विशेष: मुक्तिबोध ने कहा था ‘तय करो किस ओर हो तुम?’ और ‘पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’ वरवरा राव इस सवाल से आगे के कवि हैं. वे तय करने के बाद के तथा पॉलिटिक्स को लेकर वैज्ञानिक दृष्टि रखने वाले कवि हैं. उनके लिए कविता स्वांतः सुखाय या मनोरंजन की वस्तु न होकर सामाजिक बदलाव का माध्यम है.
वरवरा राव एक ऐसी शख्सियत का नाम है जो सत्ता के आगे न झुकता है, न दमन से टूटता है. वह समकाल की आवाज बन जाता है. यह आवाज फासीवाद के विरुद्ध प्रतिरोध की आवाज है. इस अंधेरे के खिलाफ रोशनी है, एक उम्मीद है. वह कलम उठाता है और कविता लिखता है. कविता ललकार बन जाती है, कुछ इस तरह:
‘जीवन का बुत बनाना
काम नहीं है शिल्पकार का
उसका काम है पत्थर को जीवन देना
मत हिचको
वो शब्दों के जादूगर!
जो जैसा है, वैसा कह दो
ताकि वह दिल को छू ले’
ऐसी कविताओं से ही वरवरा राव जाने जाते हैं. वे सीधी, सरल, सच्ची और साफ-साफ बात करते हैं. उनकी कविताएं दिल-दिमाग में उतरती हैं. इनमें सामाजिक बदलाव, जीवन संघर्ष और जागरण के संदेश हैं. उनके लिए कविता का यही काम है. वह लोगों को रोटी नहीं दे सकती है, लेकिन रोटी के लिए संघर्ष की प्रेरणा जरूर दे सकती है. इसी अर्थ में वे पत्थर को जीवन देने की बात करते हैं.
मुक्तिबोध ने कहा था ‘तय करो किस ओर हो तुम?’ और ‘पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’ वरवरा राव इस सवाल से आगे के कवि हैं. वे तय करने के बाद के तथा पॉलिटिक्स को लेकर वैज्ञानिक दृष्टि रखने वाले कवि हैं. उनके लिए कविता स्वांतः सुखाय या मनोरंजन की वस्तु न होकर सामाजिक बदलाव का माध्यम है. इसलिए उनके लिए कविता करना या कहिए उनका संपूर्ण रचना कर्म सांस्कृतिक काम है. वहां संस्कृति और राजनीति के अंतर्संबंधों को लेकर कोई दुविधा या भ्रम नहीं है. उनकी समझ है कि सामाजिक बदलाव और शोषण उत्पीड़न से मुक्त मानव समाज की रचना के संदर्भ में कवि, कलाकार उसी तरह का योद्धा है जिस तरह एक राजनीतिक कार्यकर्ता. अपनी स्वायत्तता और विशिष्टता के बावजूद मानव समाज के संघर्ष में दोनों की भूमिका है.
वरवरा राव इसके उत्कृष्ट उदाहरण हैं. जेल की कालकोठरी या दमन उत्पीड़न के विभिन्न तौर तरीके उन्हें अपने मकसद से विचलित नहीं कर सका है.
वरवरा राव तेलुगू साहित्य-संसार में चमकता हुआ सितारा हैं. इस साहित्य की खासियत है कि इसने राजनीति को हमेशा से कमान में रखा है. संघर्ष और सृजन इसकी दो आंखें हैं. इसी से तेलुगू का क्रांतिकारी साहित्य पैदा हुआ है. उसकी पहचान बनी है. इसी की देन दिगंबर पीढ़ी के कवियों का क्रांतिकारी के रूप में रूपांतरण है.
आजादी के बाद सबसे पहले तेलुगू के क्रांतिकारी लेखकों का संगठन बना. विरसम (विप्लवी रचियतालु संघम) 1970 में अस्तित्व में आया. प्रलेस (प्रगतिशील लेखक संघ) स्वतंत्रता के उपरांत प्रभावहीन हो चुका था. उसकी आंध्र शाखा के अध्यक्ष महाकवि श्रीश्री ने प्रलेस से नाता तोड़ा और विरसम से जुड़ गए. उनकी घोषणा थी- ‘अब जरूरत है क्रांतिकारी लेखन की. सज्जाद जहीर का प्रगतिशील लेखक संघ अपने रास्ते से भटक चुका है. अपने प्रांत में हम झूठी प्रगतिशीलता नहीं चलने देंगे. इसलिए हमने क्रांतिकारी लेखक संगठन बनाया है.’
श्रीश्री के नेतृत्व में सुब्बाराव पाणिग्रही, चेराबंडा राजू, ज्वालामुखी, निखिलेश्वर, एमटी खान, गदर, केवीआर, टी. मधुसूदन राव आदि रचनाकारों द्वारा क्रांतिकारी साहित्य की रचना हुई. नक्सलबाड़ी और श्रीकाकुलम के संघर्ष की प्ररेणा से यह कला व साहित्य के क्षेत्र में जन उभार था. इसे सत्ता के क्रूरतम दमन का शिकार होना पड़ा.
बहुत से कवि व लेखक जो इस आंदोलन में कूद पड़े थे, वे शहीद हो गए. कइयों को गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें षड्यंत्र केस में फंसाया गया. अनेक रचनाकरों की नौकरियां चली गईं. वरवरा राव की निर्मिति में साहित्य और संघर्ष के इसी जन उभार की भूमिका थी.
वरवरा राव का जन्म 3 नवंबर 1940 को हुआ. काव्य लेखन की शुरुआत किशोरावस्था में हो गई थी. 17 की उम्र में कवि के बतौर पहचान मिली. वे मार्क्सवाद से प्रभावित हुए. विरसम से जुड़े. 20 की उम्र में तेलुगू साहित्य की पत्रिका ‘सर्जना’ का संपादन किया. 18 मई 1973 को जब उम्र 33 की होगी, उन्हें मीसा के तहत बंदी बनाया गया. उसके बाद इमरजेंसी के दौरान भी गिरफ्तारी हुई. दो दर्जन मुकदमे कायम किए गए. अनेक बार गिरफ्तारी हुई. सभी आरोप बेबुनियाद साबित हुए और अदालत द्वारा वरवरा राव बाइज्जत बरी किए गए.
उन्होंने विपुल साहित्य लेखन किया. दर्जन से ऊपर तो उनके कविता संकलन हैं. अनेक भाषाओं में उनकी कविताओं का अनुवाद हुआ. हिंदी में ‘साहस गाथा’ नाम से उनका कविता संग्रह आया. उनकी अनेक आलोचना कृतियां हैं. उन्होंने अनुवाद का काम किया. अखबारों के लिए स्तंभ लेखन किया. वर्तमान में वे आधुनिक तेलुगू साहित्य के प्रतिनिधि रचनाकार हैं. भारत के प्रगतिशील व जनवादी साहित्य समाज में उनकी प्रतिष्ठा है.
वरवरा राव को अपनी प्रखरता, सत्ता विरोध और जन प्रतिबद्धता की कीमत चुकानी पड़ी है. उन्हें भीमा कोरेगांव-एल्गार परिषद केस में गिरफ्तार किया गया. इनके साथ अनेक मानवाधिकार कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी, लेखक, वकील आदि को बंद किया गया. इन सबके ऊपर यूएपीए के तहत कार्रवाई की गई.
सत्ता के द्वारा ऐसे बुद्धिजीवियों के लिए एक नया पद ईजाद किया गया है- ‘अर्बन नक्सल’. आज सत्ता से असहमति व्यक्त करने वाले लेखकों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, सामाजिक व मानवाधिकार कार्यकर्ताओं आदि के लिए यही पदनाम है. यह दायरा बढ़ता जा रहा है.
सरकार काव्य लेखन, साहित्य सृजन, बौद्धिक व लोकतांत्रिक क्रियाकलाप आदि को अनुकूलित करने में लगी है. उसे असहमति व आलोचना बर्दाश्त नहीं है. जो विरोध में है, उनका दमन-उत्पीड़न सामान्य-सी बात है. आज ऐसे लोगों की लंबी फेहरिस्त बनाई जा सकती है जिन्हें शिकार बनाया गया है या बनाया जा रहा है. बुलडोजर दमन का प्रतीक बन गया है.
यह वर्तमान की सच्चाई है, परंतु इसका दूसरा पहलू भी है. वह है प्रतिरोध का. वरवरा राव की गिरफ्तारी के बाद साहित्य समाज में उसकी प्रतिक्रिया देखने में आई. इसके विरोध में अनेक कवियों ने कविताएं लिखीं, साहित्यकारों ने विरोध दर्ज किया और उनके साथ एकजुटता प्रदर्शित की.
आज वरवरा राव की उम्र 82 की हो चुकी है. लंबे समय तक जेल में बंद होने के बाद मेडिकल आधार पर उन्हें पिछले साल अगस्त में जमानत मिली. जेल में रहते हुए उनके जीवन के लिए गंभीर संकट पैदा हो गया था. यहां उनका जरूरी इलाज हो सके, इसके लिए भी अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ा. जेल में रहते हुए उन्हें भारी यातना से गुजरना पड़ा. जेल में सामान्य रूप से मिलने वाली सुविधाओं से भी वंचित कर दिए गए. आखिरकार सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद वे जमानत पर रिहा हुए. वे जेल से बाहर तो आ गए परंतु उन पर कोर्ट की तमाम शर्तें लागू हैं.
अदालत के आदेश में कहा गया है कि कवि अपने घर हैदराबाद वापस नहीं जा सकता. उनकी तीन बेटियां हैं- सहजा, अनला और पवना. वे हैदराबाद में रहती हैं. वहां उनका परिवार है. वरवरा राव की उम्र और स्वास्थ्य को देखते हुए उनकी देखभाल के लिए बेटियों का साथ रहना जरूरी है. कोर्ट का आदेश ऐसा है जिसमें वे मुंबई नहीं छोड़ सकते. फलस्वरूप उन्हें मुंबई में ही रहना पड़ रहा है. उनके साथ पत्नी पी. हेमलता हैं जो उनका ख्याल रखती हैं. उन्हें सार्वजनिक कार्यक्रमों में भाग लेने की मनाही है. वे प्रेस, इलेक्ट्रानिक व सोशल मीडिया पर बयान नहीं दे सकते हैं.
फिलहाल वरवरा राव मुंबई के गोरेगाांव में रह रहे हैं. यहीं पिछले माह उनसे मुलाकात हुई. उन्होंने बढ़ती उम्र, स्वास्थ्य तथा अकेलेपन से निपटने के तरीके के तौर पर अनुवाद के काम में अपने को लगा रखा है. पिछले दिनों बांग्ला के मशहूर कवि काजी नजरुल इस्लाम की कविताओं का तेलुगू में अनुवाद किया. यह किताब के रूप में शीघ्र प्रकाशित होकर आने वाली है. गुलजार उनके प्रिय कवि हैं. उनकी कविताओं का भी अनुवाद किया है.
बातचीत के प्रसंग में देवीप्रसाद मिश्र की कविता ‘मुसलमान’ पर भी चर्चा हुई. इसका भी तेलुगू में अनुवाद किया है. उन्होंने इसी तरह के सृजनात्मक कामों में अपने को लगा रखा है.
इस मुलाकात में अपनी कृतियों का भी आदान-प्रदान हुआ. उनसे हमें दो किताबें मिलीं. पहली उनकी जेल डायरी तथा जेल से लिखे उनके पत्रों का संग्रह है तो दूसरी किताब एन. वेणुगोपाल की लिखी ‘द मेकिंग ऑफ वरवरा राव’. उनके साथ छोटी-सी गोष्ठी भी हो गई. इसमें हमने वरवरा राव की गिरफ्तारी के विरोध में लिखी कविता सुनाई.
‘कवि बड़ा खतरनाक है/वह कविता लिखता है/जीवन के गीत गाता है/क्रांति की धुन पर थिरकता है/हां, उनके लिए कवि बड़ा खतरनाक है/…और उसके जीवन को खत्म कर देने के/हजार उपक्रम जारी है/पर यह सत्ता है जो काट रही उसी डाल को/जिस पर वह बैठी है’.
बातचीत के क्रम में हमने बताया कि फादर स्टेन स्वामी की न्यायिक हिरासत में हुई मौत पर भी संग्रह में कविता है. उन्होंने सुनने की इच्छा व्यक्त की. कविता कुछ इस प्रकार थी:
‘सत्य को झूठ/झूठ को सत्य बनाने के खेल के/वे उस्ताद हैं/हत्या की ऐसी-ऐसी तरकीबें हैं उनके पास/कि हत्या, हत्या नहीं सामान्य मौत लगे/ठंडी मौत मारना एक सिलसिला है/जो चल पड़ा है/उन्होंने मौत पर/जश्न मनाने वालों का कुनबा खड़ा कर लिया है/लोकतांत्रिक मर्यादाएं वस्त्र हो चुकी हैं/फादर ने तो यही पूछा था/‘क्या है मेरा अपराध?’/…जब राजा बहरा और अंधा हो/तो ऐसी आवाज नहीं सुनी जाती/अपना नंगापन भी उसे नहीं दिखता.’
आज के इस फासीवादी दौर में लेखकों व बुद्धिजीवियों की क्या भूमिका हो? हमारे विचार-विमर्श का यह भी विषय था. उन्होंने लंबा समय जेल में गुजारा. अब भी हालत ऐसी है जिसमें वे लोगों से मिल नहीं सकते हैं. गिने-चुने ही मिलने आते हैं. ऐसे में क्या संदेश है?
उनकी ओर से संदेश जैसा कुछ नहीं था पर जोर देकर कहा- एकता, एकता, एकता…. मोर्चा, मोर्चा, मोर्चा. कहना था कि जिस तरह पिछली सदी में जब दुनिया में फासीवाद का उभार हुआ था, हमारे यहां के लेखकों ने फासीवाद मोर्चा बनाया था. उसी तरह का मोर्चा बने. उसी दिशा में पहल ली जानी चाहिए. यह भी कहना था कि लेखकों के अनेक संगठन हैं. इनके होते हुए भी मोर्चा बन सकता है.
उनकी राय थी कि वे जो कर रहे हैं, वे करते रहें. उनका अस्तित्व बना रहे. इसके बाद भी उनके बीच फासीवाद विरोधी संयुक्त मोर्चा बन सकता है और बने. संघर्ष और एकजुटता से ही राह निकलेगी.
उनके साथ की यह हमारी बेहतरीन शाम थी, ऊर्जस्वित कर देने वाली. दिली इच्छा उनसे सुनने की थी. हमारे अनुरोध को वे मुस्कुराकर टाल गए. ऐसे में उनकी कविता का पाठ हम ही ने किया. यह बेंजामिन मोलाइस को फांसी दिए जाने के बाद उन्होंने लिखी थी. यह काफी लोकप्रिय भी है:
‘कब डरता है दुश्मन कवि से/जब कवि के गीत अस्त्र बन जाते हैं/वह कैद कर लेता है कवि को/फांसी पर चढ़ाता है/फांसी के तख्ते के एक ओर होती है सरकार/दूसरी ओर अमरता/कवि जीता है अपने गीतों में/और गीत जीता है जनता के हृदय में’
कहा जा सकता है कि तमाम विपरीतताओं के बीच वरवरा राव का कवि अपने गीतों में जीता है जहां एक बेहतर दुनिया और जनमुक्ति का स्वप्न है. उसका संघर्ष इसी स्वप्न को सच्चाई में बदल देने के लिए है.
(लेखक साहित्यकार हैं और जन संस्कृति मंच, उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष रहे हैं.)