखलाना शुरू कर दिया था, जिसकी अगली कड़ी हमें इस्मत चुगताई के बेहद बेबाक लेखन में दिखलाई पड़ती है.
इस प्रकार जिसे नारीवादी दृष्टि का धुंधला पूर्वाभास कहा जा सकता है, वह 1920 और 1930 के दशक की शुरुआत से भारतीय कथा साहित्य में दिखाई देने लगा था पर, उस दृष्टि का असल विकास केवल स्वतंत्रता के बाद की अवधि में, विशेष रूप से 1960 के दशक के बाद से देखा गया.
इसलिए स्त्रियों के प्रति संवेदनशील हो कर लिखे गए अब तक के साहित्य के बर-अक्स अब साहित्य में लेखिकाओं ने अपनी स्वयंवेदना को बयान करने का बीड़ा उठाया जिससे यथार्थ के कई अनदेखे पहलू साहित्य के आकाश में दर्ज हो सके. विशेषकर, हिंदी साहित्य में इन लेखिकाओं ने अपनी दृष्टि के नएपन से न केवल साहित्य को संप्रेषण की एक विधा के रूप में सशक्त किया बल्कि आधी आबादी के सच को सामने लाया.
1960 के दशकों में हिंदी जनक्षेत्र में जहां एक तरफ शिवानी की रचनाएं पहली बार हिंदी के एक बड़े पाठक वर्ग तक पहुंची, जो अपने सरल, रोचक लेखन से कुमाऊं क्षेत्र की लोक-संस्कृति की झलक दिखलाने और यादगार स्त्री पात्रों के लिए जानी गईं. तो वहीं उषा प्रियंवदा जैसी लेखिकाएं भी अपना शुरुआती लेखन ‘सरिता’ जैसी स्त्री पत्रिकाओं से कर रहीं थीं और मध्य वर्गीय घरेलू स्त्रियों में व्यापक रूप से पढ़ी जा रही थीं.
वहीं, फ़लक के दूसरे छोर पर कृष्णा सोबती थीं, जो अपनी जानदार भाषा से हिंदी साहित्य के पुरुष वर्चस्व को बिना किसी वाद-विवाद के चक्कर में पड़े चुपचाप चुनौती दे रही थीं. सोबती ने मित्रो मरजानी में पहली बार स्त्री की देह पर उसके अधिकार को विमर्श के केंद्र में लाने का ऐतिहासिक कार्य किया. देह की प्यास और तपन का ऐसा बेधड़क स्वीकार अचंभित करने वाला था और सत्तर के दशक में ऐसे बेलौस अकुंठ चरित्र का सृजन निश्चय ही चौंकाने वाली घटना थी.
आलोचक निर्मला जैन ने मित्रो के बारे में ही अपनी ऐतिहासिक टिप्पणी दी थी कि ‘मित्रो व्यक्ति नहीं एहसास है. सामाजिक मर्यादा के साथ देहधर्मिता की टकराहट है.’
मन्नू भंडारी ने आपका बंटी में तलाकशुदा शकुन को पारंपरिक मां की पुरानी छवि से बाहर निकाल अपनी कामनाओं के स्वीकार और जीवन पर अपने नियंत्रण के अधिकार को पुनर्परिभाषित किया. उषा प्रियंवदा ने पचपन खंभे लाल दीवारें में सुषमा के माध्यम से परिवार, प्रेम और विवाह जैसी संस्थाओं पर गंभीर विमर्श खड़ा किया. उसके हिस्से की धूप में मृदुला गर्ग प्रेम के बहाने अंततः स्त्री की स्वतंत्रता के सवाल के इर्द-गिर्द घूमती हुई पूछती हैं कि क्या वह प्रेम वाकई अच्छा है जो व्यक्ति की स्वतंत्रता और विकास में बाधा डालता है.
पिछले दो-तीन दशकों में भारतीय लेखिकाओं ने स्त्री को उसकी समग्रता में बिना किसी प्रभा-मंडल के साथ, एक यथार्थवादी दृष्टि से देखा है. स्त्री दृष्टि से लिखे गए साहित्य में महाश्वेता देवी (हज़ार चौरासी की मां), वाजिदा तबस्सुम (तहख़ाना), मृदुला गर्ग (कठगुलाब), प्रभा खेतान (छिन्नमस्ता), ममता कालिया (बेघर), मैत्रेयी पुष्पा (चाक), प्रतिभा राय (द्रौपदी), जिलानी बानो (ऐवान-ए-ग़ज़ल), अलका सरावगी (कलिकथा वाया बाइपास), गीतांजलि श्री (रेत समाधि), नासिरा शर्मा (पारिजात), तस्लीमा नसरीन (लज्जा), चित्रा मुद्गल (आंवा), मेहरुन्निसा परवेज़ (कोरजा) ने साहित्य में स्त्री को हाशिये से खींचकर केंद्र में लाया ही, पर साथ ही एक बड़ा योगदान उन लेखिकाओं का भी रहा जिन्होंने दलित जीवन में दोहरे दमन को सदियों से झेलती आ रही स्त्रियों को साहित्य में लाने का काम किया.
शांताबाई कांबले की माज्या जल्माची चित्तरकथा, भारतीय साहित्य में रचित पहली दलित महिला आत्मकथा है. आगे चलकर सुशीला टाकभौरे की आत्मकथा शिकंजे का दर्द और कौशल्या बैसैंत्री की रचना दोहरे अभिशाप, रमणिका गुप्ता की हादसे इस दृष्टि से उल्लेखनीय बनीं कि लेखिकाओं ने एक दलित महिला के जीवन पर पितृसत्तात्मक शिकंजे के साथ-साथ ब्राह्मणवादी समाज के हमले को भी उभारकर रखा.
आज के आधुनिक संदर्भों में अगर हम बात करें, तो निश्चित रूप से हम उस समय से एक लंबा सफर तय कर चुके हैं जब सीता और सावित्री आदर्श भारतीय नारीत्व का प्रतिनिधित्व करने वाली थीं. वह समाज ही अब नहीं रहा है जहां पति को परमेश्वर का रूप मानने वाली स्त्री ही स्त्रीत्व का एकमात्र आदर्श हो और ‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो’ के तर्ज़ पर त्याग, दया, आत्म-बलिदान ही भारतीय नारी का तय जीवन.
पर, हर दौर में महिलाओं की स्थिति अपने समय की मुख्यधारा के हिसाब से दोयम रही है, यह एक ऐतिहासिक सत्य है, लेकिन अक्सर महिलाओं के पास अपने इस सच को बयान करने, दर्ज करने के साधन नहीं होते थे. और अगर साहित्य के शुरुआती दिनों या आज से कुछ पचास साल पहले के साहित्यिक परिदृश में इस बात को समझें तो पाएंगे कि महिलाओं की रचनात्मकता को सीमित या बाधित करने में गृहस्थी चलाने वाली उनकी पारंपरिक छवि तो आड़े आती ही थी, पर एक अन्य प्रमुख कारक उनके घरेलू या सामाजिक पर्यावरण में प्रोत्साहन की सामान्य कमी भी थी, जिसके अभाव में उनके अंदर की रचनात्मकता कहीं दब-खप जाती थी.
और अगर महिलाएं जब कभी कुछ लिखती भी थीं तो उनकी लेखनी के विषय के संदर्भ में भी सामाजिक अपेक्षाएं थीं कि किस मुद्दे पर लिखा जा सकता है और किस पर क़लम नहीं चलानी है. कमला दास इस बात को महसूस करते हुए कहती थीं कि स्वतंत्रता के बहुत बाद तक भी महिलाओं के पास गंभीर लेखन के लिए सामाजिक और बौद्धिक अधिकारों का नितांत अभाव था और उनके लेखन के लिए कुछ निर्धारित मानदंड थे. वह ज़्यादा से ज़्यादा घरेलू जीवन के सुख-दुख, नैतिकता और ईश्वर भक्ति पर अपनी लेखनी चला सकती थीं. किसी भी तरह की भौतिकता पर और अंततः ‘शरीर’ पर लिखना वर्जित था.
पर कई बार महिलाएं इसलिए भी लेखन नहीं कर पातीं और जो आज भी किसी-न-किसी स्तर पर सच है कि स्त्रियों के पास वह अपना स्पेस नहीं होता जिसमें टिककर वह अपने विषय में या अपने परिवेश के विषय में सोच सकें. एक निजी स्पेस की गोपनीयता और एकांत की कमी की बात 1929 में वर्जीनिया वूल्फ ने भी मानी थी और महिलाओं में रचनात्मकता की कमी के लिए काफी हद तक ‘अपना खुद का कमरा’ न होने को जिम्मेदार ठहराया था.
स्वयं मन्नू भंडारी को अपने घरेलू परिवेश में प्रतिबद्धता और समय की कमी महसूस होती थी, जो पुरुष लेखकों का जन्मसिद्ध अधिकार होता था. अपनी आत्मकथा एक कहानी यह भी में मन्नू बतलाती हैं कि किस तरह आपका बंटी लिखने के लिए उन्हें महीनों घर के परिवेश से दूर हॉस्टल में रहना पड़ा था.
बहरहाल, साहित्य देखा जाए तो दो स्तरों पर काम करता है. एक तो वह, जहां यह संरक्षण देता है, जहां लेखक अपनी बात को लोगों तक पहुंचाने का एक मंच प्राप्त कर सकता है. तो वहीं साहित्य एक दूसरे स्तर पर लेखक को उसके संरक्षित भाव-जगत से बाहर भी निकालता है. अपनी जाति, इतिहास और संवेदनाओं को, जो अब तक कहीं भीतर दबे-छुपे पड़े थे, एक लेखक के लिए उन्हें शब्दों में ढाल देने का मतलब है अपनी भेद्यता (वलनेरबिलिटी) को सब के सामने रख देना.
साहित्य में जिस स्त्री दृष्टि की बात हम कर रहे थे, वह इस भेद्यता को स्वीकार कर पाने के बाद ही आती है, जो लेखिकाओं ने किया है. और एक बार जब अभिव्यक्ति की उस सीमा (थ्रेसहोल्ड) को पार कर लिया जाता है, तो उसके बाद की स्थिति इतनी मुक्तिदायी होती है कि वह सिर्फ लिखने वाले तक नहीं बल्कि उसे पढ़ने वाले पाठकों को भी मुक्त करने की क्षमता रखती है. साहित्य में स्त्री दृष्टि निजी मुक्ति का नहीं बल्कि सामूहिक मुक्ति का आख्यान रचती है, इसीलिए ज्यादा समावेशी है और अपने वृत्त में पूरी मानवता को समेट लेती है.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं.)